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Showing posts from 2018

सुबोध गुप्ता पर लगे यौन छेड़छाड़ के आरोपों पर विदेशी गैलरीज द्वारा दिखाए रवैये ने सुबोध गुप्ता के सामने बड़ा संकट खड़ा कर दिया है और कला बाजार में अपनी हैसियत को बचा पाना उनके लिए बड़ी चुनौती बना है

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मीटू हैशटैग अभियान के चलते यौन उत्पीड़न के आरोपों के घेरे में आने वाले हाई प्रोफाइल ऑर्टिस्ट सुबोध गुप्ता के बाजार को बचाने की कोशिशें तेज हो गई हैं, और इस मामले में पाब्लो पिकासो से जुड़े किस्सों का हवाला देकर मामले को 'हल्का' करने का प्रयास किया जा रहा है ।  एक वरिष्ठ महिला कला समीक्षक व क्यूरेटर ने बेहद 'चालाकी' से लिखे लेख में विस्तार से बताया है कि पिकासो अपनी प्रेमिकाओं के साथ बहुत ही खराब व्यवहार किया करते थे और महिलाओं के प्रति बहुत ही नकारात्मक विचार रखते थे, लेकिन फिर भी उनकी कृतियों के दामों पर कभी भी संकट नहीं आया और वह हमेशा ही लगातार बढ़ते गए हैं । पिकासो के व्यवहार और उनकी बातों के जरिये अप्रत्यक्ष रूप से सुबोध गुप्ता का बचाव करने की कोशिशों के बावजूद वह कला बाजार में सुबोध गुप्ता की हैसियत के बने रहने को लेकर हालाँकि आश्वस्त नहीं हैं, और उन्होंने मामले को 'समय' पर छोड़ दिया है ।   दरअसल वह भी समझ रही हैं कि पिकासो और सुबोध गुप्ता का मामला एक जैसा नहीं है : पिकासो की बदतमीजियों के उदाहरण उन महिलाओं के साथ के हैं, जो उनके साथ संबंधों में रहीं; जबकि

आईफैक्स की 91वीं वार्षिक कला प्रदर्शनी में चयनित होने व पुरस्कृत होने में बड़े कला केंद्रों के मुकाबले छोटे शहरों के कलाकारों के काम को मिली तरजीह बदलते कला वातावरण का ही नतीजा है

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आईफैक्स (ऑल इंडिया फाईन ऑर्ट्स एंड क्राफ्ट्स सोसायटी) की 91 वीं वार्षिक कला प्रदर्शनी समकालीन कला परिदृश्य में देश के दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, बेंगलुरु, वडोदरा जैसे बड़े कला केंद्रों के मुकाबले छोटे और कला के क्षेत्र में अनजान से शहरों के कलाकारों की बढ़ती सक्रियता तथा उपलब्धियों का एक दिलचस्प नजारा प्रस्तुत करती है ।  छोटे व कला के क्षेत्र में अनजान से शहरों के कलाकारों ने न सिर्फ वार्षिक कला प्रदर्शनी के लिए चयनित होने के मामले में बड़े कला केंद्रों के कलाकारों को कड़ी टक्कर दी है, बल्कि पुरस्कृत होने के मामले में भी बेहतर 'प्रदर्शन' किया है । आमतौर पर माना/समझा जाता है - और ठीक ही माना/समझा जाता है - कि बड़े कला केंद्रों में चूँकि सुविधाओं और सक्रियताओं का जोर रहता है, इसलिए वहाँ के कलाकार ज्यादा चेतनासंपन्न होते हैं और उनकी अभिव्यक्ति कम से कम सधी हुई तो होती ही है; जबकि सुविधाओं व सक्रियताओं के अभाव में छोटे कला केंद्रों में उदासीन व निराशाजनक स्थिति होने के कारण वहाँ के कलाकारों के लिए अपनी पहचान बना पाना और मुख्य धारा में शामिल हो पाना काफी मुश्किल होता है ।  यही क

'सेरेण्डिपिटी ऑर्ट फेस्टिबल 2018' का क्यूरेटर बनने और फिर यौन उत्पीड़न के आरोपों के घेरे में आने के कारण हाई प्रोफाइल ऑर्टिस्ट सुबोध गुप्ता खासी फजीहत के शिकार हो रहे हैं

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कल से गोवा में शुरू हो रहे 'सेरेण्डिपिटी ऑर्ट फेस्टिबल 2018' के क्यूरेशन की जिम्मेदारी संभालने के चलते हाई प्रोफाइल ऑर्टिस्ट सुबोध गुप्ता जैसे खासी मुसीबत में फँस गए हैं । पहले तो उन पर क्यूरेटर की जिम्मेदारी संभालने के कारण दोहरे मापदंड लगाने का आरोप लगा, और अब वह मीटू हैशटैग के तहत यौन छेड़छाड़ के आरोपों के घेरे में आ गए हैं । उल्लेखनीय है कि सुबोध गुप्ता कलाकारों के क्यूरेटर की भूमिका निभाने का विरोध करते रहे हैं । दरअसल बोस कृष्णामचारी, जितिश कल्लट, सुदर्शन शेट्टी, अनिता दुबे जैसे प्रमुख कलाकारों के क्यूरेटर की भी जिम्मेदारी निभाने के कारण कला जगत में बहस चली कि एक कलाकार को क्या क्यूरेटर की भूमिका निभाना चाहिए ? अधिकतर कलाकारों का मानना/कहना रहा कि किसी भी कला आयोजन के क्यूरेशन के लिए जिस तरह की विविधतापूर्ण खूबियों की जरूरत होती है, वह कलाकारों में प्रायः नहीं होती है; और एक कलाकार के लिए क्यूरेशन जैसे काम के साथ न्याय करने को लेकर संदेह रहता है - इसलिए कलाकारों को क्यूरेशन के पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए । सुबोध गुप्ता भी कलाकारों के क्यूरेशन से दूर रहने के पक्ष में वि

अनुपम रॉय को 'इमर्जिंग ऑर्टिस्ट अवॉर्ड'

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ऐसे समय में जबकि चित्रकार,  खासकर युवा चित्रकार राजनीतिक प्रसंगों/मुद्दों को  अपने चित्रों का विषय बनाने से बचते हैं,  33 वर्षीय अनुपम रॉय का वर्ष 2018 के लिए  'इमर्जिंग ऑर्टिस्ट अवॉर्ड' के लिए  चुना जाना उल्लेखनीय और समयानुकूल लगता है ।   अनुपम रॉय को अपने चित्रों में 'सिस्टम की हिंसा और अन्याय' को  प्रमुखता से अभिव्यक्त करने के लिए इस अवॉर्ड के लिए चुना गया है ।  स्विट्जरलैंड की स्विस ऑर्ट्स काउंसिल के सहयोग से प्रत्येक वर्ष  फाउंडेशन फॉर इंडियन कंटेम्पररी ऑर्ट द्वारा  भारत में दृश्य  कला में अध्ययनरत व अभ्यासरत  युवा कलाकारों को कला के प्रति उनके समर्पण व उनकी प्रतिभा को  प्रोत्साहित करने के लिए यह अवॉर्ड दिया जाता है ।  चित्रकार मनीषा पारेख, चित्रकार व शिक्षाशास्त्री राखी पेसवानी,  कला इतिहासकार व क्यूरेटर लतिका गुप्ता तथा  स्विस ऑर्टिस्ट शिराना शहबाजी की चार सदस्यीय ज्यूरी ने  अवॉर्ड के लिए आए करीब 300 आवेदनों/प्रस्तावों में  अनुपम रॉय को अवॉर्ड के लिए चुना ।   अधिकृत रूप से बताया गया है कि  ज्यूरी सदस्य अनुपम के चित्रों में

कोच्ची-म्युज़िरिस बिएनाले के चौथे संस्करण के लिए अनिता दुबे को क्युरेटर बना कर एक महिला कलाकार पर भरोसा करके कोच्ची-म्युज़िरिस बिएनाले के आयोजकों द्वारा लूटी गई वाहवाही पर हैशटैग मीटू अभियान ने लेकिन पूरी तरह से पानी फेर दिया है

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कोच्ची-म्युज़िरिस बिएनाले की तैयारियों को जैसे ग्रहण लग गया है । केरल में आई विनाशकारी बाढ़ से हुए नुकसान को तो बिएनाले की तैयारियों ने किसी तरह झेल लिया था, लेकिन बिएनाले से जुड़े रियाज कोमु, राहुल भट्टाचार्या तथा वॉल्सन कूरमा कोल्लेरी जैसे बड़े नामों के मीटू हैशटैग में फँसने के चलते कोच्ची-म्युज़िरिस बिएनाले खासी मुसीबत में फँस गया है, और इससे उबरने की तमाम कोशिशों के बावजूद बिएनाले की तैयारियाँ सुस्त पड़ गई हैं ।  तैयारियाँ यूँ तो चल रही हैं, लेकिन बिएनाले से जुड़े लोगों का ही कहना है कि उनमें पहले जैसा जोश व उत्साह नहीं है । बिएनाले के लिए वॉलिंटियर्स के चुनाव का काम तो लगभग ठप ही बताया/सुना जा रहा है, क्योंकि वॉलिंटियरिंग के लिए युवा कलाकार आने रुक गए हैं । बिएनाले से जुड़े लोगों का कहना/बताना है कि बिएनाले से जुड़े बड़े और प्रभावी लोगों के यौन उत्पीड़न के आरोपों के घेरे में आने के बाद बिएनाले के बाकी पदाधिकारी मनोवैज्ञानिक व नैतिक दबाव में आ गए हैं, जिसके चलते बिएनाले की तैयारियों पर खासा प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है ।  उल्लेखनीय है कि मीटू हैशटैग की चपेट में आए रियाज कोमु कोच्ची-म्युज़िरिस बि

नज़र ऑर्ट गैलरी बंद हुई !

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एक आयोजन के सिलसिले में बडोदरा की प्रमुख ऑर्ट गैलरी  नज़र  से संपर्क करने की कोशिश की तो पता चला कि  अभी हाल ही में उसे बंद कर दिया गया है;   बताया गया कि हम यदि कुछ दिन पहले संपर्क करते तो गैलरी कुछ दिन और खुली रह जाती ।  यह जानकार गहरा धक्का लगा ।  यूँ तो कई ऑर्ट गैलरीज को बंद होते हुए देखा है,  लेकिन बडोदरा की नज़र ऑर्ट गैलरी के बंद होने की सूचना ने बड़ा नुकसान होने जैसा अहसास कराया ।  बडोदरा में हालाँकि बहुत से ऑर्ट सेंटर हैं,  जहाँ स्थानीय कला गतिविधियों के साथ-साथ देश-विदेश की समकालीन  कला  और उसके रुझानों से परिचित होने का मौका मिल जाता है -  लेकिन नज़र ऑर्ट गैलरी आसान पहुँच और व्यापक सक्रियता के कारण  बाहर से बडोदरा जाने/पहुँचने वाले  मेरे जैसे लोगों के लिए भी आकर्षण का केंद्र थी ।   देश के आधुनिक मूर्तिशिल्पियों में एक अलग स्थान रखने वाले  नागजी पटेल ने इसकी स्थापना की थी ।  बडोदरा के ही एक गाँव में जन्मे और बडोदरा के  एमएस विश्वविद्यालय से मूर्तिशिल्प की डिग्री प्राप्त करने तथा  देश-विदेश में जगह-जगह काम करते रहने के बावजूद बराबर  बडोदरा लौ

ऑर्ट गैलरीज के पुराने ढर्रे पर ही कायम रहने के कारण उनके द्वारा आयोजित 'देहली कंटेम्पररी ऑर्ट वीक' एक आम समूह प्रदर्शनी जैसा आयोजन बन कर ही रह गया, और अपने उद्देश्य को प्राप्त कर पाने में नितांत असफल रहा है

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'देहली कंटेम्पररी ऑर्ट वीक' शीर्षक से 27 से 30 अगस्त के बीच इंडिया हैबिटेट सेंटर की विजुअल ऑर्ट्स गैलरी में हुआ आयोजन आयोजक ऑर्ट गैलरीज के लिए ढाक के तीन पात ही साबित हुआ है । इस आयोजन को दिल्ली की सात बड़ी ऑर्ट गैलरीज की तरफ से ऑर्ट के नए खरीदारों को खोजने और उन्हें ऑर्ट का ग्राहक बनाने की कोशिश और तैयारी के रूप में देखा/पहचाना गया; लेकिन खुद आयोजक गैलरीज के लोगों का ही मानना और कहना है कि अपना लक्ष्य पाने में इस महत्त्वाकांक्षी आयोजन से कोई खास उत्साहजनक नतीजे नहीं मिले हैं । ऑर्ट वीक का उद्देश्य लोगों को ऑर्ट के प्रति शिक्षित और जागरूक बनाने/करने तथा युवा कलाकारों व उनके काम को प्रमोट करना बताया गया था । लेकिन इन मामलों में भी कुछ होता हुआ दिखा नहीं । कुछ होता हुआ दिखना तो दूर की बात, चार दिनों के इस आयोजन में कुछ किया जाता हुआ भी नहीं नजर आया । लगता है कि आयोजक गैलरीज के कर्ता-धर्ताओं ने यह मान लिया था कि आयोजन के नाम पर कुछ युवा कलाकारों के काम प्रदर्शित कर देने भर से 'लोग' ऑर्ट के प्रति शिक्षित व जागरूक भी हो जायेंगे, और युवा कलाकार और

अंतरा श्रीवास्तव की सृजन यात्रा में पौराणिक कथाओं से जुड़े प्रसंगों व व्यक्तित्वों के प्रमुखता पाने को लेकर, उनसे हुई बातचीत

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अंतरा श्रीवास्तव ने पिछले कुछ समय में आध्यात्मिक भावभूमि के साथ पौराणिक पात्रों को जिस तरह से चित्रित किया है, वह विस्मय से भर देता है । इन चित्रकृतियों में रूपकालंकारिक छवियों को बहुत ही सूक्ष्मता के साथ विषयानुरूप चित्रित किया गया है । अंतरा की कला मनोभाव व संवेदना के स्तर पर जीवन से सीधा साक्षात्कार करती है, जिसमें गहरा अनुशासन रहा है और जिसमें अन्वेषण की निरंतर ललक व तलाश रही है । इसी ललक व तलाश के चलते एक स्वाभाविक प्रक्रिया से गुजरते हुए उनकी कला चेतना का आध्यात्मिकीकरण हुआ है । उनके चित्र हालाँकि निरे आध्यात्मिक नहीं हैं, बल्कि कलात्मक दृष्टि से भी उल्लेखनीय हैं । सच तो यह है कि अपनी कलात्मकता के कारण ये कलाकृतियाँ अंतरा श्रीवास्तव की श्रेष्ठ रचनात्मकता की साक्षी बनती हैं । उनकी सृजन-यात्रा में आए इस बड़े परिवर्तन के कारणों तथा उसे प्रेरित करने वाले प्रसंगों व तथ्यों को जानने समझने के लिए उनसे कुछ सवाल किए गए, जिनके उन्होंने गहरी दिलचस्पी के साथ जबाव दिए । सवाल-जबाव यहाँ प्रस्तुत हैं :          अंतरा जी, पौराणिक कथाओं से जुड़े प्रसंग और व्यक्तित्व आपकी सृजनात्

इस वर्ष का भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार अदनान कफ़ील दरवेश का हुआ

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अदनान कफ़ील दरवेश को इस वर्ष के भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार के लिए चुना गया है । इस चुनाव का कारण उनकी कविता 'क़िबला' बनी, जो 'वागर्थ' के सितंबर 2017 के अंक में प्रकाशित हुई थी । यह निर्णय इस वर्ष के निर्णायक प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल ने लिया है । निर्णय देते हुए पुरुषोत्तम अग्रवाल ने अपनी टिप्पणी में कहा कि 'अदनान की यह कविता माँ की दिनचर्या के आत्मीय, सहज चित्र के जरिेए 'माँ और उसके जैसी तमाम औरतों' के जीवन-वास्तव को रेखांकित करती है । अपने रोजमर्रा के वास्तविक जीवन अनुभव के आधार पर गढ़े गये इस शब्द-चित्र में अदनान आस्था और उसके तंत्र यानि संगठित धर्म के बीच के संबंध की विडंबना को रेखांकित करते हैं । ‘क़िबला’ इसलामी आस्था में प्रार्थना की दिशा का संकेतक होता है । लेकिन आस्था के तंत्र में ख़ुदा का घर सिर्फ मर्दों की इबादतगाह में बदल जाता है, माँ और उसके जैसी तमाम औरतों का क़िबला मक्के में नहीं रसोईघर में सीमित हो कर रह जाता है । स्त्री-सशक्तिकरण की वास्तविकता को नकारे बिना, सच यही है कि स्त्री के श्रम और सभ्यता-निर्माण में उसके योगदान

सैयद हैदर रज़ा की पेंटिंग्स पर 'फेक' होने के आरोपों की लड़ाई में रज़ा फाउंडेशन के एक पक्ष बन जाने के कारण लग रहा है कि यह लड़ाई अभी लंबी चलेगी और अलग अलग रूपों में सामने आती रहेगी

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सैयद हैदर रज़ा की पेंटिग्स के 'ख़जाने' में नकली माल होने के आरोप/प्रत्यारोप लगने के पीछे उनकी पेंटिंग्स के बाज़ार पर कब्ज़ा जमाने की 'लड़ाई' को ही देखा/पहचाना जा रहा है । बड़े नामचीन चित्रकारों के काम के 'फेक' होने के आरोप अक्सर लगते रहते हैं, और यह आरोप कभी सच होते हैं तो कभी गैलरीज की व्यापारिक प्रतिस्पर्धा के नतीजे से भी उपजते हैं । सैयद हैदर रज़ा के काम को लेकर अभी हाल ही में जो विवाद पैदा हुए हैं, उन्हें भी रज़ा के काम के बाजार पर एकाधिकार जमाने की लड़ाई के रूप में देखा जा रहा है । रज़ा की पेंटिंग्स के 'फेक' होने के मामले में जिस तरह से रज़ा फाउंडेशन एक पक्ष बन गया है, उसे देखते हुए लगता है कि यह लड़ाई अभी लंबी चलेगी । उल्लेखनीय है कि रज़ा की पेंटिंग्स की इन दिनों मुंबई और दिल्ली में प्रदर्शनी चल रही हैं । मुंबई में पीरामल म्यूजियम ऑफ ऑर्ट ने अपने संग्रहालय में रज़ा की पेंटिंग्स प्रदर्शित की हैं, जबकि दिल्ली में रज़ा फाउंडेशन ने श्रीधारणी कला दीर्घा में उनके चित्रों को प्रदर्शित किया है । खास बात यह है कि मुंबई में उनके बिलकुल आरंभिक चित्रों स

इटली के पर्लेमो से लेकर दिल्ली व मुंबई में हाल के दिनों में कला को लेकर जो हुआ है, वह अपनी संरचना और व्यवस्था में कोई बहुत नया या अनोखा न होते हुए भी उम्मीद जगाने तथा रास्ता दिखाने वाला जरूर है

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पिछले पाँच-छह दशकों में कला की दुनिया में परंपरागत माध्यमों से इतर नए माध्यमों का जो विस्तार हुआ है, और उसमें तकनीकी विकास ने जो योगदान दिया है - उसने कला के विश्लेषण व अवलोकन के प्रतिमानों को तो अस्थिर किया ही है, कला के देखने/समझने के पूरे फ्रेम को भी बदल दिया है । चाक्षुक कला में नित नए होते प्रयोगों ने दर्शकों और कला-प्रेक्षकों को लगातार चमत्कृत व अचम्भित किया है, जिसका नकारात्मक प्रभाव भी पड़ा है और वह यह कि कला को जरूरत के रूप में देखने की बजाये प्रदर्शन और फैशन की चीज मान लिया गया; और कला को सनसनी फैलाने का जरिया मान लेने की प्रवृत्ति बढ़ी । इस वजह से कला की समाज से दूरी बनती व बढ़ती गई । इस कारण से उन कलाकारों के सामने दिक्कत आई जो दर्शकों व कला-प्रेक्षकों से संवाद बनाना/करना चाहते हैं; और सच यह भी है कि अलग अलग कारणों से हर कलाकार ही संवाद बनाना चाहता है । चूँकि हर समस्या, अपने हल के प्रयासों की प्रेरणास्रोत भी होती है - इसलिए समस्याएँ पैदा हुईं, तो उनके हल के प्रयास भी तेज हुए और इन प्रयासों को इंस्टालेशन व पब्लिक ऑर्ट जैसे कला-रूपों ने भी बढ़ावा दिया । हाल ही के दिनों म

शुरू में जब स्वामीनाथन के चित्रों को यह कहते हुए समूह प्रदर्शनी में शामिल करने से इंकार कर दिया गया था कि 'स्वामीनाथन चित्रकार नहीं है, वह तो पत्रकार है'

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समकालीन भारतीय कला में जगदीश स्वामीनाथन का आज बड़ा नाम है, लेकिन उनकी कलायात्रा के शुरुआती दिनों का वह प्रसंग खासा दिलचस्प है - जब दिल्ली में आयोजित हो रही एक समूह प्रदर्शनी में उनका काम शामिल करने से इंकार कर दिया गया था, और इंकार करने का फैसला भी जिन लोगों ने किया था, वह उनके अच्छे परिचित और मित्र थे । विनोद भारद्वाज ने परमजीत सिंह पर लिखी अपनी किताब में सूरज घई के हवाले से इस घटना का विस्तृत विवरण दिया है । इस विवरण के अनुसार, 'सेवेन पेंटर्स' नाम से बने एक ग्रुप ने 1961 में दिल्ली में एक नए कला-आंदोलन की शुरुआत की, जिसे 'अननोन' नाम दिया गया था । उक्त ग्रुप में परमजीत सिंह, आरके धवन, वेद नायर, विद्यासागर कौशिक, अमल पाल, सूरज घई और आरके भटनागर सदस्य थे । इस ग्रुप ने दिसंबर 1958 में आईफैक्स में समूह प्रदर्शनी की थी, जिसे खासी प्रशंसा मिली थी । इसके बाद इस ग्रुप में दो और लोग जुड़े - एरिक बोवेन और नरेंद्र दीक्षित । रफी मार्ग पर स्थित आईईएनएस बिल्डिंग में इन नौ कलाकारों के काम की प्रदर्शनी आयोजित हुई, जिसका उद्घाटन तत्कालीन केंद्रीय शिक्षा व संस्कृति मंत्र