भारतीय रंगमंच को नई और आधुनिक पहचान देने वाले इब्राहिम अल्काज़ी की पेंटिग्स व ड्राइंग्स की प्रदर्शनी उनके एक और सृजनात्मक रूप से परिचित करवाने का काम करेगी

ऑर्ट हैरिटेज गैलरी में 15 अक्टूबर की शाम को इब्राहिम अल्काज़ी की पेंटिंग्स व ड्राइंग्स की एक बड़ी प्रदर्शनी का उद्घाटन हो रहा है । इस प्रदर्शनी में 1940 के दशक के अंतिम वर्षों से लेकर 1970 के दशक के आरंभिक वर्षों के बीच बनाई गईं उनकी पेंटिंग्स व ड्राइंग्स प्रदर्शित होंगी । पद्मश्री (1966), पद्म भूषण (1991) व पद्म बिभूषण (2010) इब्राहिम अल्काज़ी को भारतीय रंगमंच को आधुनिक रूप व पहचान देने वाले गिने-चुने लोगों में देखा/पहचाना जाता है । दरअसल इसीलिए उनके चित्रों की होने वाली प्रदर्शनी एक रोमांच पैदा करती है कि रंगमंच के एक पुरोधा ने चित्रकला को कैसे बरता होगा ? यह सवाल इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि जिस समयावधि में बनाई गईं उनकी पेंटिंग्स व ड्राइंग्स प्रदर्शित हो रही हैं, उस समयावधि में इब्राहिम अल्काज़ी भारतीय रंगमंच को नई पहचान देने के खासे चुनौतीपूर्ण व मुश्किल काम में जुटे हुए थे । 18 अक्टूबर 1925 को पुणे में जन्मे इब्राहिम अल्काज़ी मुंबई के सेंट जेवियर कॉलिज में पढ़ने के दौरान सुल्तान 'बॉबी' पदमसी के थियेटर ग्रुप के सदस्य बन गए थे, जो अंग्रेजी में नाटक करते थे । यह करते हुए वह लंदन के रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रॉमेटिक ऑर्ट में प्रशिक्षण के लिए चले गए थे । 1947 में उनका प्रशिक्षण पूरा हुआ तो उन्हें लंदन की इंग्लिश ड्रामा लीग तथा ब्रिटिश ब्रॉडकॉस्टिंग कॉर्पोरेशन में काम करने का ऑफर मिला, लेकिन उन्होंने भारत लौटने का फैसला किया और लौट कर वह पुनः थियेटर ग्रुप में शामिल हुए और प्रदर्शन व प्रशिक्षण के काम में जुटे । उन्होंने थियेटर यूनिट बुलेटिन प्रकाशित करना शुरू किया, जो हर महीने प्रकाशित होता था और जिसमें देश भर में चलने वाली नाट्य गतिविधियों की चर्चा होती थी । इन्हीं दिनों उन्होंने स्कूल ऑफ ड्रामेटिक ऑर्ट की स्थापना की थी और मुंबई की नाट्य अकादेमी के वह प्रिंसिपल बने थे । भारतीय रंगमंच में इब्राहिम अल्काज़ी की सक्रियता तथा प्रतिभा का ही जलवा था कि 1954 में, जबकि उनकी उम्र कुल 29 वर्ष थी, रंगमंच को लेकर एक राष्ट्रीय संस्थान की स्थापना का विचार आकार ले रहा था तो उसके मुखिया के रूप में काम करने का ऑफर उन्हें मिला । उस समय उन्होंने लेकिन उस ऑफर को यह कहते हुए स्वीकार करने से इंकार कर दिया कि अभी वह इतनी बड़ी जिम्मेदारी निभाने के लिए तैयार नहीं हैं । सात वर्ष बाद, 1961 में उन्हें फिर से यह ऑफर मिलता है और अब वह अपने आप को उक्त जिम्मेदारी निभाने के लिए तैयार पाते हैं तथा इसे स्वीकार कर लेते हैं । 1962 में नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के निदेशन बनने के साथ ही इब्राहिम अल्काज़ी सिर्फ सिलेबस ही नहीं बदलते हैं, बल्कि वह नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा को अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुकूल गढ़ने तथा उसे अपनी ही तरह का एक मॉडल संस्थान बनाने की की मुहिम में भी जुटते हैं । इसी के साथ-साथ वह स्कूल के लिए साधन और सुविधाएँ जुटाने के लिए तथा स्कूल को एक स्वायत्त पहचान दिलाने के लिए भी जूझते हैं । नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा को 1975 में जाकर स्वायत्ता मिलती है ।  
इस संक्षिप्त परिचय से समझ सकते हैं कि 1940 के दशक के अंतिम वर्षों से 1970 के दशक के शुरुआती वर्षों तक के समय में इब्राहिम अल्काज़ी पूरी तरह रंगमंच से जुड़ी गतिविधियों के प्रति ही समर्पित थे । इसलिए यह जानना सचमुच रोमांच पैदा करता है कि रंगमंच के प्रति समर्पण के दौर में भी अल्काज़ी ने पेंटिंग्स व ड्राइंग्स करने के लिए कैसे और आखिर क्यों समय निकाला होगा । जिस समयावधि की पेंटिंग्स व ड्राइंग्स देखने के लिए आमंत्रित किया जा रहा है, उस समयावधि में इब्राहिम अल्काज़ी एक अनुशासित व सक्षम रंग संस्थान निर्मित करने, गंभीर रंगमंच के लिए दर्शक बनाने व तैयार करने, बारीकी से संयोजित व सुपरिकल्पित अभिनय प्रस्तुतियाँ देने व प्रतिमान गढ़ने के काम में लगे थे । निर्देशक के रूप में अल्काज़ी का पहला थियेटर प्रॉडक्शन 'आषाढ़ का एक दिन' था, जो 1962 में हुआ था । इस प्रस्तुति ने अल्काज़ी को ही ख्याति नहीं दिलवाई, बल्कि नाटक के लेखक मोहन राकेश को भी पहले आधुनिक हिंदी नाटककार के रूप में पहचान दिलवाई । इसके बाद अल्काज़ी ने एक से बढ़ कर एक नाटक किए; उन्होंने 50 से अधिक नाटकों को निर्देशित किया - जिनमें 1963 में धर्मवीर भारती का 'अंधा युग'; 1964 में कालिदास का 'अभिज्ञान शाकुंतलम', सोफोक्लीज का 'ओडिपस रेक्स, स्ट्रिंडबर्ग का 'फादर'; 1966 में टीएस इलियट का 'वेस्टलैंड'; 1968 में बादल सरकार का 'बाकी इतिहास'; 1974 में गिरीश कर्नाड का 'तुगलक', ऑसबोर्न का 'लुक बैक इन एंगर' तथा शूद्रक का 'मृच्छकटिकम' आदि प्रमुख रहे । अल्काज़ी अपने नाटकों में सेट डिजाइन, परिधान व मंच-सम्पदा की पृष्ठभूमि से जुड़े प्रयोगों व खोजों पर खासा जोर देने के साथ-साथ मंचन के लिए स्पेस के उपयोग पर खास ध्यान देते थे, और इसके लिए उनकी खासी प्रशंसा भी होती थी । 
नाटकों में परिवेश के अनुरूप डिजाइन-परिकल्पना को लेकर अल्काज़ी की समझ की गहराई व व्यापकता तथा उनकी सौन्दर्यानुभूति को लेकर विचार करते समय जरूर कुछेक लोगों ने चित्रकला के प्रति उनके लगाव को रेखांकित किया, लेकिन उनकी चित्रकला पर कभी कोई विशेष बात नहीं हो सकी । यह तथ्य जरूर उपलब्ध रहा कि 1947 में लंदन से लौटने के बाद इब्राहिम अल्काज़ी मुंबई स्थित आधुनिक कलाकारों - एमएफ हुसेन, एफएन सूजा, एसएच रजा, केएच आर्य, एचए गडे तथा एसके बाकरे द्वारा गठित किए गए मशहूर प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप से जुड़े थे; लेकिन उनकी गतिविधियों व सक्रियता का मुख्य केंद्र रंगमंच ही था । हालाँकि इब्राहिम अल्काज़ी का नाम दिल्ली में कला गतिविधियों को विस्तार देने, उन्हें संयोजित व संगठित करने तथा उन्हें एकेडमिक व सौंदर्यशास्त्रीय रूप देने के उद्देश्य से स्थापित ऑर्ट हैरिटेज से जुड़ा हुआ है; लेकिन इसकी स्थापना उन्होंने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के निदेशक पद से इस्तीफा देने के बाद अपनी पत्नी रोशन अल्काज़ी के सहयोग से 1977 में की थी । अल्काज़ी देश के एक प्रमुख कला संग्राहक हैं । ऑर्ट हैरिटेज में होने वाली कला प्रदर्शनियों के केटलॉग को सुरुचिपूर्ण तरीके से प्रकाशित करने पर उनका विशेष ध्यान रहा है । कला संबंधी कई पुस्तकों को तैयार करने तथा उन्हें प्रकाशित करने व करवाने में उनकी गहरी दिलचस्पी ली है । लेकिन खुद उनके चित्रकार होने का जिक्र कभी गंभीरता से नहीं आया है । इसलिए ऑर्ट हैरिटेज गैलरी में 15 अक्टूबर की शाम को उद्घाटित हो रही उनकी पेंटिंग्स व ड्राइंग्स देखना सचमुच एक अप्रतिम अनुभव होगा ।        

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