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स्वामी अनलानंद का कहना है कि "परंपरा को ‘अतीत की चीज’ मानना दरअसल एक भ्रम है - यदि वह सचमुच अतीत की चीज हो, तो हमें उसे किसी भी कीमत पर ढोने की जरूरत क्यों होनी चाहिए ?"

स्वामी अनलानंद को सुनना मुझे हमेशा सम्मोहित करता है, मुग्ध करता है । उनके सान्निध्य में मैंने अपने आप को वैचारिक स्तर पर भी और भावना व संवेदना के स्तर पर भी समृद्ध होते हुए पाया है । हाल ही में उनसे बातचीत हुई तो उन्होंने मेरे सवालों के जबाव खासी दिलचस्पी के साथ दिए । उनसे हुई बातचीत के खास अंश यहां प्रस्तुत हैं : स्वामी अनलानंद जी, आज हमारे बीच यूं तो सैकड़ों धर्मतंत्र हैं किंतु फिर भी क्या कारण है कि मनुष्य की आदिम जिज्ञासा की वेदना ज्यों की त्यों है ? यह वेदना कहीं बाहर से नहीं उपजती - मनुष्य की जिज्ञासा के भीतर ही यह सन्निहित है । यह प्रश्न जैसे ही पूछे जाते हैं कि मैं कौन हूं, क्या हूं, किसलिए इस धरती पर आया हूं, मेरे होने का क्या अर्थ है - वैसे ही मनुष्य को समूची सृष्टि से अलग कर देते हैं । इस बात को इस तरह भी देखा जा सकता है कि वह सृष्टि से अलग है, इसलिए इस तरह के प्रश्न पूछता है । कुछ भी हो, किंतु इस अलगाव के कारण मनुष्य अपनी आंखों में एक संदिग्ध प्राणी बन जाता है । समूची सृष्टि का साक्षी मनुष्य हो सकता है, किंतु मनुष्य का साक्षी कौन है ? मनुष्य सब वस्तुओं, प

जया मिश्र की कविताएँ

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जया मिश्र की कविताएँ अपनी परिभाषा जैसे खुद गढ़ने की जरूरत को रेखांकित करती हैं - इसलिए उन्हें किसी सामान्य या सार्वजनीन परिभाषा में बाँधना असंभव जान पड़ता है । उनकी कविताओं में शब्दों के एक विशिष्ट संयोजन के भीतर जिस सृष्टि का आभास होता है, वह इतनी अनोखी और अद्धितीय जान पड़ती है कि उसकी तुलना किसी दूसरी सृष्टि से करना असंभव भी जान पड़ता है और गैर जरूरी भी । जया जी की कविताएँ अपना एक निजी और स्वायत्त यथार्थ गढ़ती हैं जिसमें हमारे तमाम अनुभव जगह बनाते और पाते हैं; यही कारण है कि उनकी कविताओं में जीवन की विभिन्न संवेदनाएँ, अनुभव, विश्वास और शंकाएँ जिस प्रखरता के साथ अभिव्यक्त हुईं हैं उनमें हम अपने से साक्षात् कर लेते हैं । हाल ही में उनका पहला कविता संग्रह 'पुरानी डायरी से' प्रकाशित हुआ है । इसमें कविताओं के साथ प्रस्तुत चित्रकार अक्षय आमेरिया के रेखांकनों ने कविता संग्रह को तो जीवंत बनाया ही है, साथ ही कविताओं में छिपे अर्थों की गूँज को भी और विस्मयकारी-सा व आकर्षक बनाया है । जया मिश्र के इस कविता संग्रह का आकल्पन भी अक्षय आमेरिया जी ने किया है । यहाँ प्रस्तुत कविताएँ

स्वरूप भाटिया की पेंटिंग्स में भीतरी व बाहरी ‘दुनिया’ और स्पेस के एक गहरे अंतर्संबंध को साफ पहचाना जा सकता है

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नई दिल्ली । एक कलाकार संसार की चीजों से कैसा रिश्ता बनाता है, यह जानना उसकी कला की उत्कृष्टता को परखने का बहुत सटीक मानदण्ड न भी हो; किंतु इससे उसकी जीवन दृष्टि का पता तो चलता ही है । निश्चय ही हम एक कलाकृति के भीतर इस जीवन दृष्टि के सार्थक फलितार्थों की उम्मीद तो करेंगे ही; पर काफी हद तक इन फलितार्थों की सार्थकता उस जीवन दृष्टि के चरित्र यानी उसकी सूक्ष्मता, व्यापकता और गहराई पर निर्भर करती है - इसे नहीं भुलाया जा सकता; ठीक वैसे ही जैसे इस बात से इंकार करना मुश्किल है कि कल्पनाशीलता, मिथबोध और रूपविधान पर सशक्त पकड़ के बिना श्रेष्ठतम् जीवन दृष्टि भी कलात्मक सामान्यीकरण से वंचित रह जाती है । दरअसल यह दोनों ही स्थितियां किसी कला के दो बुनियादी अनुषंग होते हैं और इन दोनों की समान शक्ति और तनाव में बंधा हुआ संतुलन एक सार्थक कला के बनने में मदद करता है । स्वरूप भाटिया के काम को देखना और उसके प्रभावों के बीच ठहर कर सोचना एक तरह से उक्त तथ्य के करीब होना भी है । स्वरूप भाटिया के चित्र-संसार में कल्पना का वह रूप भी दिखाई देता है जहां ऐन्द्रिकता, उन्मुक्तता, अर्थसघनता के