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निर्मला गर्ग की कविताओं में भाषा 'बोलती' उतना नहीं है जितना 'देखती' है और उसके काव्य-प्रभाव में हम भी अपने देखने की शक्ति को अधिक एकाग्र और सक्रिय कर पाते हैं

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निर्मला गर्ग ने बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित अपने चौथे कविता संग्रह 'दिसम्बर का महीना मुझे आख़िरी नहीं लगता' को 'उस दिन के लिए' समर्पित किया है 'जब किसान आत्महत्या नहीं करेंगे ।' इस समर्पण से ही जाहिर है कि निर्मला गर्ग उन कवियों में हैं जो कविता में वैचारिकता के घोर पक्षधर हैं और अपने आग्रहों व सरोकारों को कविता में दो-टूक तरीके से अभिव्यक्त करते हैं । यह दिलचस्प है कि निर्मला गर्ग की कविता में इतिहास भी है और ऐतिहासिक स्थल व मौके भी हैं, तो मौजूदा समय की महत्वपूर्ण घटनाएँ भी हैं - लेकिन ऐतिहासिक घटनाओं-स्थलों-मौकों और मौजूदा समय की महत्वपूर्ण घटनाओं के जरिये उनकी कविता में आकलन अपने समय का ही हुआ है । 'पुष्कर', 'विवेकानंद रॉक', 'चीन की दीवार', 'ग़ाज़ा पट्टी', 'सिनैगॉग', 'लैंसडाउन', 'लाल चौक', 'सूर्य' शीर्षक कविताओं में इस तथ्य-भाव को देखा/पहचाना जा सकता है । 'पुष्कर' में ज्ञान की देवी सरस्वती के खुद के साथ किए गए पिता के अपराध पर चुप रहने को लक्ष्य करते हुए सरस्वती के लिए