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Showing posts from October, 2016

पीरामल ऑर्ट फाउंडेशन में कला में दालों का पुनर्सृजन

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किसी भी कला और या कलाकृति(यों) की सार्थकता को पहचानने/चिन्हित करने/रेखांकित करने का बड़ा आम व साधारण सा फार्मूला यह जाँच है कि वह हमारी अंतर्दृष्टि को अधिक व्यापक व संवेदनशील बना रही है, या नहीं । इसी आधार पर, पीरामल ऑर्ट फाउंडेशन के तीन सप्ताह के दालों पर आधारित रेजीडेंसी प्रोजेक्ट के बारे में सुना/पढ़ा तो सहज जिज्ञासा हुई कि दालों को लेकर कला में भला क्या किया जा सकता है ? यूँ तो दालें भारतीय खानपान व्यवस्था का एक जरूरी हिस्सा हैं - और इनकी कीमतों ने सामाजिक, व्यावसायिक व राजनीतिक क्षेत्र में काफी उथल-पुथल भी मचाई है; किंतु याद नहीं पड़ता कि दालों ने साहित्य और कला क्षेत्र का ध्यान कभी आकर्षित किया हो । पिछली शताब्दी के आरंभिक वर्षों से ही पारंपरिक तौर-तरीकों व माध्यमों को तोड़कर सरल व स्थूल बिम्बों के सहारे सामाजिक स्थितियों को अभिव्यक्त करने तथा कुछ नया रचने के प्रयास हो रहे हैं; जिसके चलते कला का परिप्रेक्ष्य काफी बदला है और बढ़ा भी है; कला में समाज और जीवन यद्यपि हमेशा ही रहे हैं, लेकिन परिप्रेक्ष्य बदलने के चलते समाज और जीवन ज्यादा डिटेल्स के साथ कला में मुखरित व अ

ए रामचंद्रन की कलाकृतियों की पुनरावलोकन प्रदर्शनी के नाम पर वढेरा ऑर्ट गैलरी के पदाधिकारियों के किए-धरे को लेकर बेंगलुरू के कलाकारों व कला प्रेमियों के बीच गहरी नाराजगी है

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बेंगलुरू की नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न ऑर्ट में पाँच अक्टूबर की शाम को ए रामचंद्रन की पुनरावलोकन प्रदर्शनी का ही उद्घाटन नहीं हुआ, बल्कि एक गंभीर विवाद का भी जन्म हुआ - जिस पर हालाँकि मिट्टी डालने के प्रयास भी शुरू हो गए हैं । विवाद का विषय यह है कि बड़ी निजी ऑर्ट गैलरियाँ किस चतुराई से सरकारी संसाधनों का मनमाने तरीके से इस्तेमाल करते हुए कलाकारों व कला प्रेमियों की उपेक्षा करते हुए अपने धंधे को बढ़ाने का उपक्रम करती हैं, और सरकारी संस्थाओं के पदाधिकारी उनके हाथों की कठपुतली बन कर रह जाते हैं । इस विवाद की शुरुआत का कारण यह आरोप बना कि पाँच अक्टूबर को हुए उद्घाटन समारोह तथा छह अक्टूबर को आयोजित हुए संवाद कार्यक्रम के निमंत्रण बेंगुलुरू के अधिकतर कला-प्रेमियों तथा कलाकारों को मिले ही नहीं, और इन दोनों आयोजनों में उन्हीं लोगों की भागीदारी हो पाई जो वढेरा ऑर्ट गैलरी के नजदीक या संपर्क में हैं - और जिनमें अधिकतर खरीदार किस्म के लोग थे । कहने को तो इस पुनरावलोकन प्रदर्शनी का आयोजन नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न ऑर्ट के बेंगलुरू केंद्र ने वढेरा ऑर्ट गैलरी के सहयोग से किया है, किंतु आयोजन

यूसुफ अरक्कल नहीं रहे !

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अपनी कलाकृतियों में अकेली मानव आकृतियों के रूप में एकाकीपन के विलक्षण रचयिता के रूप में पहचाने जाने वाले प्रसिद्ध चित्रकार यूसुफ अरक्कल ने आज अचानक अपनी देह छोड़ दी । अभी चार दिन पहले ही, 30 सितंबर को चेन्नई के नजदीक मुत्तुकाडु में 'फेसेस ऑफ क्रियेटिविटी' शीर्षक से दक्षिणा चित्रा म्यूजियम के सहयोग से लगाई गई उनके चित्रों की प्रदर्शनी संपन्न हुई थी, जिसे लेकर वह खासे उत्साहित थे । प्रगतिशील मूल्यों के मुखर समर्थक रहे यूसुफ अरक्कल अपने जीवट के साथ रचनात्मक प्रयोगधर्मिता के लिए सतत सक्रिय रहे । केरल के चवक्काड में 1945 में जन्में यूसुफ ने कला की शिक्षा बेंगलुरू में प्राप्त की और यहीं रह कर उन्होंने अपनी कला के मुहावरे को रचा और स्थापित किया । उनका मानना रहा कि अच्छी कला निजी अनुभवों पर आधारित होती है । एक बातचीत में उन्होंने कहा था, 'बेंगलुरू की सड़कों पर आवारगी करते हुए मैंने जो भोगा था, एक चित्रकार के रूप में उसकी उपेक्षा कर पाना असंभव है ।' यूसुफ ने पूर्णरूपेण यथार्थवाद में काम करते हुए अपनी चित्रकृतियों की भाषा गढ़ी । यूसुफ की प्रेरणा व बौद्धिकता के स्रोत

महात्मा गाँधी ने कला को संवेदनात्मक सत्याग्रह कहा है

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गाँधी के विचारों और आदर्शों ने राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक पहलुओं को ही प्रभावित नहीं किया है - बल्कि कला सृजन को भी प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से आकर्षित किया है । गाँधी का जीवन सत्य, अहिंसा, सादगी और भाईचारे पर आधारित रहा है; इसलिए कला को लेकर भी उनके विचार सादगी, सरलता, जीवन्तता और जनमानस से सहज जुड़ने की प्रक्रिया के अनुकूल रहे हैं । उनका सहज विश्वास था कि 'जो व्यक्ति आकाश के सौंदर्य से स्पन्दित नहीं होता है उसमें किसी भी वस्तु से स्पंदित होने की क्षमता नहीं होती है ।' कला के प्रति उनके लगाव और सम्मान के सबसे बड़े उदाहरण के रूप में उस समय के प्रमुख और प्रसिद्ध कलाकार नन्दलाल बसु के साथ उनके संबंध और उनके विश्वास को देखा जा सकता है । 1936 में महाराष्ट्र के फैजपुर तथा 1938 में गुजरात के हरिपुरा में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में साज-सज्जा तथा प्रदर्शनी की सारी जिम्मेदारी नन्दलाल बसु पर छोड़ते हुए उन्होंने कहा था 'वे सृजनशील कलाकार हैं, जो मैं नहीं हूँ । ईश्वर ने मुझे कला की भावना तो दी है पर उसे मूर्त रूप देने की प्रतिभा प्रदान नहीं की है । नन्दलाल बसु को ईश्वर