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Showing posts from September, 2016

अर्थपूर्ण सृजनात्मकता के जरिये मधुबनी चित्रकला की अनगढ़ता के सौंदर्य और सरलता के वैशिष्ट्य को श्वेता झा ने अपनी कला में जिस प्रभावी तरीके से साधा और अभिव्यक्त किया है, 'दिव्य शक्ति' पेंटिंग उसका एक अनूठा उदाहरण है

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मधुबनी कला की प्रखर चितेरी श्वेता झा की 'दिव्य शक्ति' शीर्षक पेंटिंग की तस्वीर देखते हुए मुझे लियोनार्दो दा विंची की एक प्रसिद्ध पंक्ति सहसा याद हो आई कि 'हमें जो दिखायी देता है, उस पर यक़ीन नहीं करना चाहिए; अपितु, जो दिखायी देता है उसे समझना चाहिए ।' श्वेता ने सिंगापुर में रहते हुए सिंगापुर की प्रगति को देखा, लेकिन जैसे ही उन्होंने इस प्रगति को समझने की कोशिश की - वैसे ही इस प्रगति के साथ छिपे 'अँधेरे' को भी उन्होंने पहचान लिया । हर देश और समाज ने प्रगति की कीमत चुकाई है; उसी तर्ज पर तमाम प्रगति के बावजूद सिंगापुर जिस तरह आत्महीन, स्मृतिहीन और व्यक्तित्वहीन इकाइयों का समूह बनता जा रहा है - उसी पर एक सचेत और संवेदनशील प्रतिक्रिया के रूप में श्वेता ने 'दिव्य शक्ति' को रचा है । कह सकते हैं कि 'दिव्य शक्ति' के रूप में श्वेता ने दरअसल अपने परिवेश को ही रचा है । किसी भी कलाकार का परिवेश बाहरी दुनिया का यथार्थ भर नहीं होता है, जिसमें वह जीता है; उसका परिवेश तभी बन पाता है जब वह अपना बाहरीपन छोड़ कर उसके भीतर जीने लगता  है । पिछले कुछेक व

मक़बूल फ़िदा हुसैन के अनुसार सृजन की दुनिया ऐसी है, जिसमें कुछ करने के मौके हमेशा मौजूद होते हैं

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आधुनिक भारतीय चित्रकला में निर्णायक परिवर्तन लाने वाले चुनिंदा चित्रकारों में एक अलग और विशेष पहचान रखने वाले मक़बूल फ़िदा हुसैन का आज 102वाँ जन्मदिन है । इस मौके पर उनको याद करना इसलिए भी प्रासंगिक और जरूरी लगता है, क्योंकि वह अपने समय की सच्ची आवाज़ थे । यह बिडंबना ही है कि भारतीयता के आग्रही और जीते जी एक किवदंती बन चुके इस महान कलाकार को अपने जीवन के अंतिम कुछेक वर्ष बेवतनी में गुजारने पड़े । निस्संदेह, कला जगत में आधुनिकता को भारतीय जमीन पर खड़ा करने में हुसैन का अप्रतिम योगदान है । समकालीन भारतीय कला जगत में हुसैन अकेले कलाकार नज़र आते हैं जिन्होंने ख़ुद को, अपनी संस्कृति के बीचोंबीच बहुत गहरे महसूस किया है, जिसका प्रतिफलन उनके चित्रों के रूप में हमारे सामने है । हुसैन, भारत की आजादी की लड़ाई के दौर में पली-बढ़ी तथा स्वतंत्रता के तुरंत बाद के दौर में सृजनात्मक रूप से सक्रिय हुई उस पीढ़ी के सबसे अग्रणी नामों में से हैं, जिसने अपने को पहचानते हुए, अपने पाँवों पर खड़े होते हुए एक राष्ट्र के रूप में भारत की संस्कृति को गढ़ा/रचा । उन्होंने भारतीय संस्कृति के वैविध्य को आत्मसात

विवान सुंदरम को समकालीन भारतीय कला की हत्या का जिम्मेदार ठहरा कर जॉनी एमएल समकालीन भारतीय कला के दूसरे प्रमुख कलाकारों को भी अपमानित करने का काम नहीं कर रहे हैं क्या ?

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कला समीक्षक जॉनी एमएल के लिखे हुए को मैं उत्सुकता और दिलचस्पी से पढ़ता रहा हूँ, और उनके लिखे हुए के प्रति मेरे मन में बहुत भरोसा और सम्मान रहा है । किंतु उन्होंने अपने एक नए लेख में जिस तरह से विवान सुंदरम को समकालीन भारतीय कला की हत्या के लिए जिम्मेदार ठहराया है, उसे देख/पढ़ कर मैं हैरान और क्षुब्ध हूँ । विवान समकालीन भारतीय कला में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं और अपनी कला के जरिए उन्होंने समकालीन राजनीतिक समय की जटिलताओं से जिस तरह से मुठभेड़ की है - उसके कारण उनकी कला यात्रा बहुत ही खास महत्त्व की हो जाती है । विवान आलोचना से परे नहीं हैं; उनके काम की और उनकी सक्रियताओं की आलोचना हो सकती है, खूब हुई भी है - लेकिन उन्हें भारतीय कला का हत्यारा कहना, मैं समझता हूँ कि उनके साथ ज्यादती तो है ही, बेबजह की सनसनी फैलाना भी है, जिसका तथ्यों/तर्कों से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं है । जॉनी एमएल ने विवान सुंदरम को निशाना बनाते हुए तर्क भी बड़े बचकाने से दिए हैं ! उनके जैसे व्यक्ति से इस तरह की बचकानी बातों की उम्मीद नहीं की जा सकती है । अब दिल्ली और मुंबई के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड