स्वामी अनलानंद का कहना है कि "परंपरा को ‘अतीत की चीज’ मानना दरअसल एक भ्रम है - यदि वह सचमुच अतीत की चीज हो, तो हमें उसे किसी भी कीमत पर ढोने की जरूरत क्यों होनी चाहिए ?"
स्वामी अनलानंद को सुनना मुझे हमेशा सम्मोहित करता है, मुग्ध करता है । उनके सान्निध्य में मैंने अपने आप को वैचारिक स्तर पर भी और भावना व संवेदना के स्तर पर भी समृद्ध होते हुए पाया है । हाल ही में उनसे बातचीत हुई तो उन्होंने मेरे सवालों के जबाव खासी दिलचस्पी के साथ दिए । उनसे हुई बातचीत के खास अंश यहां प्रस्तुत हैं : स्वामी अनलानंद जी, आज हमारे बीच यूं तो सैकड़ों धर्मतंत्र हैं किंतु फिर भी क्या कारण है कि मनुष्य की आदिम जिज्ञासा की वेदना ज्यों की त्यों है ? यह वेदना कहीं बाहर से नहीं उपजती - मनुष्य की जिज्ञासा के भीतर ही यह सन्निहित है । यह प्रश्न जैसे ही पूछे जाते हैं कि मैं कौन हूं, क्या हूं, किसलिए इस धरती पर आया हूं, मेरे होने का क्या अर्थ है - वैसे ही मनुष्य को समूची सृष्टि से अलग कर देते हैं । इस बात को इस तरह भी देखा जा सकता है कि वह सृष्टि से अलग है, इसलिए इस तरह के प्रश्न पूछता है । कुछ भी हो, किंतु इस अलगाव के कारण मनुष्य अपनी आंखों में एक संदिग्ध प्राणी बन जाता है । समूची सृष्टि का साक्षी मनुष्य हो सकता है, किंतु मनुष्य का साक्षी कौन है ? मनुष्य सब वस्तुओ...