गैलरीज तथा कला बाजार के संगठित तंत्र से बाहर रहने वाले कलाकार अपनी कला और अपनी प्रदर्शनी से जुड़े कामों को कलात्मक और प्रभावी ढंग से करने की बजाए संयोग, जुगाड़ और किस्मत के भरोसे ही क्यों रहते हैं ?
चंडीगढ़ में युवा कलाकारों के एक ग्रुप ने समूह प्रदर्शनी के अपने आयोजन को 'हाईप' देने के लिए आसान फार्मूला यह सोचा और अपनाया कि शहर के कुछेक वरिष्ठ कलाकारों को उन्होंने अपनी प्रदर्शनी में अपना अपना काम प्रदर्शित करने के लिए 'आमंत्रित' किया । ऐसा करते हुए उन्होंने उम्मीद की कि वरिष्ठ कलाकारों की उपस्थिति के कारण मीडिया और शहर के कला प्रेमियों का ध्यान उनके आयोजन की तरफ आकृष्ट होगा और उन्हें तथा उनके काम को पहचान मिलेगी । लेकिन कुल नतीजा उल्टा निकला; मीडिया और कला प्रेमियों का सारा ध्यान वरिष्ठ कलाकारों पर ही केंद्रित रहा - और प्रदर्शनी के आयोजक युवा कलाकार ठगे से रह गए । अब वह अपने उस फैसले को कोस रहे हैं, जिसके तहत उन्होंने वरिष्ठ कलाकारों को अपनी प्रदर्शनी में अपना काम प्रदर्शित करने का आमंत्रण दिया । सवाल लेकिन यह है कि वह यदि उक्त फैसला न करते तो उन्हें मीडिया व कला प्रेमियों के बीच वैसी ही चर्चा और पहचान मिलती, जैसी कि वह चाहते होंगे ? मेरा जबाव नहीं में है । मैंने देखा/पाया है कि अधिकतर कला प्रदर्शनियाँ यूँ ही संपन्न हो जाती हैं; उनकी शुरुआत तो उत्साह के साथ होती है, लेकिन उनका अंत बहुत ही निराशाजनक तरीके से होता है । जिन प्रदर्शनियों में कोई या कुछेक काम बिक भी जाते हैं, और कलाकार व आयोजक को उत्साहित भी करते हैं, उन्हें भी आगे चल कर 'वह' उपलब्धि निरर्थक ही जान पड़ती है । मैंने जो समझा/पाया है, उसके अनुसार ऐसा इसलिए होता है क्योंकि अधिकतर कलाकार और या आयोजक प्रदर्शनी के आयोजन के 'मूल' उद्देश्य पर गंभीरता से ध्यान ही नहीं देते हैं, उसके लिए आवश्यक तैयारी करना तो बहुत दूर की बात है । चाहते तो सभी हैं, कि एक कलाकार के रूप में उन्हें और उनके काम को पहचान और बाजार मिले, लेकिन मिले कैसे - इस पर विचार करने का काम वह स्थगित ही किए रखते हैं । अधिकतर कलाकार और आयोजक संयोग, जुगाड़ और किस्मत के भरोसे ही रहते हैं ।
एक कलाकार के जीवन को मुख्यतः तीन चरणों में बाँटा/देखा जा सकता है । पहला चरण वह होता है, जब वह काम करता है - इस चरण में सृजनात्मक व अभिव्यक्ति की प्रक्रिया से जूझने के साथ-साथ वह पेपर, पेंसिल, इंक, कलर्स, कैनवस तथा काम से जुड़ी अन्य चीजों की क्वालिटी व कीमत के सवालों पर भी माथापच्ची करता है; और अपना समय, अपनी समझ, अपनी एनर्जी और अपना पैसा खर्च करता है । दूसरा चरण वह होता है, जब वह अपने काम को प्रदर्शित करने के बारे में सोचता है और अपनी सोच को क्रियान्वित करने की तैयारी करता है - इस चरण में वह फ्रेमिंग और गैलरी के साथ-साथ दूसरी जरूरी चीजों की क्वालिटी व कीमत को लेकर उधेड़बुन करता है; और इसमें अपना समय, अपनी समझ, अपनी एनर्जी और अपना पैसा खर्च करता है । तीसरा चरण वह होता है, जब उसे पिछले दोनों चरणों का फल मिलना होता है; ज्यादातर कलाकार यह सोचते/मानते हैं कि यह फल उन्हें अपने आप मिलेगा और इसके लिए उन्हें प्रयास करने की कोई जरूरत नहीं है । सच्चाई जबकि यह है कि यह तीसरा चरण भी पहले के दो चरणों जितना ही महत्त्वपूर्ण है, और इसे भी प्रोफेशनल एप्रोच के साथ पूरा करने की जरूरत होती है । प्रदर्शनी आयोजित करना निरर्थक न हो जाए, और कलाकार को पहचान व बाजार पाने/बनाने में मददगार साबित हो - इसके लिए मीडिया व बाजार के चरित्र को समझने/पहचानने तथा उसमें अपनी संभावित जगह तय करने और उस जगह को पाने के लिए किए जा सकने वाले प्रयासों को सुनिश्चित करने का काम बहुत ही जरूरी है - जिसे संयोग, जुगाड़ व किस्मत के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता ।
बहुत से कलाकार कहते सुने जाते हैं, और कई ऐसे हैं जो कहते तो नहीं हैं लेकिन मानते हैं कि वह तो कलाकार हैं, उन्हें अपने काम के प्रमोशन तथा उसकी मार्केटिंग के पचड़े में क्यों पड़ना चाहिए ? वह यह समझने/मानने से बचते हैं कि प्रदर्शनी का आयोजन करना ही वास्तव में अपनी कला का प्रमोशन व मार्केटिंग करना है - और एक बार जब आप इस पचड़े में पड़ ही गए हैं, तो इसे प्रोफेशनल तरीके से अंजाम देने से बचते/हिचकते क्यों हैं ? जिन कलाकारों को गैलरीज तथा बाजार के संगठित तंत्र का सहारा नहीं है, वह आखिर क्या करें - उन्हें तो अपनी कला का प्रमोशन व उसकी मार्केटिंग खुद ही करना पड़ेगी । गौर करने की बात यह है कि इसकी शुरुआत बहुत छोटी छोटी चीजों से की जा सकती है - जरूरत सिर्फ उसे पहचानने/समझने की है । जैसे प्रदर्शनी के निमंत्रण पत्र को ही लें; अधिकतर निमंत्रण पत्रों में कलात्मकता का नितांत अभाव होता है, और कई कई तो तेरहवीं के कार्ड जैसे लगते/दिखते हैं । प्रदर्शनी के उद्घाटन/आयोजन से संबंधित पोस्टर्स तो शायद ही कोई बनाता/बनवाता हो । यानि प्रदर्शनी आयोजित करने वालों की तरफ से ऐसा कोई प्रयास ही नहीं होता है, जो प्रदर्शनी के प्रति लोगों को आकर्षित, प्रेरित व उत्साहित करता हो । प्रदर्शनी देखने आने वाले लोगों को ऐसी कोई प्रचार सामग्री नहीं मिलती है, जो कलाकार से उन्हें परिचित करवाने के काम आ सके । अधिकतर कैटलॉग ऐसे होते हैं, जो कोई भी उद्देश्य पूरा नहीं करते हैं; कोई कोई अच्छे से कैटलॉग तैयार करवाते भी हैं, तो वह कॉफी टैबल बुक के लघु संस्करण जैसे होते हैं - जो शायद ही किसी काम के साबित होते हों । प्रदर्शनी आयोजित करने वाले कलाकार प्रायः इस बात का ध्यान रखना भी जरूरी नहीं समझते कि कलाजगत और कला बाजार में अपनी जगह बनाने के लिए उन्हें किन लोगों को प्रदर्शनी में आमंत्रित करना चाहिए । कोई कोई बड़े कलाकारों व गैलरीज से जुड़े लोगों को आमंत्रित करने की औपचारिकता तो निभा देते हैं, और फिर शिकायत करते हैं कि उनके निमंत्रण के बावजूद कोई उनकी प्रदर्शनी देखने आया नहीं ।
प्रदर्शनी आयोजित करने वाले कलाकारों को मीडिया से बड़ी भारी शिकायत होती है । लेकिन मीडिया के चरित्र और उसके काम करने के तरीकों को जानने/समझने की कोई कोशिश नहीं की जाती है ।ऐसे समय में जबकी मीडिया का कलेवर और चरित्र तेजी से बदल रहा है और तकनीकी विकास के चलते मीडिया हरेक की मुट्ठी में है, मीडिया के प्रचलित रूप पर निर्भर रहने तथा शिकायतें करते रहने का कोई उचित कारण नहीं दिखता है । सोशल मीडिया के प्रचार-प्रसार के चलते मीडिया-प्रमोशन तो जैसे बाएँ हाथ का खेल बन गया है । लेकिन कलाकारों का होशियारी के साथ उसका इस्तेमाल करने पर प्रायः ध्यान ही नहीं है । सोशल मीडिया में जिन कलाकारों की भारी सक्रियता है भी, वह भी एक कलाकार के रूप में अपनी और अपनी कला की ठोस पहचान बनाने को लेकर प्रभावी कदम नहीं उठा पाते हैं - और यह विश्वास करते हैं कि अपनी और अपने काम की तस्वीरें लगा लगा कर ही वह कला जगत में अपनी पहचान बना लेंगे । कलाकार कलाजगत में अपनी पहचान पाने/बनाने की इच्छा तो बहुत रखते हैं, लेकिन इसके लिए वह संवाद स्थापित करने और अपने आप को परिचित करवाने की कोई कोशिश नहीं करते हैं - जिसका नतीजा यह होता है कि जो कलाकार लोगों के बीच खूब पहचाने भी जाते हैं, उन्हें 'जानता' कोई नहीं है । कलाकार अपनी कला और अपनी प्रदर्शनी से जुड़े कामों को जिस गैर-कलात्मक और अप्रभावी ढंग से करते हैं, वह हैरान करने वाली बात है और इसीलिए उन्हें और उनके काम को उचित पहचान नहीं मिल पाती है । आलेख के शुरू में चंडीगढ़ में आयोजित जिस समूह प्रदर्शनी का जिक्र आया है, उसमें सब कुछ अच्छा अच्छा था; युवा कलाकारों का काम आकर्षित और प्रभावित करने वाला था, उद्घाटन समारोह बहुत अच्छे से हुआ - इसके साथ कलाकारों और उनके काम के प्रमोशन को लेकर आयोजकों की कोई योजना और तैयारी भी यदि होती तो - वरिष्ठ कलाकार उसमें आमंत्रित होते या नहीं होते - प्रदर्शनी का उद्देश्य भी फलीभूत हो पाता ।
In this article, the writer seems to be more worried about many aspects of this complicated issue of identity and showing of works in the exhibition; but the main issue of art is not being touched properly. Art - Artist - Receptor are three important point to this triangle of Creativity. Each one is equally important.
ReplyDeleteIn this Jet Age, we are running to achieve all in shortest time.
S.K.Sahni