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Showing posts from 2016

आर्नल्ड हाउजर का कहना है कि 'प्रत्येक कृति और कृति का प्रत्येक अंग मौलिकता और रूढ़ि, नवीनता और परंपरा के बीच टकराव के परिणामस्वरूप आकार ग्रहण करता है'

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विख्यात हंगेरियन कला इतिहासकार आर्नल्ड हाउजर  ने सामाजिक ताने-बाने के कला पर पड़ने वाले प्रभावों का न सिर्फ गंभीर विवेचन ही किया है, बल्कि कला को समझने व व्याख्यायित करने के लिए उसे जरूरी अवयव  के रूप में भी देखा/पहचाना है । 'द सोशल हिस्ट्री ऑफ ऑर्ट एंड लिटरेचर' शीर्षक उनकी किताब कला को इतिहास, मनोविज्ञान और समाजशास्त्र के नजरिए से पहचानने/परखने के जो तर्क देती है - उसने कला संबंधी चिंतनधारा को ही  बदल देने का काम किया है । इसके बाद आईं उनकी  'द फिलॉसिफी ऑफ ऑर्ट हिस्ट्री' तथा  'द सोशियोलॉजी ऑफ ऑर्ट' शीर्षक किताबों ने तो  कला के रचनात्मक व समाजशास्त्रीय प्रश्नों को लेकर  छिड़ी बहस में उत्तेजक हस्तक्षेप किया ।  उनकी और भी कई किताबें हैं ।  उनके समस्त लेखन में उन स्रोतों की ओर भी संकेत मिलते हैं  जहाँ से सार्थक रचनात्मकता की एक नई पहचान को  उभरने का अवसर मिलता है - दरअसल इसी कारण से  उनके लेखन को रचना और आलोचना, दोनों के मामले में  महत्ता मिली । 'द सोशल हिस्ट्री ऑफ ऑर्ट एंड लिटरेचर' के  एक प्रमुख अंश का हिंदी अनुवाद यहाँ प्रस्तु

जब हम प्रकृति को देखते हैं तब क्या हम प्रकृति को देखते भी हैं ?

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पद्मश्री हकु शाह कला और अध्यात्म को पर्याय मानते हुए यकीन करते हैं कि कला दरअसल आध्यात्मिकता का उजागर होना है । अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफोर्निया में प्रोफ़ेसर रहे हकु शाह ने बड़ौदा की एमएस यूनिवर्सिटी से कला की औपचारिक शिक्षा प्राप्त की है । हालाँकि वह मानते हैं कि रचना आत्मबोध है, और इसे तर्क के परास में महदूद नहीं किया जा सकता है । उन्होंने कहा है कि वह बहुत छुटपन से ही हरेक जगह व स्थिति में चित्र देखा करते थे, और संसार को वह इसी भांति देखते रहे हैं । 1934 में गुजरात में सूरत जिले के गाँव वालोड में जन्मे हकु शाह ने देश-विदेश की कई कला-परियोजनाओं की संकल्पना व रचना में केंद्रीय भूमिका निभाई है, जिसके चलते उन्हें देश-विदेश के महान कला-चिंतकों तथा विद्धानों के साथ काम करने का मौका मिला । दुनिया की प्रतिष्ठित कलादीर्घाओं में अपने चित्रों की एकल प्रदर्शनियाँ कर चुके हकु शाह को पीयूष दईया ने 'स्वधर्म में जीने - सांस लेने वाले एक आत्मशैलीकृत व प्रतिश्रुत आचरण-पुरुष' के रूप में पहचाना है, 'जिनकी विरल उपस्थिति का आलोक जीवन के सर्जनात्मक रास्ते को उजागर करता है

अमृता शेरगिल की खोई डायरी के कुछ पन्ने

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सिर्फ अट्ठाईस वर्ष ज़िन्दा रहीं अमृता शेरगिल (30 जनवरी 1913 - 5 दिसंबर 1941) ने आयु के सोलहवें वर्ष में कला विद्यालय में प्रवेश लिया था । पेरिस के प्रतिष्ठित कलाविद्यालय 'इकोल ब्यो ऑर्ट' में शिक्षा पाने के बावजूद उन्हें जल्दी ही यह समझ में आ गया कि सच्ची शिक्षा किसी विद्यालय में नहीं, बल्कि प्रकृति और समाज के बीच रह कर ही मिलेगी । इस समझ के भरोसे उन्होंने जो रचा, उसके कारण ही उन्होंने चित्रकला - खासकर आधुनिक भारतीय चित्रकला के इतिहास में अपना विशेष स्थान बनाया । अमृता शेरगिल की अंग्रेजी में लिखी डायरी के कई अंश अनुदित होकर मराठी में प्रकाशित हुए थे, जिनका 'कला-भारती' के लिए हिंदी रूपांतर दीप्ति गावंडे ने किया है । उसी में से कुछ प्रमुख अंश यहाँ साभार : 23 मई 1927, शिमला : आज इर्विन अंकल हंगरी गए हैं । हंगेरियन सरकार ने उन्हें सम्मान देने के लिए आमंत्रित किया है । उनके पौर्वात्य ज्ञान तथा अध्ययन को ध्यान में रखते हुए उनके नाम से बुडापेस्ट में एक विद्यापीठ स्थापित कर रहे हैं । यह गौरव की ही बात है । जाते समय उन्होंने मुझे बाँहों में लिया और बोले, 'चि

पीरामल ऑर्ट फाउंडेशन में कला में दालों का पुनर्सृजन

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किसी भी कला और या कलाकृति(यों) की सार्थकता को पहचानने/चिन्हित करने/रेखांकित करने का बड़ा आम व साधारण सा फार्मूला यह जाँच है कि वह हमारी अंतर्दृष्टि को अधिक व्यापक व संवेदनशील बना रही है, या नहीं । इसी आधार पर, पीरामल ऑर्ट फाउंडेशन के तीन सप्ताह के दालों पर आधारित रेजीडेंसी प्रोजेक्ट के बारे में सुना/पढ़ा तो सहज जिज्ञासा हुई कि दालों को लेकर कला में भला क्या किया जा सकता है ? यूँ तो दालें भारतीय खानपान व्यवस्था का एक जरूरी हिस्सा हैं - और इनकी कीमतों ने सामाजिक, व्यावसायिक व राजनीतिक क्षेत्र में काफी उथल-पुथल भी मचाई है; किंतु याद नहीं पड़ता कि दालों ने साहित्य और कला क्षेत्र का ध्यान कभी आकर्षित किया हो । पिछली शताब्दी के आरंभिक वर्षों से ही पारंपरिक तौर-तरीकों व माध्यमों को तोड़कर सरल व स्थूल बिम्बों के सहारे सामाजिक स्थितियों को अभिव्यक्त करने तथा कुछ नया रचने के प्रयास हो रहे हैं; जिसके चलते कला का परिप्रेक्ष्य काफी बदला है और बढ़ा भी है; कला में समाज और जीवन यद्यपि हमेशा ही रहे हैं, लेकिन परिप्रेक्ष्य बदलने के चलते समाज और जीवन ज्यादा डिटेल्स के साथ कला में मुखरित व अ

ए रामचंद्रन की कलाकृतियों की पुनरावलोकन प्रदर्शनी के नाम पर वढेरा ऑर्ट गैलरी के पदाधिकारियों के किए-धरे को लेकर बेंगलुरू के कलाकारों व कला प्रेमियों के बीच गहरी नाराजगी है

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बेंगलुरू की नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न ऑर्ट में पाँच अक्टूबर की शाम को ए रामचंद्रन की पुनरावलोकन प्रदर्शनी का ही उद्घाटन नहीं हुआ, बल्कि एक गंभीर विवाद का भी जन्म हुआ - जिस पर हालाँकि मिट्टी डालने के प्रयास भी शुरू हो गए हैं । विवाद का विषय यह है कि बड़ी निजी ऑर्ट गैलरियाँ किस चतुराई से सरकारी संसाधनों का मनमाने तरीके से इस्तेमाल करते हुए कलाकारों व कला प्रेमियों की उपेक्षा करते हुए अपने धंधे को बढ़ाने का उपक्रम करती हैं, और सरकारी संस्थाओं के पदाधिकारी उनके हाथों की कठपुतली बन कर रह जाते हैं । इस विवाद की शुरुआत का कारण यह आरोप बना कि पाँच अक्टूबर को हुए उद्घाटन समारोह तथा छह अक्टूबर को आयोजित हुए संवाद कार्यक्रम के निमंत्रण बेंगुलुरू के अधिकतर कला-प्रेमियों तथा कलाकारों को मिले ही नहीं, और इन दोनों आयोजनों में उन्हीं लोगों की भागीदारी हो पाई जो वढेरा ऑर्ट गैलरी के नजदीक या संपर्क में हैं - और जिनमें अधिकतर खरीदार किस्म के लोग थे । कहने को तो इस पुनरावलोकन प्रदर्शनी का आयोजन नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न ऑर्ट के बेंगलुरू केंद्र ने वढेरा ऑर्ट गैलरी के सहयोग से किया है, किंतु आयोजन

यूसुफ अरक्कल नहीं रहे !

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अपनी कलाकृतियों में अकेली मानव आकृतियों के रूप में एकाकीपन के विलक्षण रचयिता के रूप में पहचाने जाने वाले प्रसिद्ध चित्रकार यूसुफ अरक्कल ने आज अचानक अपनी देह छोड़ दी । अभी चार दिन पहले ही, 30 सितंबर को चेन्नई के नजदीक मुत्तुकाडु में 'फेसेस ऑफ क्रियेटिविटी' शीर्षक से दक्षिणा चित्रा म्यूजियम के सहयोग से लगाई गई उनके चित्रों की प्रदर्शनी संपन्न हुई थी, जिसे लेकर वह खासे उत्साहित थे । प्रगतिशील मूल्यों के मुखर समर्थक रहे यूसुफ अरक्कल अपने जीवट के साथ रचनात्मक प्रयोगधर्मिता के लिए सतत सक्रिय रहे । केरल के चवक्काड में 1945 में जन्में यूसुफ ने कला की शिक्षा बेंगलुरू में प्राप्त की और यहीं रह कर उन्होंने अपनी कला के मुहावरे को रचा और स्थापित किया । उनका मानना रहा कि अच्छी कला निजी अनुभवों पर आधारित होती है । एक बातचीत में उन्होंने कहा था, 'बेंगलुरू की सड़कों पर आवारगी करते हुए मैंने जो भोगा था, एक चित्रकार के रूप में उसकी उपेक्षा कर पाना असंभव है ।' यूसुफ ने पूर्णरूपेण यथार्थवाद में काम करते हुए अपनी चित्रकृतियों की भाषा गढ़ी । यूसुफ की प्रेरणा व बौद्धिकता के स्रोत

महात्मा गाँधी ने कला को संवेदनात्मक सत्याग्रह कहा है

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गाँधी के विचारों और आदर्शों ने राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक पहलुओं को ही प्रभावित नहीं किया है - बल्कि कला सृजन को भी प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से आकर्षित किया है । गाँधी का जीवन सत्य, अहिंसा, सादगी और भाईचारे पर आधारित रहा है; इसलिए कला को लेकर भी उनके विचार सादगी, सरलता, जीवन्तता और जनमानस से सहज जुड़ने की प्रक्रिया के अनुकूल रहे हैं । उनका सहज विश्वास था कि 'जो व्यक्ति आकाश के सौंदर्य से स्पन्दित नहीं होता है उसमें किसी भी वस्तु से स्पंदित होने की क्षमता नहीं होती है ।' कला के प्रति उनके लगाव और सम्मान के सबसे बड़े उदाहरण के रूप में उस समय के प्रमुख और प्रसिद्ध कलाकार नन्दलाल बसु के साथ उनके संबंध और उनके विश्वास को देखा जा सकता है । 1936 में महाराष्ट्र के फैजपुर तथा 1938 में गुजरात के हरिपुरा में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में साज-सज्जा तथा प्रदर्शनी की सारी जिम्मेदारी नन्दलाल बसु पर छोड़ते हुए उन्होंने कहा था 'वे सृजनशील कलाकार हैं, जो मैं नहीं हूँ । ईश्वर ने मुझे कला की भावना तो दी है पर उसे मूर्त रूप देने की प्रतिभा प्रदान नहीं की है । नन्दलाल बसु को ईश्वर

अर्थपूर्ण सृजनात्मकता के जरिये मधुबनी चित्रकला की अनगढ़ता के सौंदर्य और सरलता के वैशिष्ट्य को श्वेता झा ने अपनी कला में जिस प्रभावी तरीके से साधा और अभिव्यक्त किया है, 'दिव्य शक्ति' पेंटिंग उसका एक अनूठा उदाहरण है

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मधुबनी कला की प्रखर चितेरी श्वेता झा की 'दिव्य शक्ति' शीर्षक पेंटिंग की तस्वीर देखते हुए मुझे लियोनार्दो दा विंची की एक प्रसिद्ध पंक्ति सहसा याद हो आई कि 'हमें जो दिखायी देता है, उस पर यक़ीन नहीं करना चाहिए; अपितु, जो दिखायी देता है उसे समझना चाहिए ।' श्वेता ने सिंगापुर में रहते हुए सिंगापुर की प्रगति को देखा, लेकिन जैसे ही उन्होंने इस प्रगति को समझने की कोशिश की - वैसे ही इस प्रगति के साथ छिपे 'अँधेरे' को भी उन्होंने पहचान लिया । हर देश और समाज ने प्रगति की कीमत चुकाई है; उसी तर्ज पर तमाम प्रगति के बावजूद सिंगापुर जिस तरह आत्महीन, स्मृतिहीन और व्यक्तित्वहीन इकाइयों का समूह बनता जा रहा है - उसी पर एक सचेत और संवेदनशील प्रतिक्रिया के रूप में श्वेता ने 'दिव्य शक्ति' को रचा है । कह सकते हैं कि 'दिव्य शक्ति' के रूप में श्वेता ने दरअसल अपने परिवेश को ही रचा है । किसी भी कलाकार का परिवेश बाहरी दुनिया का यथार्थ भर नहीं होता है, जिसमें वह जीता है; उसका परिवेश तभी बन पाता है जब वह अपना बाहरीपन छोड़ कर उसके भीतर जीने लगता  है । पिछले कुछेक व

मक़बूल फ़िदा हुसैन के अनुसार सृजन की दुनिया ऐसी है, जिसमें कुछ करने के मौके हमेशा मौजूद होते हैं

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आधुनिक भारतीय चित्रकला में निर्णायक परिवर्तन लाने वाले चुनिंदा चित्रकारों में एक अलग और विशेष पहचान रखने वाले मक़बूल फ़िदा हुसैन का आज 102वाँ जन्मदिन है । इस मौके पर उनको याद करना इसलिए भी प्रासंगिक और जरूरी लगता है, क्योंकि वह अपने समय की सच्ची आवाज़ थे । यह बिडंबना ही है कि भारतीयता के आग्रही और जीते जी एक किवदंती बन चुके इस महान कलाकार को अपने जीवन के अंतिम कुछेक वर्ष बेवतनी में गुजारने पड़े । निस्संदेह, कला जगत में आधुनिकता को भारतीय जमीन पर खड़ा करने में हुसैन का अप्रतिम योगदान है । समकालीन भारतीय कला जगत में हुसैन अकेले कलाकार नज़र आते हैं जिन्होंने ख़ुद को, अपनी संस्कृति के बीचोंबीच बहुत गहरे महसूस किया है, जिसका प्रतिफलन उनके चित्रों के रूप में हमारे सामने है । हुसैन, भारत की आजादी की लड़ाई के दौर में पली-बढ़ी तथा स्वतंत्रता के तुरंत बाद के दौर में सृजनात्मक रूप से सक्रिय हुई उस पीढ़ी के सबसे अग्रणी नामों में से हैं, जिसने अपने को पहचानते हुए, अपने पाँवों पर खड़े होते हुए एक राष्ट्र के रूप में भारत की संस्कृति को गढ़ा/रचा । उन्होंने भारतीय संस्कृति के वैविध्य को आत्मसात

विवान सुंदरम को समकालीन भारतीय कला की हत्या का जिम्मेदार ठहरा कर जॉनी एमएल समकालीन भारतीय कला के दूसरे प्रमुख कलाकारों को भी अपमानित करने का काम नहीं कर रहे हैं क्या ?

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कला समीक्षक जॉनी एमएल के लिखे हुए को मैं उत्सुकता और दिलचस्पी से पढ़ता रहा हूँ, और उनके लिखे हुए के प्रति मेरे मन में बहुत भरोसा और सम्मान रहा है । किंतु उन्होंने अपने एक नए लेख में जिस तरह से विवान सुंदरम को समकालीन भारतीय कला की हत्या के लिए जिम्मेदार ठहराया है, उसे देख/पढ़ कर मैं हैरान और क्षुब्ध हूँ । विवान समकालीन भारतीय कला में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं और अपनी कला के जरिए उन्होंने समकालीन राजनीतिक समय की जटिलताओं से जिस तरह से मुठभेड़ की है - उसके कारण उनकी कला यात्रा बहुत ही खास महत्त्व की हो जाती है । विवान आलोचना से परे नहीं हैं; उनके काम की और उनकी सक्रियताओं की आलोचना हो सकती है, खूब हुई भी है - लेकिन उन्हें भारतीय कला का हत्यारा कहना, मैं समझता हूँ कि उनके साथ ज्यादती तो है ही, बेबजह की सनसनी फैलाना भी है, जिसका तथ्यों/तर्कों से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं है । जॉनी एमएल ने विवान सुंदरम को निशाना बनाते हुए तर्क भी बड़े बचकाने से दिए हैं ! उनके जैसे व्यक्ति से इस तरह की बचकानी बातों की उम्मीद नहीं की जा सकती है । अब दिल्ली और मुंबई के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड

रजा का अपनी जड़ों के साथ संबंध मानो उनकी चेतना का स्थायी भाव था, जो उनकी कला की रंग-परतों के नीचे यूँ भी अंततःसलिल रही है

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सैयद हैदर रजा की इच्छानुसार उनका अंतिम संस्कार मध्य प्रदेश के बाबरिआ में किया जाएगा । मध्य प्रदेश के पूर्व-मध्य क्षेत्र के आदिवासी बहुल जिले मांडला के बाबरिआ में ही 1922 में उनका जन्म हुआ था । अपने कामकाजी जीवन का अधिकांश समय पेरिस में व्यतीत करने वाले रजा की यह इच्छा अपनी जड़ों से उनके जीवनग्राही व सहज संबंध होने की एक और अभिव्यक्ति है, जो उनकी कला की रंग-परतों के नीचे यूँ भी अंततःसलिल रही है । अपनी जड़ों के साथ उनका संबंध मानो उनकी चेतना का स्थायी भाव बना रहा था - जिसे वह अपने अंतिम संस्कार तक निभाना चाहते थे । अपनी रचना-यात्रा पर बात करते हुए उन्होंने कहा भी था : 'बचपन की जो स्मृति मेरे मन में सबसे गहरी बसी हुई है, वह है हिंदुस्तानी जंगल का आतंक और सम्मोहन । हम लोग नर्मदा नदी के उदगम के पास ही रहा करते थे, जो मध्यप्रदेश के सबसे घने जंगलों के बीचोंबीच था । उन बनैली रातों में, मैं चौतरफा मायावी आकृतियों और आवाजों से घिर जाता था । ऐसे में भी कभी-कभार आदिवासी गोंडों का नृत्य पास ही कहीं मनुष्य लोक के होने का आश्वासन रचता हुआ मन को राहत पहुँचाता था । पर सचमुच सुरक्

पाब्लो पिकासो की कविताएँ

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साहित्य अकादमी की द्वैमासिक पत्रिका 'समकालीन भारतीय साहित्य' ने विश्वविख्यात चित्रकार पाब्लो पिकासो के कवि-रूप से परिचित कराने का उल्लेखनीय काम किया है । पिकासो के जीवनीकारों ने बताया है कि 50 वर्ष की उम्र के बाद उन्होंने चित्रकारी को स्थगित करके कविता लिखने में दिलचस्पी ली थी और अनोखे व कल्पनाशील बिम्बों तथा प्रतीकों से युद्ध, आतंक व हिंसा के विद्रूपों को शब्द भी दिए थे । हालाँकि पिकासो के कवि-रूप को ज्यादा पहचान नहीं मिल सकी । फ्रेंच में लिखी/प्रकाशित पिकासो की कविताओं के उपलब्ध अंग्रेजी अनुवादों को हिंदी में शशिधर खान ने प्रस्तुत किया है, 'समकालीन भारतीय साहित्य' ने जिन्हें इस विश्वास के साथ प्रकाशित किया है कि इन्हें पढ़कर पाठक निश्चित ही रोमांचित होंगे । इन्हीं में से पाब्लो पिकासो की चार कविताएँ यहाँ पढ़ी जा सकती हैं :   ।। बिना खिड़की का लैंडस्केप ।।  उँगलियाँ झरने की  आपस में गुँथी  एक-दूसरे को जकड़े  फिर ढीली होकर उठ गईं  स्वर्ग की ओर  बिना जाने-समझे  स्वर्ग है क्या  बालूतट जैसे  हैं होंठ  उस पर है  एक मोती सीलन भरा  घु

'चाँद-रात' में रमा भारती अपनी कविताओं की तराश जिस तरह से करती हैं, उससे लगता है कि वह सिर्फ कवि ही नहीं हैं - असाधारण शिल्पी भी हैं

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'चनाब' और 'चिनार' के बाद 'चाँद-रात' शीर्षक से आए अपने तीसरे कविता संग्रह  में रमा भारती ने गहरी अनुभूतिशीलता, परिष्कृत सौंदर्यबोध और गरिमामय शिल्प की निरंतरता को जिस तरह से न सिर्फ बनाए रखा है, बल्कि उसे और समृद्ध किया है, उसे देखते हुए उनकी रचनाशीलता के प्रति अचरज व सम्मान सहज ही प्रकट होता है । कविता के शिल्प से रमा का व्यवहार हालाँकि लीक से बहुत हटकर है, और उनके वाक्यों का गठन इस क़दर अप्रचलित और नया सा दिखता है कि एकबारगी पढ़ते हुए रुकना-चौंकना पड़े; लेकिन फिर भी भाषा उनकी कविता में एक अंतर्धारा में चलती/बहती हुई ही दिखती है ।  प्रकृति के प्रति रमा के मन में गहरी संसक्ति है और उसके बहुत सारे दृश्य उन्होंने अपनी भाषा में साकार किए हैं - यों कि उनकी सूक्ष्मता और नैसर्गिकता अक्षुण्ण रहे ।  प्रकृति का सौंदर्य उन्हें कई बार इतना अलौकिक लगता है कि उससे वियुक्त किए जाने की संभावना भी उन्हें विषण्ण कर देती है और वह सहसा प्रकृति की धुन के गीत सुनने लगती हैं : 'जेठ की भड़कती भोर में  भट्टी-सी जलती रेत पर  जब दो आँखों से  मुलकता है बो नन्हा बीज