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Showing posts from 2014

विश्वनाथ प्रसाद तिवारी का कहना है कि 'कविता नितांत वैयक्तिक या कवि की निजी भावनाओं का प्रवाह नहीं होती'

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'कविता आत्माभिव्यक्ति होती है' - अर्थात कवि अपनी कविता में स्वयं को अभिव्यक्त करता है । यह बात सही है, पर इसका तात्पर्य यह नहीं है कि कवि नितांत निजी सुख-दुःख को कविता के रूप में अभिव्यक्त करता है । 'अभिव्यक्ति' एक व्यापक शब्द है । इसका अर्थ उस इच्छा-शक्ति की अभिव्यक्ति है, जो मनुष्य की बुनियादी विशेषता है । यह इच्छा-शक्ति न हो, तो कवि-कलाकार काव्य-कला को जन्म नहीं दे सकता । कवि के समक्ष जो प्रकृति-प्रदत्त सृष्टि और उसकी दी हुई व्यवस्था होती है, उससे कवि की इच्छा-शक्ति का टकराव होता है और वह अपनी अभिव्यक्ति के तरीके ढूँढ़ती है । यही काव्य-रचना और अन्य कलाओं के रूप में प्रकट होता है । मनुष्य अपने को अभिव्यक्त करना चाहता है । लेकिन यह इच्छा उसमें क्यों है, इसका ठीक-ठीक उत्तर दे पाना बहुत कठिन है । यह आत्म-प्रकाशन की इच्छा भी है, एक से अनेक होने की भी तथा एक को दूसरे में मिला देने की भी । इसके मूल में शायद कहीं बहुत गहरा और पुराना सत्य यह भी है कि मनुष्य एक से ही अनेक हुआ है । शायद इसीलिये वह एक होना चाहता है और उसकी अनेकता में भी एकता दिखाई पड़ती है । अप

जैनुल आबेदिन का जन्मशताब्दी वर्ष

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जैनुल आबेदिन का 28 मई 1976 को निधन तो बांग्लादेशी चित्रकार के रूप में हुआ था, लेकिन एक चित्रकार के रूप में दुनिया भर में उनकी पहचान ब्रह्मपुत्र श्रृंखला और अकाल श्रृंखला के चित्रों के रचयिता के चलते ही है - जो 1938 और 1944 के बीच रचे और पहली बार प्रदर्शित हुए थे । ब्रह्मपुत्र श्रृंखला के चित्रों पर उन्हें 1938 में आयोजित हुई अखिल भारतीय चित्रकला प्रदर्शनी में गवर्नर्स गोल्ड मेडल मिला था । उस समय उनकी उम्र करीब 24 वर्ष की थी । इस उपलब्धि ने उन्हें कला में अपना निजी मुहावरा गढ़ने के लिए प्रेरित किया । 1943 के बंगाल के अकाल के वीभत्स दृश्यों को अपने चित्रों का विषय बना कर उन्होंने अपनी कला को सामाजिक चेतना का वाहक बनाने की दिशा में अप्रतिम काम किया । इस काम ने एक कलाकार के रूप में उन्हें दुनिया भर में विशिष्ट पहचान उपलब्ध करवाई । जैनुल आबेदिन ने अपने पूर्ववर्ती और समकालीन कलाकारों से हटकर इस बात को अधिक महत्वपूर्ण माना कि वह जिस कला-परंपरा में काम करें, वह उनकी सामाजिक चेतना का ही हिस्सा हो । लंदन में ऑर्ट स्कूल में दो वर्षीय पाठ्यक्रम पूरा करते हुए उन्होंने लोककला के स्र

निर्मला गर्ग की कविताओं में भाषा 'बोलती' उतना नहीं है जितना 'देखती' है और उसके काव्य-प्रभाव में हम भी अपने देखने की शक्ति को अधिक एकाग्र और सक्रिय कर पाते हैं

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निर्मला गर्ग ने बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित अपने चौथे कविता संग्रह 'दिसम्बर का महीना मुझे आख़िरी नहीं लगता' को 'उस दिन के लिए' समर्पित किया है 'जब किसान आत्महत्या नहीं करेंगे ।' इस समर्पण से ही जाहिर है कि निर्मला गर्ग उन कवियों में हैं जो कविता में वैचारिकता के घोर पक्षधर हैं और अपने आग्रहों व सरोकारों को कविता में दो-टूक तरीके से अभिव्यक्त करते हैं । यह दिलचस्प है कि निर्मला गर्ग की कविता में इतिहास भी है और ऐतिहासिक स्थल व मौके भी हैं, तो मौजूदा समय की महत्वपूर्ण घटनाएँ भी हैं - लेकिन ऐतिहासिक घटनाओं-स्थलों-मौकों और मौजूदा समय की महत्वपूर्ण घटनाओं के जरिये उनकी कविता में आकलन अपने समय का ही हुआ है । 'पुष्कर', 'विवेकानंद रॉक', 'चीन की दीवार', 'ग़ाज़ा पट्टी', 'सिनैगॉग', 'लैंसडाउन', 'लाल चौक', 'सूर्य' शीर्षक कविताओं में इस तथ्य-भाव को देखा/पहचाना जा सकता है । 'पुष्कर' में ज्ञान की देवी सरस्वती के खुद के साथ किए गए पिता के अपराध पर चुप रहने को लक्ष्य करते हुए सरस्वती के लिए