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Showing posts from August, 2018

अंतरा श्रीवास्तव की सृजन यात्रा में पौराणिक कथाओं से जुड़े प्रसंगों व व्यक्तित्वों के प्रमुखता पाने को लेकर, उनसे हुई बातचीत

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अंतरा श्रीवास्तव ने पिछले कुछ समय में आध्यात्मिक भावभूमि के साथ पौराणिक पात्रों को जिस तरह से चित्रित किया है, वह विस्मय से भर देता है । इन चित्रकृतियों में रूपकालंकारिक छवियों को बहुत ही सूक्ष्मता के साथ विषयानुरूप चित्रित किया गया है । अंतरा की कला मनोभाव व संवेदना के स्तर पर जीवन से सीधा साक्षात्कार करती है, जिसमें गहरा अनुशासन रहा है और जिसमें अन्वेषण की निरंतर ललक व तलाश रही है । इसी ललक व तलाश के चलते एक स्वाभाविक प्रक्रिया से गुजरते हुए उनकी कला चेतना का आध्यात्मिकीकरण हुआ है । उनके चित्र हालाँकि निरे आध्यात्मिक नहीं हैं, बल्कि कलात्मक दृष्टि से भी उल्लेखनीय हैं । सच तो यह है कि अपनी कलात्मकता के कारण ये कलाकृतियाँ अंतरा श्रीवास्तव की श्रेष्ठ रचनात्मकता की साक्षी बनती हैं । उनकी सृजन-यात्रा में आए इस बड़े परिवर्तन के कारणों तथा उसे प्रेरित करने वाले प्रसंगों व तथ्यों को जानने समझने के लिए उनसे कुछ सवाल किए गए, जिनके उन्होंने गहरी दिलचस्पी के साथ जबाव दिए । सवाल-जबाव यहाँ प्रस्तुत हैं :          अंतरा जी, पौराणिक कथाओं से जुड़े प्रसंग और व्यक्तित्व आपकी सृजनात्

इस वर्ष का भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार अदनान कफ़ील दरवेश का हुआ

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अदनान कफ़ील दरवेश को इस वर्ष के भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार के लिए चुना गया है । इस चुनाव का कारण उनकी कविता 'क़िबला' बनी, जो 'वागर्थ' के सितंबर 2017 के अंक में प्रकाशित हुई थी । यह निर्णय इस वर्ष के निर्णायक प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल ने लिया है । निर्णय देते हुए पुरुषोत्तम अग्रवाल ने अपनी टिप्पणी में कहा कि 'अदनान की यह कविता माँ की दिनचर्या के आत्मीय, सहज चित्र के जरिेए 'माँ और उसके जैसी तमाम औरतों' के जीवन-वास्तव को रेखांकित करती है । अपने रोजमर्रा के वास्तविक जीवन अनुभव के आधार पर गढ़े गये इस शब्द-चित्र में अदनान आस्था और उसके तंत्र यानि संगठित धर्म के बीच के संबंध की विडंबना को रेखांकित करते हैं । ‘क़िबला’ इसलामी आस्था में प्रार्थना की दिशा का संकेतक होता है । लेकिन आस्था के तंत्र में ख़ुदा का घर सिर्फ मर्दों की इबादतगाह में बदल जाता है, माँ और उसके जैसी तमाम औरतों का क़िबला मक्के में नहीं रसोईघर में सीमित हो कर रह जाता है । स्त्री-सशक्तिकरण की वास्तविकता को नकारे बिना, सच यही है कि स्त्री के श्रम और सभ्यता-निर्माण में उसके योगदान