पीरामल ऑर्ट फाउंडेशन में कला में दालों का पुनर्सृजन
किसी भी कला और या कलाकृति(यों) की सार्थकता को पहचानने/चिन्हित करने/रेखांकित करने का बड़ा आम व साधारण सा फार्मूला यह जाँच है कि वह हमारी अंतर्दृष्टि को अधिक व्यापक व संवेदनशील बना रही है, या नहीं । इसी आधार पर, पीरामल ऑर्ट फाउंडेशन के तीन सप्ताह के दालों पर आधारित रेजीडेंसी प्रोजेक्ट के बारे में सुना/पढ़ा तो सहज जिज्ञासा हुई कि दालों को लेकर कला में भला क्या किया जा सकता है ? यूँ तो दालें भारतीय खानपान व्यवस्था का एक जरूरी हिस्सा हैं - और इनकी कीमतों ने सामाजिक, व्यावसायिक व राजनीतिक क्षेत्र में काफी उथल-पुथल भी मचाई है; किंतु याद नहीं पड़ता कि दालों ने साहित्य और कला क्षेत्र का ध्यान कभी आकर्षित किया हो । पिछली शताब्दी के आरंभिक वर्षों से ही पारंपरिक तौर-तरीकों व माध्यमों को तोड़कर सरल व स्थूल बिम्बों के सहारे सामाजिक स्थितियों को अभिव्यक्त करने तथा कुछ नया रचने के प्रयास हो रहे हैं; जिसके चलते कला का परिप्रेक्ष्य काफी बदला है और बढ़ा भी है; कला में समाज और जीवन यद्यपि हमेशा ही रहे हैं, लेकिन परिप्रेक्ष्य बदलने के चलते समाज और जीवन ज्यादा डिटेल्स के साथ कला में मुखरित व अ...