निर्मल वर्मा की कुछ बातें



'एक कलाकृति का जादू और मर्म और रहस्य 
उसकी नितांत निजी, विशिष्ट बुनावट में रहता है ।'  

'कलाकृति की सार्थकता इसी में है कि 
वह हमारी अंतर्दृष्टि को अधिक व्यापक और संवेदनशील बना सके । 
उस व्यापक दृष्टि के सहारे हम अपना जीवन-दर्शन 
खुद खोज सकें ।'   

'पेंटिंग में रंग अपने में कोई महत्त्व नहीं रखता, 
जब तक वह अपनी उचित जगह, 
सही 'स्पेस' से नहीं बोलता ।'    

'आज यदि रचनाएँ हमें संपूर्णता या कृतज्ञता का 
बोध नहीं करा पातीं 
तो इसलिए कि कला ने अपनी स्वतंत्रता की 
गरिमामय प्रतिज्ञा भूलकर 
अपने को समय के फार्मूलों, मन्त्रों और फैशनों में बाँध लिया है ।' 
 
'जिसे आप 'क्रियेटिविटी' कहते हैं 
वह इस बात में निहित होती है कि जो चीज दिखाई देती है 
उसका सत्व उस चीज के भीतर छुपा है 
और हमारी 'क्रियेटिविटी' इससे उद्धेलित होती है कि 
इस छिपे हुए सत्य को बाहर के यथार्थ में रूपांतरित करे । 
इसीलिए एक कवि शब्दों को लेता है और उन्हें कविता में रूपांतरित कर देता है । 
एक वास्तुकार एक पत्थर को लेता है 
क्योंकि उसे पता है कि इसके अंदर एक छवि छिपी हुई है, 
जो उस पत्थर का सत्य है और वह उसे तराश कर 
उस छवि को उसके भीतर से निकाल लेता है । 
सारे जीव जगत में मनुष्य ही एक ऐसा व्यक्ति है 
जो इस बात को जानता है कि जो दिखाई देता है 
उससे कहीं महत्वपूर्ण चीज वह है जो उसके भीतर अंतर्निहित है । 
यही वे लोग भी करते हैं जो कलाकार नहीं होते । 
जो आदमी बागबानी करता है वह लिखता तो नहीं, 
वह चित्रकार या शिल्पकार तो नहीं है लेकिन उसे मालूम है कि 
मिट्टी के भीतर एक ऐसी सम्पदा है जिसका हम उपयोग कर सकते हैं : 
फूल और पत्तियों को उगाने के लिए । 
यह एक जादू है । 
बढ़ई को मालूम है कि लकड़ी है, लेकिन लकड़ी के भीतर जो मेज है 
वह उसकी कला है, उसका शिल्प है । 
इसीलिए मुझे हमेशा यह महसूस होता है कि 
सृजनात्मकता के बिना कला असंभव नहीं, 
लेकिन हर व्यक्ति बिना कलाकार हुए भी सृजनात्मक है, हो सकता है । 
और यह एक बड़ी चीज है । 
यह हैरानी की बात है, यह विस्मय की बात है । 
कभी आपने सुराही बनाने वाले को देखा है, वह चाक चलाता है 
और उसके भीतर से मिट्टी के बर्तन एक के बाद एक बनते हुए आते हैं । 
वह तो कोई बड़ा कलाकार नहीं है; 
लेकिन उसे मालूम है कि मिट्टी का क्या रहस्य है, 
उसे किस तरह से ढाला जाता है । 
इसलिए हमारी परंपरा में, 
भारतीय परंपरा में शिल्प और कला के बीच कोई ज्यादा भेद नहीं है । 
कुमारस्वामी कहा करते थे कि 
एक शिल्पकार एक तरह का कलाकार ही होता है 
और एक कलाकार भीतर का शिल्पी; 
शिल्पी का मतलब है उसकी रूपांतरित करने की क्षमता । 
जो है वह न हो तो उसकी कलाकृति ।'

'साहित्य में भी आइन्स्टीन होते हैं । 
जिस तरह आइन्स्टीन ने न्यूटन की कॉसमॉस थ्योरी के बारे में, 
जो उसकी वैज्ञानिक धारणा थी, उसे उलटकर रख दिया था; 
गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत में, 
एक समूचे ब्रह्माण्ड के प्रति हमारी दृष्टि को बदल दिया था । 
गैलीलियो ने जब यह कहा कि सूरज नहीं धरती, सूरज के इर्द-गिर्द घूमती है 
तो अचानक ही धरती, सूर्य, नक्षत्रों, ग्रहों के बारे में 
हमारा विचार, हमारी दृष्टि बिलकुल बदल गई । 
वैसे ही कुछ लेखक भी होते हैं 
जो अपनी रचनाओं के माध्यम से हमारे जीवन को 
देखने की समूची, समग्र दृष्टि में एक आमूल परिवर्तन ले आते हैं । 
वाल्मिकी, व्यास से लेकर शेक्सपीयर, रवीन्द्रनाथ टैगोर, दॉस्तोएवस्की, 
मार्सेल प्रूस्त, वर्जीनिया वुल्फ तथा विभूतिभूषण बन्ध्योपाध्याय सहित 
ऐसे लोग हुए हैं, जिनको पढ़ने के बाद आपको लगता है कि 
जीवन का रहस्य जिन परतों के नीचे छिपा हुआ था, 
जो अभी तक मुझसे छिपा हुआ था, 
जो अब तक मेरी आँखों के सामने नहीं आया था, 
वह अचानक जैसे एक पर्दा हटा देने जैसी चामत्कारिक घटना लगती है । 
इस दृष्टि से, हम उन पुस्तकों को पढ़ने के बाद 
जीवन को उसी नजर से नहीं देख सकते 
जैसे उनको पढ़ने के पहले देखते आये थे । 
हमारा देखने का नजरिया थोड़ा अधिक विस्तृत हो जाता है ।'  

'सुबह से शाम तक हम जो जीवन जीते हैं, 
उसमें तमाम उलझनें, गाँठें और अंतर्विरोध होते हैं । 
साहित्यकार जब लिखता है, तो यह नहीं सोचता कि 
वह अपने सुख या समाज के लिए लिख रहा है 
अपितु वह अपने भीतर की दुनिया को एक स्पष्टता देने का प्रयास करता है । 
उसमें एक तर्क पिरोना चाहता है, 
जो ऊपर से एकदम अराजक और तर्कहीन जान पड़ता है । 
और जब वह यह कर पाता है, चाहे कहानी के माध्यम से करे, 
या कविता के माध्यम से, तो न केवल उसे संतोष मिलता है 
अपितु वह चीज केवल उसकी संपत्ति बनकर नहीं रह जाती, सार्वजनिक हो जाती है । 
तुलसीदास ने किसी का भला करने के उद्देश्य से 
रामचरितमानस की रचना नहीं की थी । 
उन्होंने अपने मन की शांति, संतोष और आनंद के लिए 
मानस की रचना की थी । 
लेकिन उसी स्वान्तःसुखाय रचना ने हिंदु मानस को किस तरह आलोड़ित किया, 
यह अपने आप में एक बड़ी शिक्षा देने वाली चीज है । 
जो बात तुलसी पर लागू होती है, 
वह किसी भी युग में किसी भी लेखक पर लागू होती है ।' 

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