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Showing posts from June, 2018

इटली के पर्लेमो से लेकर दिल्ली व मुंबई में हाल के दिनों में कला को लेकर जो हुआ है, वह अपनी संरचना और व्यवस्था में कोई बहुत नया या अनोखा न होते हुए भी उम्मीद जगाने तथा रास्ता दिखाने वाला जरूर है

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पिछले पाँच-छह दशकों में कला की दुनिया में परंपरागत माध्यमों से इतर नए माध्यमों का जो विस्तार हुआ है, और उसमें तकनीकी विकास ने जो योगदान दिया है - उसने कला के विश्लेषण व अवलोकन के प्रतिमानों को तो अस्थिर किया ही है, कला के देखने/समझने के पूरे फ्रेम को भी बदल दिया है । चाक्षुक कला में नित नए होते प्रयोगों ने दर्शकों और कला-प्रेक्षकों को लगातार चमत्कृत व अचम्भित किया है, जिसका नकारात्मक प्रभाव भी पड़ा है और वह यह कि कला को जरूरत के रूप में देखने की बजाये प्रदर्शन और फैशन की चीज मान लिया गया; और कला को सनसनी फैलाने का जरिया मान लेने की प्रवृत्ति बढ़ी । इस वजह से कला की समाज से दूरी बनती व बढ़ती गई । इस कारण से उन कलाकारों के सामने दिक्कत आई जो दर्शकों व कला-प्रेक्षकों से संवाद बनाना/करना चाहते हैं; और सच यह भी है कि अलग अलग कारणों से हर कलाकार ही संवाद बनाना चाहता है । चूँकि हर समस्या, अपने हल के प्रयासों की प्रेरणास्रोत भी होती है - इसलिए समस्याएँ पैदा हुईं, तो उनके हल के प्रयास भी तेज हुए और इन प्रयासों को इंस्टालेशन व पब्लिक ऑर्ट जैसे कला-रूपों ने भी बढ़ावा दिया । हाल ही के दिनों म

शुरू में जब स्वामीनाथन के चित्रों को यह कहते हुए समूह प्रदर्शनी में शामिल करने से इंकार कर दिया गया था कि 'स्वामीनाथन चित्रकार नहीं है, वह तो पत्रकार है'

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समकालीन भारतीय कला में जगदीश स्वामीनाथन का आज बड़ा नाम है, लेकिन उनकी कलायात्रा के शुरुआती दिनों का वह प्रसंग खासा दिलचस्प है - जब दिल्ली में आयोजित हो रही एक समूह प्रदर्शनी में उनका काम शामिल करने से इंकार कर दिया गया था, और इंकार करने का फैसला भी जिन लोगों ने किया था, वह उनके अच्छे परिचित और मित्र थे । विनोद भारद्वाज ने परमजीत सिंह पर लिखी अपनी किताब में सूरज घई के हवाले से इस घटना का विस्तृत विवरण दिया है । इस विवरण के अनुसार, 'सेवेन पेंटर्स' नाम से बने एक ग्रुप ने 1961 में दिल्ली में एक नए कला-आंदोलन की शुरुआत की, जिसे 'अननोन' नाम दिया गया था । उक्त ग्रुप में परमजीत सिंह, आरके धवन, वेद नायर, विद्यासागर कौशिक, अमल पाल, सूरज घई और आरके भटनागर सदस्य थे । इस ग्रुप ने दिसंबर 1958 में आईफैक्स में समूह प्रदर्शनी की थी, जिसे खासी प्रशंसा मिली थी । इसके बाद इस ग्रुप में दो और लोग जुड़े - एरिक बोवेन और नरेंद्र दीक्षित । रफी मार्ग पर स्थित आईईएनएस बिल्डिंग में इन नौ कलाकारों के काम की प्रदर्शनी आयोजित हुई, जिसका उद्घाटन तत्कालीन केंद्रीय शिक्षा व संस्कृति मंत्र

।। रंगीला जोकर ऑफ द ग्रेट इंडियन सर्कस ।।

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भारत की आजादी की लड़ाई के दौर में पली-बढ़ी तथा स्वतंत्रता के तुरंत बाद के दौर में सर्जनात्मक रूप से सक्रिय हुई पीढ़ी के अग्रणी नामों में एक मक़बूल फ़िदा हुसेन के निधन को आज सात वर्ष हो गए हैं । आधुनिक भारतीय चित्रकला में निर्णायक परिवर्तन लाने वाले चुनिंदा चित्रकारों में एक हुसेन साहेब में 96 वर्षीय जीवन के अंतिम दिनों तक भी जो ऊर्जा और रचनात्मक बेचैनी थी, वह अपवादस्वरूप ही दिखाई देती है । हुसेन साहेब की ख्याति एक चित्रकार के रूप में तो है ही, पर उनका कवि रूप भी उल्लेखनीय है । कविता में, खासकर हिंदी कविता में उनकी गहरी दिलचस्पी थी । उन्होंने खुद भी समय समय पर कविताएँ लिखीं । दुबई और लंदन में निर्वासित जीवन जीते हुए जीवन के अंतिम वर्षों में तो उन्होंने नियमित रूप से बहुत सी कविताएँ लिखीं । उनमें से जो कविताएँ सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हो सकीं, उनमें 'रंगीला जोकर ऑफ द ग्रेट इंडियन सर्कस' शीर्षक कविता मुझे खास तौर से संवेदित करती हुई लगती रही है । तीन जुलाई 2008 को लिखी गई यह कविता लिखे जाने के करीब एक महीने बाद हुसेन साहेब ने अपने सम्मान में लंदन में आयोजित हुए रात्र