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Showing posts from 2019

मृदविका की नृत्य प्रस्तुति नंदिता की कला यात्रा को सीधे ट्रांसलेट करने की बजाये एक अलग अनुभव-दृश्य की तरह अभिव्यक्त करती है और ऐसा करते हुए वह नंदिता के रचना-संसार की व्यापकता व शाश्वतता को रेखांकित करती है

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पिछले दिनों पहले नई दिल्ली स्थित इंडिया हैबिटेट सेंटर में और फिर गुरुग्राम की एक ऑर्ट गैलरी में नंदिता रिची की पेंटिंग्स तथा उनकी नृत्यांगना पुत्री मृदविका की नृत्य-प्रस्तुति के जरिये चित्रकला और नृत्य कला के अंतर्संबंधों का एक अनोखा नजारा देखने को मिला ।  नंदिता एक लैंडस्केप पेंटर हैं, और प्रकृति चित्रण को लेकर समकालीन कला जगत में उनकी खास पहचान है । उनके लैंडस्केप वास्तविक से दिखते जरूर हैं, लेकिन वह वास्तविक नहीं हैं क्योंकि वह किसी जगह विशेष का आभास नहीं देते हैं । उनके लैंडस्केप की जड़ें प्रकृति में हैं, लेकिन जिन्हें उन्होंने अपनी कल्पनाशीलता से अन्वेषित (इनवेंट) किया है । मृदविका एक प्रशिक्षित नृत्यांगना हैं, और इंडियन-ऑस्ट्रेलियन कोरियोग्राफर एश्ले लोबो की कंपनी डांसवर्क्स अकेडमी की वरिष्ठ सदस्या हैं । नंदिता व मृदविका के काम की 'प्रकृति' में बड़ा अंतर तो है ही, स्थिति यह भी थी कि दोनों कला माध्यमों के बीच अंतर्संबंध को स्थापित करने का निर्वाह मृदविका को ही करना था; नंदिता को तो जो करना था, वह कर चुकी थीं और एक चित्रकार के रूप में अपनी पहचान के अनुरूप ही कर चुकी थीं ।

भारतीय रंगमंच को नई और आधुनिक पहचान देने वाले इब्राहिम अल्काज़ी की पेंटिग्स व ड्राइंग्स की प्रदर्शनी उनके एक और सृजनात्मक रूप से परिचित करवाने का काम करेगी

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ऑर्ट हैरिटेज गैलरी में 15 अक्टूबर की शाम को इब्राहिम अल्काज़ी की पेंटिंग्स व ड्राइंग्स की एक बड़ी प्रदर्शनी का उद्घाटन हो रहा है । इस प्रदर्शनी में 1940 के दशक के अंतिम वर्षों से लेकर 1970 के दशक के आरंभिक वर्षों के बीच बनाई गईं उनकी पेंटिंग्स व ड्राइंग्स प्रदर्शित होंगी ।  पद्मश्री (1966), पद्म भूषण (1991) व पद्म बिभूषण (2010) इब्राहिम अल्काज़ी को भारतीय रंगमंच को आधुनिक रूप व पहचान देने वाले गिने-चुने लोगों में देखा/पहचाना जाता है । दरअसल इसीलिए उनके चित्रों की होने वाली प्रदर्शनी एक रोमांच पैदा करती है कि रंगमंच के एक पुरोधा ने चित्रकला को कैसे बरता होगा ? यह सवाल इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि जिस समयावधि में बनाई गईं उनकी पेंटिंग्स व ड्राइंग्स प्रदर्शित हो रही हैं, उस समयावधि में इब्राहिम अल्काज़ी भारतीय रंगमंच को नई पहचान देने के खासे चुनौतीपूर्ण व मुश्किल काम में जुटे हुए थे । 18 अक्टूबर 1925 को पुणे में जन्मे इब्राहिम अल्काज़ी मुंबई के सेंट जेवियर कॉलिज में पढ़ने के दौरान सुल्तान 'बॉबी' पदमसी के थियेटर ग्रुप के सदस्य बन गए थे, जो अंग्रेजी में नाटक करते थे । यह करते हु

निधन के आठ वर्ष बाद भी अपनी चित्रभाषा को लेकर सम्मान/प्रतिष्ठा तथा विरोध/नफरत का एक साथ सामना करने वाले अमेरिकी अमूर्त चित्रकार ट्वॉम्ब्ली युवा कलाकारों के लिए एक सबक व प्रेरणा का स्रोत आखिर क्यों हैं ?

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दुनिया भर में अमूर्त कला, उसके चित्रकारों तथा उससे जुड़ी गतिविधियों को प्रचारित/प्रसारित करने वाली संस्था 'एब्स्ट्रेक्ट' ने आज सुबह अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर जब 'सीवाई' ट्वॉम्ब्ली के नाम से जाने/पहचाने जाने वाले प्रख्यात अमेरिकन चित्रकार एडविन पारकर ट्वॉम्ब्ली की पेंटिंग की तस्वीर लगाई, तो सात घंटे के अंदर उसे साढ़े तीन हजार से ज्यादा लाइक्स तो मिल गए, लेकिन साथ ही कमेंट्स के रूप में बहुत ही बुरी प्रतिक्रियाएँ भी मिलीं ।  लोगों ने उनकी पेंटिंग का बहुत ही बुरे तरीके से मजाक बनाया और टिप्पणियाँ कि इस तरह की पेंटिंग करने वाले को चित्रकार कैसे माना जा सकता है ? उल्लेखनीय है कि 2011 में 83 वर्ष की उम्र में अंतिम साँस लेने वाले ट्वॉम्ब्ली को अपने जीवन में भी अपनी कला को लेकर कई मौकों पर प्रतिकूल स्थितियों व भारी विरोध का सामना करना पड़ा था ।  ट्वॉम्ब्ली दुनिया के गिने-चुने कलाकारों में हैं, जिन्होंने अपने जीवन में सम्मान/प्रतिष्ठा तथा विरोध/नफरत को एक साथ प्राप्त किया । आज इंस्टाग्राम पर उनकी एक पेंटिंग की तस्वीर लगने पर जो नजारा बना/दिखा, उसने बताया है कि उनके प्रति सम्मान

कला-संसार में आमतौर पर जिन बातों/स्थितियों को सफलता के पैमानों के रूप में देखा/पहचाना जाता है, उन्हें पाने/अपनाने के बावजूद अधिकतर कलाकार अपनी कला के साथ गायब क्यों हो जाते हैं ?

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करीब पंद्रह वर्षों तक एक चित्रकार के रूप में कला-संसार में 'धूम' मचाये रखने के बाद उसने कला-संसार से नाता पूरी तरह तोड़ लिया है ।  पिछले चार/पाँच वर्षों से उसने ब्रश और या पेंसिल को हाथ तक नहीं लगाया है ।अपनी पेंटिंग्स तथा स्केचेज को उसने पैक करके स्टोर में रख दिया है, और उन्हें खोल कर देखना तो दूर, अब वह उनकी तरफ देखता भी नहीं है । कला-संसार ने उसे बुरी तरह निराश किया है, जिसके परिणामस्वरूप अब वह कला पर किसी तरह की कोई बात करने के लिए भी तैयार नहीं होता है और न किसी तरह की कोई जिज्ञासा रखता है ।  हालाँकि अपने जीवन में वह बहुत खुश है और तमाम गतिविधियों में खासी दिलचस्पी के साथ शामिल होता है । मजे की बात यह है कि कला-संसार में जब तक वह सक्रिय था, दूसरे कलाकार उससे ईर्ष्या ही करते थे - क्योंकि उसका जोरदार जलवा था ।  अपनी नई पेंटिंग और या अपने किसी स्केच की तस्वीर वह अपने किसी सोशल अकाउंट पर डालता था, तो उसे ढेरों लाइक्स मिलते थे, कमेंट्स के रूप में उसे खूब वाहवाही मिलती थी । अपनी पेंटिंग्स की उसने सात एकल प्रदर्शनियाँ की थीं । शुरू की दो/तीन प्रदर्शनियाँ तो सामान्य रहीं थीं, ल

बसंत भार्गव की ड्राइंग्स उनकी कलात्मक अनुभूति में नया आयाम जोड़ने के साथ-साथ हमें अभिभूत, आलोड़ित और रोमांचित भी करती हैं

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बसंत भार्गव की 'लाइंस ऑफ अ सिटी' शीर्षक से जिन ड्राइंग्स की प्रदर्शनी 8 जून को भोपाल की आलियंस फ्रांसिस कला दीर्घा में उद्घाटित हो रही है, उनके 'बनने' की प्रेरणा के स्रोत तीन वर्ष पहले उज्जैन में संपन्न हुए सिंहस्थ कुंभ में छिपे मिलेंगे ।  यूँ तो हर रचना अकस्मात और या अप्रत्याशित रूप से हुए अनुभवों को व्यवस्थित रूप देने का 'नतीजा' ही होती है; लेकिन व्यवस्थित रूप देने की प्रक्रिया चूँकि अनिश्चित ही होती है, इसलिए उसके उदगम स्थल का प्रायः कोई महत्त्व नहीं होता है । बसंत भार्गव किंतु खुद अपनी ड्राइंग्स के उदगम स्थल के रूप में उज्जैन के सिंहस्थ कुंभ को रेखांकित करते हैं, इसलिए मामला दिलचस्प हो जाता है ।  बसंत बताते हैं कि कला के एक साधक होने के नाते वह ड्राइंग करते तो थे, लेकिन ड्राइंग को उन्होंने कभी प्रोफेशनल रूप में करने/अपनाने में रुचि नहीं ली और कई साथियों को ड्राइंग करता देखने और उनके काम से चमत्कृत होते रहने के बावजूद वह प्रोफेशनल रूप में ड्राइंग करने को लेकर कभी प्रेरित नहीं हो सके ।  वर्ष 2016 में उज्जैन में आयोजित हुए सिंहस्थ कुंभ का नजारा देख कर ड्राइ

रवीन्द्रनाथ टैगोर की चित्र-कृतियों में जीवन और उसकी क्षणभंगुरता एवं निस्सारता का भाव देखा/पहचाना जा सकता है, जो उनकी कविता का भी मुख्य स्वर है

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वर्ष 1861 में आज के दिन जन्मे रवीन्द्रनाथ टैगोर के बारे में यह तथ्य तो बहुत आम है कि उन्होंने एक हजार से ज्यादा कविताओं, दो हजार से ज्यादा गीतों, करीब दो दर्जन नाटकों, आठ उपन्यासों, कहानियों के आठ से ज्यादा संकलनों, राजनीतिक-सामाजिक-धार्मिक-साहि त्यिक विषयों पर तमाम लेखों की रचना की है; लेकिन यह जानकारी कम ही है कि उन्होंने करीब 2500 पेंटिंग्स व स्केचेज भी बनाए हैं, जिनमें से 1500 से कुछ ज्यादा शांतिनिकेतन स्थित विश्व भारती विश्वविधालय के संग्रहालय में देखे जा सकते हैं । यह तथ्य भी गौरतलब तथा रोमांच पैदा करने वाला है कि वर्ष 1913 में 52 वर्ष की उम्र में साहित्य के लिये नोबेल पुरुस्कार प्राप्त करने वाले रवीन्द्रनाथ के चित्रों की पहली प्रदर्शनी वर्ष 1930 में जब हुई थी, तब वह 69 वर्ष के थे । दिलचस्प संयोग है कि 89 वर्ष पहले पेरिस में हुई रवीन्द्रनाथ के चित्रों की यह पहली प्रदर्शनी इन्हीं दिनों हुई थी । 5 मई से 19 मई 1930 के बीच हुई प्रदर्शनी की इतनी जोरदार चर्चा हुई कि इसके तुरंत बाद यह प्रदर्शनी कई यूरोपीय देशों में हुई । भारत में उनके चित्रों की पहली प्रदर्शनी पेरिस में हुई प्रदर

बच्चों की चित्रकला

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देवी प्रसाद की लिखी एक अनोखी पुस्तक 'शिक्षा का वाहन कला' मुझे अभी हाल ही में अचानक हाथ लगी । शिक्षाविद व कलाविद के रूप में ख्याति प्राप्त देवी प्रसाद, रवीन्द्रनाथ ठाकुर के स्कूल शान्तिनिकेतन के स्नातक थे । सेवाग्राम की आनंद-निकेतन शाला में कला विशेषज्ञ के रूप में काम करते हुए बालकों के साथ हुए अपने अनुभवों के आधार पर देवी प्रसाद ने करीब पचास वर्ष पहले यह पुस्तक तैयार की थी । यह पुस्तक बच्चों की कला को लेकर पैदा होने वाले सवालों का बड़े ही तर्कपूर्ण, व्यावहारिक तथा दिलचस्प तरीके से जवाब देती है । उल्लेखनीय है कि बच्चों के बनाये चित्रों को लेकर आमतौर पर काफी सारी गलतफहमियां हम बड़े पाल लेते हैं । जहाँ एक ओर बच्चों द्वारा बनाये चित्रों को हम काफी हल्के तौर पर लेते हैं वहीं दूसरी ओर बाल चित्रकला को लेकर हमारी काफी सारी जिज्ञासाएं भी होती हैं । इस पुस्तक में सवाल और जवाब के रूप में बात कही गई है । पुस्तक में दिए गए सवाल और उनके जवाब हमारी जिज्ञासाओं को सचमुच दिलचस्प तरीके से पूरा करते हैं । कुछ विशेष सवाल और उनके जवाब यहाँ प्रस्तुत हैं : सवाल : बच्चों के चित्रों का अभिप्राय

निर्मल वर्मा की कुछ बातें

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'एक कलाकृति का जादू और मर्म और रहस्य  उसकी नितांत निजी, विशिष्ट बुनावट में रहता है ।'   'कलाकृति की सार्थकता इसी में है कि  वह हमारी अंतर्दृष्टि को अधिक व्यापक और संवेदनशील बना सके ।  उस व्यापक दृष्टि के सहारे हम अपना जीवन-दर्शन  खुद खोज सकें ।'    'पेंटिंग में रंग अपने में कोई महत्त्व नहीं रखता,  जब तक वह अपनी उचित जगह,  सही 'स्पेस' से नहीं बोलता ।'     'आज यदि रचनाएँ हमें संपूर्णता या कृतज्ञता का  बोध नहीं करा पातीं  तो इसलिए कि कला ने अपनी स्वतंत्रता की  गरिमामय प्रतिज्ञा भूलकर  अपने को समय के फार्मूलों, मन्त्रों और फैशनों में बाँध लिया है ।'     'जिसे आप 'क्रियेटिविटी' कहते हैं  वह इस बात में निहित होती है कि जो चीज दिखाई देती है  उसका सत्व उस चीज के भीतर छुपा है  और हमारी 'क्रियेटिविटी' इससे उद्धेलित होती है कि  इस छिपे हुए सत्य को बाहर के यथार्थ में रूपांतरित करे ।   इसीलिए एक कवि शब्दों को लेता है और उन्हें कविता में रूपांतरित कर देता है ।  एक वास्तुकार एक पत्थर

कोच्ची-मुज़िरिस बिएनाले में लॉन्च हो चुके जितिश कल्लट के मोनोग्राफ को इंडिया ऑर्ट फेयर में दोबारा लॉन्च करना कला और बाजार के पेचीदा रिश्ते में धोखाधड़ी को स्वीकार्यता मिलने का उदाहरण है क्या ?

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31 जनवरी से नई दिल्ली में शुरू हो रहे इंडिया ऑर्ट फेयर के आयोजक भारतीय समकालीन कलाकार जितिश कल्लट पर प्रकाशित हुए मोनोग्राफ के लॉन्च के कार्यक्रम को लेकर विवाद में फँस गए हैं ।  इंडिया ऑर्ट फेयर के कार्यक्रमों की लिस्ट में 2 फरवरी को नेचर मोर्ते गैलरी द्वारा प्रकाशित जितिश कल्लट के मोनोग्राफ को लॉन्च करने का कार्यक्रम शामिल है । इस मामले में विवाद का मुद्दा यह है कि उक्त मोनोग्राफ  तो लेकिन कोच्ची-मुज़िरिस बिएनाले में पहले ही लॉन्च हो चुका है । 12 दिसंबर को उद्घाटित हुए कोच्ची-मुज़िरिस बिएनाले के दूसरे ही दिन, यानि 13 दिसंबर को फोर्ट कोच्ची के कब्राल यार्ड के पवेलियन में उक्त मोनोग्राफ रिलीज हुआ और उसकी पहली प्रति कोच्ची के पूर्व मेयर के जे सोहन को सौंपी गई थी ।  सवाल यह पूछा जा रहा है कि करीब पचास दिन पहले ही लॉन्च हुए मोनोग्राफ को इंडिया ऑर्ट फेयर में दोबारा से क्यों लॉन्च किया जा रहा है ? इंडिया ऑर्ट फेयर के पास कार्यक्रमों की कमी है क्या, जो उसे दूसरे आयोजनों के कार्यक्रमों को इम्पोर्ट करना पड़ रहा है ?  इंडिया ऑर्ट फेयर की पहचान एक बड़े अंतर्राष्ट्रीय कला मेले की है; स्वाभाविक रूप

जयपुर के जवाहर कला केंद्र की डायरेक्टर जनरल पूजा सूद के कार्य-व्यवहार से नाराज कलाकारों ने उन्हें हटाए जाने के लिए राजस्थान की नई सरकार पर दबाव बनाया

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राजस्थान में सत्ता परिवर्तन होते ही जयपुर स्थित  जवाहर कला केंद्र की डायरेक्टर जनरल पूजा सूद को पद से हटाए जाने की माँग जोर पकड़ने लगी है ।  पूजा सूद को भाजपा की कठपुतली के रूप में देखा/पहचाना जाता है । जवाहर कला केंद्र के संचालन बोर्ड में विश्वविख्यात शिल्पकार अनीश कपूर को शामिल करने के दो दिन बाद ही हटा दिए जाने के मामले में कलाकार बिरादरी में पूजा सूद के खिलाफ गहरी नाराजगी पैदा हुई थी । दरअसल अनीश कपूर की नियुक्ति के साथ ही भाजपा सरकार की जानकारी में आया कि अनीश कपूर ने ब्रिटिश अखबार 'द गॉर्जियन' में एक लेख लिख कर विचारों व अभिव्यक्ति की भिन्नता को लेकर मोदी सरकार के असहिष्णु रवैये की आलोचना की है । यह जानकारी मिलते ही अनीश कपूर की नियुक्ति को तत्काल रद्द कर दिया गया ।  इसके अलावा, जवाहर कला केंद्र में आयोजित हुए जयपुर ऑर्ट समिट में प्रख्यात कलाकार चिंतन उपाध्याय के गाय को लेकर बनाए और प्रदर्शित किए गए एक शिल्प को 'धार्मिक भावनाएँ भड़काने' वाला बताते हुए पुलिस द्वारा की गई कार्रवाई में न सिर्फ उक्त शिल्प नष्ट कर दिया गया, बल्कि चिंतन उपाध्याय के साथ बदतमीजी भी की ग

नंदिता रिची की पेंटिंग्स उर्फ़ उम्मीदों व सपनों से भरी एक हरी-भरी दुनिया के नष्ट-भ्रष्ट होने की उदासी, चिंता और आशंका की अभिव्यक्ति

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नंदिता रिची के लैंडस्केप चित्र पहली नजर में आकर्षित करते हैं और इस तरह आकर्षित करते हैं कि अपने सामने रोक लेते हैं; लेकिन देर तक ध्यान से देखे जाने पर वह एक रहस्यमय, फंतासी लोक की तरह का अहसास करवाते हैं और एक खास तरह की आशंका (एंग्जाइटी) के तत्वों से बनते अंतर्विरोधी वातावरण के चलते वह उल्लेखनीय लगने लगते हैं । उनकी पेंटिंग्स में रंग प्रायः अंतर्विरोधी संगत करते हैं - एक तरफ तो वह बहुत चटख चमक लिए दिखेंगे, लेकिन साथ-साथ ही वह पनीले और हल्के पड़ते नजर आयेंगे; और इस तरह वह एक सुंदर व रहस्यमयी नजर आने वाले वातावरण में चिंता, उदासी व आशंका के सूक्ष्म संकेतों को और गहरा करते से लगेंगे । कह सकते हैं कि उम्मीदों व सपनों से भरी एक हरी-भरी दुनिया के नष्ट-भ्रष्ट होने की उदासी, चिंता और आशंका उनके चित्रों में अभिव्यक्ति पा रही महसूस होती है - जिसके चलते उनके चित्र वास्तविक अर्थ व प्रासंगिकता पाते लगते हैं, और महत्त्वपूर्ण हो उठते हैं । ऐसा भी नहीं लगता कि नंदिता अपने चित्रों में सायास कुछ व्यक्त करने की कोशिश कर रही हों, क्योंकि तब उनके चित्रों में अभिव्यक्त होने वाली सहजता व स्वाभाविकता संभ

गैलरीज तथा कला बाजार के संगठित तंत्र से बाहर रहने वाले कलाकार अपनी कला और अपनी प्रदर्शनी से जुड़े कामों को कलात्मक और प्रभावी ढंग से करने की बजाए संयोग, जुगाड़ और किस्मत के भरोसे ही क्यों रहते हैं ?

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चंडीगढ़ में युवा कलाकारों के एक ग्रुप  ने समूह प्रदर्शनी के अपने आयोजन को 'हाईप' देने के लिए आसान फार्मूला यह सोचा और अपनाया कि शहर के कुछेक वरिष्ठ कलाकारों को उन्होंने अपनी प्रदर्शनी में अपना अपना काम प्रदर्शित करने के लिए  'आमंत्रित' किया ।  ऐसा करते हुए उन्होंने उम्मीद की कि वरिष्ठ कलाकारों की उपस्थिति के कारण मीडिया और शहर के कला प्रेमियों का ध्यान उनके आयोजन की तरफ आकृष्ट होगा और उन्हें तथा उनके काम को पहचान मिलेगी । लेकिन कुल नतीजा उल्टा निकला; मीडिया और कला प्रेमियों का सारा ध्यान वरिष्ठ कलाकारों पर ही केंद्रित रहा - और प्रदर्शनी के आयोजक युवा कलाकार ठगे से रह गए । अब वह अपने उस फैसले को कोस रहे हैं, जिसके तहत उन्होंने वरिष्ठ कलाकारों को अपनी प्रदर्शनी में अपना काम प्रदर्शित करने का आमंत्रण दिया । सवाल लेकिन यह है कि वह यदि उक्त फैसला न करते तो उन्हें मीडिया व कला प्रेमियों के बीच वैसी ही चर्चा और पहचान मिलती, जैसी कि वह चाहते होंगे ? मेरा जबाव नहीं में है ।   मैंने देखा/पाया है कि अधिकतर कला प्रदर्शनियाँ यूँ ही संपन्न हो जाती हैं; उनकी शुरुआत तो उत्साह के साथ