कला-संसार में आमतौर पर जिन बातों/स्थितियों को सफलता के पैमानों के रूप में देखा/पहचाना जाता है, उन्हें पाने/अपनाने के बावजूद अधिकतर कलाकार अपनी कला के साथ गायब क्यों हो जाते हैं ?

करीब पंद्रह वर्षों तक एक चित्रकार के रूप में कला-संसार में 'धूम' मचाये रखने के बाद उसने कला-संसार से नाता पूरी तरह तोड़ लिया है । पिछले चार/पाँच वर्षों से उसने ब्रश और या पेंसिल को हाथ तक नहीं लगाया है ।अपनी पेंटिंग्स तथा स्केचेज को उसने पैक करके स्टोर में रख दिया है, और उन्हें खोल कर देखना तो दूर, अब वह उनकी तरफ देखता भी नहीं है । कला-संसार ने उसे बुरी तरह निराश किया है, जिसके परिणामस्वरूप अब वह कला पर किसी तरह की कोई बात करने के लिए भी तैयार नहीं होता है और न किसी तरह की कोई जिज्ञासा रखता है । हालाँकि अपने जीवन में वह बहुत खुश है और तमाम गतिविधियों में खासी दिलचस्पी के साथ शामिल होता है । मजे की बात यह है कि कला-संसार में जब तक वह सक्रिय था, दूसरे कलाकार उससे ईर्ष्या ही करते थे - क्योंकि उसका जोरदार जलवा था । अपनी नई पेंटिंग और या अपने किसी स्केच की तस्वीर वह अपने किसी सोशल अकाउंट पर डालता था, तो उसे ढेरों लाइक्स मिलते थे, कमेंट्स के रूप में उसे खूब वाहवाही मिलती थी । अपनी पेंटिंग्स की उसने सात एकल प्रदर्शनियाँ की थीं । शुरू की दो/तीन प्रदर्शनियाँ तो सामान्य रहीं थीं, लेकिन बाद की तीन/चार प्रदर्शनियों में उसे वरिष्ठ व अपने समकालीन कलाकारों का अच्छा 'सहयोग' मिला था । बाद वाली तीन/चार प्रदर्शनियों के उद्घाटन के मौकों पर तो इतनी भीड़ जुटी थी, कि मेले जैसा माहौल बना था । उसकी लोकप्रियता देख कर समूह प्रदर्शनी करने वाले कलाकार उसे शामिल करने के लिए उसे पटाने में लगे रहते थे; उन्हें विश्वास होता था कि वह उनकी समूह प्रदर्शनी का हिस्सा होगा, तो उनकी प्रदर्शनी में अच्छी भीड़ जुटेगी । उसने 34 समूह प्रदर्शनियों में अपनी पेंटिंग्स प्रदर्शित की थीं । वह नौ कला-शिविरों में भी आमंत्रित किया गया था, और 16 मौकों पर वह एक कलाकार के रूप में सम्मानित व पुरुस्कृत हुआ था । करीब पंद्रह वर्षों के सक्रिय कला-जीवन में उसकी 22 पेंटिंग्स व 6 स्केचेज बिके थे । लेकिन फिर भी वह कला-संसार से बुरी तरह निराश हुआ; उसे शिकायत रही कि उसकी कला को किसी ने न तो समझा और न समझने की कोशिश ही की, और इस कारण से उसकी कला तथा एक कलाकार के रूप में उसकी कोई पहचान नहीं बन रही है; वह सिर्फ लकीर का फकीर बन कर रह गया है । इस 'सच्चाई' से सामना होते ही उसने कला-संसार से किनारा करना शुरू कर दिया और अब वह कला-संसार के बारे में और या अपनी कला के बारे में भी बात तक नहीं करना चाहता है । 
मेरी उससे मुलाकात तब हुई थी, जब वह सफलता की ऊँची सीढ़ी पर था । उस समय भी उसकी बातों से लगता था जैसे कि वह अपनी सफलता से खुश नहीं है । दूसरों की निगाह में उसकी जो सफलता थी, उसे वह 'तथाकथित सफलता' कहता था । मुझसे उसकी ज्यादा बात तो नहीं होती थी, लेकिन जब भी होती थी - मैंने महसूस किया कि वह खुलकर बात करता था; अपने दुःख, अपनी निराशाएँ, अपनी खुशी, अपनी उम्मीद, अपनी इच्छा, अपने स्वप्न, अपनी योजनाएँ वह मुझे इतने विस्तार से बताता था कि कभी कभी मुझे हैरानी भी होती थी कि वह यह सब मुझे क्यों बता रहा है; क्योंकि मुझसे उसके ऐसे कोई खास संबंध भी नहीं थे । उसकी बातों से मुझे यह आभास हो रहा था कि कला-संसार में आमतौर पर जिन बातों/स्थितियों को सफलता के पैमानों के रूप में देखा/पहचाना जाता है, उनकी निरर्थकता को उसने समझ लिया है और इसीलिए वह अपनी 'तथाकथित सफलता' से खुश नहीं था । मैं देख रहा था कि उसकी यह नाखुशी उसके काम पर प्रतिकूल असर डाल रही है, और वह अपने को दोहरा भर रहा है । मैंने उसे इशारों व संकेतों में यह बताने की कोशिश भी की, और मुझे यह देख कर अच्छा लगा कि मेरे इशारों व संकेतों को पकड़ने में उसने देर नहीं लगाई और उसने हर बार स्वीकार किया कि काम में उसका मन नहीं लग रहा है । मुझे डर हुआ था कि एक होनहार व संभावनाशील कलाकार को कला-संसार कहीं खो न दे । मेरा डर अंततः सही साबित हुआ । इस मामले ने मुझे और कई कलाकारों की याद दिलाई, जो अच्छे से काम करते करते और कला-संसार में दिखते दिखते अचानक से कहाँ गायब हो गए, पता ही नहीं चला । वह सीन से गायब हुए, तो उनका कोई नामलेवा भी नहीं रहा । हालाँकि कला की दुनिया का दस्तूर और रिवाज़ तो यह है कि कला कलाकार को हमेशा 'जिंदा' रखती है; लेकिन कई कलाकारों के मामले में गंगा उल्टी ही बहती दिखती है - वह तो जिंदा हैं, लेकिन उनकी कला 'मर' चुकी होती है; खुद उनके लिए भी और दूसरों के लिए भी । 
मुझे लगने लगा है कि कला को 'मारने' में खुद उसके रचयिता का, खुद कलाकार का भी हाथ होता है - कहने की जरूरत नहीं होना चाहिए कि यह काम वह अनजाने में करता है । कुछेक कलाकार सौभाग्यशाली होते हैं कि उन्हें गैलरीज, संग्राहकों, कला समीक्षकों आदि का सहयोग मिल जाता है; जिनके सहयोग से उनकी कला और वह सचमुच आगे बढ़ते हैं । लेकिन जिन्हें ऐसा सहयोग नहीं मिल पाता है, वह क्या करें ? देखने में आता है कि वह अपने प्रयासों से करते तो वही कुछ हैं, जो 'सौभाग्यशाली' कलाकारों के साथ होता है - लेकिन उनके 'करने' में चूँकि कोई सोच, कोई नजरिया, कोई विजन नहीं होता है इसलिए उन्हें उसका कोई 'सार्थक' परिणाम नहीं मिलता है । कामयाबी पाने का यूँ तो कोई फार्मूला नहीं होता है, लेकिन कामयाबी की इच्छा रखने वाला हर व्यक्ति अपना एक फार्मूला बना ही लेता है । सोशल मीडिया ने कामयाबी के रास्ते को 'आसान' भी बना  दिया है । हर कोई सोचता है और मानता है कि सोशल मीडिया में अपने काम की तस्वीर लगाते ही उसे कलाकार के रूप में पहचाना जाने लगेगा । तस्वीर पर मिलने वाले लाइक्स व वाहवाही भरे कमेंट्स उसे और आश्वस्त करते हैं कि अब बस कामयाबी की ऊँची चोटी ज्यादा दूर नहीं है । वह आभास तक नहीं कर पाता है कि जिस रास्ते को वह कामयाबी की ऊँची चोटी की तरफ बढ़ता समझ रहा होता है, वह उसे ऐसी अँधेरी गुफा की तरफ ले जाने वाला होता है, जहाँ से वह वास्तव में कहीं नहीं पहुँच पाता है । रास्ते की यह जो अदला-बदली होती है, यह दरअसल सोच, नजरिये व विजन की कमी के कारण होती है और यह शुरू में ही हो जाती है । अधिकतर कलाकार शुरु में ही तब 'गलती' कर बैठते हैं, जब वह अपना 'टारगेट ऑडियंस' ही तय नहीं कर पाते हैं; समस्या इसलिए और भी गंभीर हो जाती है कि इस बारे में वह गौर करना भी जरूरी नहीं समझते हैं । हर कलाकार कला-संसार का और कला-बाजार का सदस्य तो बनना चाहता है, लेकिन वह कला-संसार की मुख्य धारा को पहचानने की कोशिश नहीं करता है । वह 'किनारे' के परिदृश्य को ही वास्तविक संसार मान/समझ लेता है । 
सोशल मीडिया में वाहवाही करने वालों और अपनी प्रदर्शनी में जुटे लोगों को 'ही' ऑडियंस मान लेने के कारण उसकी यात्रा में जो भटकाव शुरू होता है, वह फिर आगे भी नहीं सँभल पाता है । असल में, वह अपने आप को एक ऐसी भीड़ में शामिल कर लेता है, जहाँ उसे हर बात के लिए तारीफ मिलती है और इसलिए वह कला-संसार और या कला-बाजार की 'जरूरतों' के हिसाब से नहीं, बल्कि अपनी समझ व सुविधा के हिसाब से काम करता है । 
कई कलाकार अपने को स्थापित करने के लिए, अपने को प्रमोट करने के लिए अपनी तरफ से प्रयत्न तो खूब करते हैं, लेकिन उन प्रयत्नों में चूँकि कला-संसार और या कला-बाजार की जरूरतों का ध्यान नहीं रखा गया होता है, इसलिए उनके तमाम प्रयत्नों का कोई सुफल नहीं मिलता है । किसी भी कला प्रदर्शनी को प्रमोट करने तथा कला जगत के महत्त्वपूर्ण लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए दो चीजों की खास भूमिका होती है - तस्वीरों की तथा मीडिया रिपोर्ट्स की । इन दोनों ही मामलों में अक्सर ही गजब किस्म की लापरवाही व फूहड़ता दिखाई देती है । तस्वीरें तो खूब होती हैं, सोशल मीडिया में उनका प्रदर्शन भी धूमधाम से होता है; लेकिन तमाम तस्वीरों में दो तस्वीरें ऐसी नहीं मिलेंगी जो किसी अनजान का ध्यान आकर्षित कर सकें और उसकी स्मृति में टंग सकें । मीडिया के मामले में अधिकतर कलाकार इस जुगाड़ में तो रहते हैं कि उनकी खबर छप जाए, लेकिन इसकी चिंता बिलकुल नहीं करते कि उनकी सृजन-यात्रा, एक रचनाकार के रूप में उनके संघर्ष, काम करने के उनके तरीके, अपनी कला के प्रेरणा-स्रोतों आदि के बारे में मीडिया के जरिये लोगों को जानकारी दें । यही कारण है कि समूह प्रदर्शनियों की बात तो दूर, अधिकतर एकल प्रदर्शनियाँ भी कोई प्रभाव नहीं बना/छोड़ पाती हैं; कलाकार और या उसकी कला का 'परिचय' या पहचान जरा भी आगे नहीं बढ़ी होती है, कला-संसार और या कला-बाजार की मुख्य धारा की तरफ वह एक इंच भी नहीं बढ़ा होता है; यह सब तो दूर की बात है - वह कोई एक तस्वीर, एक वीडियो, दो लाइनें ऐसी नहीं बना/'कमा' पाता है, जो उसके परिचय व पहचान को आगे बढ़ाने के काम आ सके । कलाकार यही सोच कर अपने मन को समझा लेता है कि उसकी प्रदर्शनी देखी तो बहुत लोगों ने है; जिसकी दो/एक पेंटिंग बिक जाती हैं, वह तो स्वयं को सफलता के घोड़े पर सवार मानता ही है । समझ तो वह रहा होता है, लेकिन स्वीकार नहीं करता है कि तमाम तैयारियों के बावजूद उसे हासिल कुछ नहीं हुआ है; जब तक वह स्वीकार करने को मजबूर होता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है - और तब उसके लिए नए सिरे से शुरुआत करना मुश्किल हो चुका होता है । अधिकतर कलाकार यह समझने में विफल रहते हैं कि अपना काम करने में वह जो धीरज रखते/दिखाते हैं, ठीक वैसा ही धीरज अपने को प्रमोट करते हुए अपने को स्थापित करने के प्रयासों में भी उन्हें रखने/दिखाने की जरूरत है; अन्यथा तमाम कथित उपलब्धियों के बावजूद वह गुमनामी की अँधेरी गुफा में ही पहुँचेंगे । 

Comments

  1. Thanks for posting me this write up. Some time back, I had requested to post your blog regularly to me.
    I am impressed by this writer who has raised this issue which certainly reflect the position of few artists who do leave their works and writer has tried to spell out few reasons for such situations. But I feel the writer has failed to touch the core of the issue. According to me if you do work only because you have some goals like fame - money- position to achieve, then one is likely to leave it sooner or later. But if you work because you cannot live without it and you have no other concern , probably one can work for a long long time.
    S.K.Sahni
    "Lies of Vision" http://www.sksahni.com

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