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'चाँद-रात' में रमा भारती अपनी कविताओं की तराश जिस तरह से करती हैं, उससे लगता है कि वह सिर्फ कवि ही नहीं हैं - असाधारण शिल्पी भी हैं

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'चनाब' और 'चिनार' के बाद 'चाँद-रात' शीर्षक से आए अपने तीसरे कविता संग्रह  में रमा भारती ने गहरी अनुभूतिशीलता, परिष्कृत सौंदर्यबोध और गरिमामय शिल्प की निरंतरता को जिस तरह से न सिर्फ बनाए रखा है, बल्कि उसे और समृद्ध किया है, उसे देखते हुए उनकी रचनाशीलता के प्रति अचरज व सम्मान सहज ही प्रकट होता है । कविता के शिल्प से रमा का व्यवहार हालाँकि लीक से बहुत हटकर है, और उनके वाक्यों का गठन इस क़दर अप्रचलित और नया सा दिखता है कि एकबारगी पढ़ते हुए रुकना-चौंकना पड़े; लेकिन फिर भी भाषा उनकी कविता में एक अंतर्धारा में चलती/बहती हुई ही दिखती है ।  प्रकृति के प्रति रमा के मन में गहरी संसक्ति है और उसके बहुत सारे दृश्य उन्होंने अपनी भाषा में साकार किए हैं - यों कि उनकी सूक्ष्मता और नैसर्गिकता अक्षुण्ण रहे ।  प्रकृति का सौंदर्य उन्हें कई बार इतना अलौकिक लगता है कि उससे वियुक्त किए जाने की संभावना भी उन्हें विषण्ण कर देती है और वह सहसा प्रकृति की धुन के गीत सुनने लगती हैं : 'जेठ की भड़कती भोर में  भट्टी-सी जलती रेत पर  जब दो आँखों से...