कोच्ची-मुज़िरिस बिएनाले में लॉन्च हो चुके जितिश कल्लट के मोनोग्राफ को इंडिया ऑर्ट फेयर में दोबारा लॉन्च करना कला और बाजार के पेचीदा रिश्ते में धोखाधड़ी को स्वीकार्यता मिलने का उदाहरण है क्या ?

31 जनवरी से नई दिल्ली में शुरू हो रहे इंडिया ऑर्ट फेयर के आयोजक भारतीय समकालीन कलाकार जितिश कल्लट पर प्रकाशित हुए मोनोग्राफ के लॉन्च के कार्यक्रम को लेकर विवाद में फँस गए हैं । इंडिया ऑर्ट फेयर के कार्यक्रमों की लिस्ट में 2 फरवरी को नेचर मोर्ते गैलरी द्वारा प्रकाशित जितिश कल्लट के मोनोग्राफ को लॉन्च करने का कार्यक्रम शामिल है । इस मामले में विवाद का मुद्दा यह है कि उक्त मोनोग्राफ तो लेकिन कोच्ची-मुज़िरिस बिएनाले में पहले ही लॉन्च हो चुका है । 12 दिसंबर को उद्घाटित हुए कोच्ची-मुज़िरिस बिएनाले के दूसरे ही दिन, यानि 13 दिसंबर को फोर्ट कोच्ची के कब्राल यार्ड के पवेलियन में उक्त मोनोग्राफ रिलीज हुआ और उसकी पहली प्रति कोच्ची के पूर्व मेयर के जे सोहन को सौंपी गई थी । सवाल यह पूछा जा रहा है कि करीब पचास दिन पहले ही लॉन्च हुए मोनोग्राफ को इंडिया ऑर्ट फेयर में दोबारा से क्यों लॉन्च किया जा रहा है ? इंडिया ऑर्ट फेयर के पास कार्यक्रमों की कमी है क्या, जो उसे दूसरे आयोजनों के कार्यक्रमों को इम्पोर्ट करना पड़ रहा है ? इंडिया ऑर्ट फेयर की पहचान एक बड़े अंतर्राष्ट्रीय कला मेले की है; स्वाभाविक रूप से उसके आयोजक भी व्यापक सोच, जानकारी और पहुँच रखने वाले लोग हैं । ऐसे में, इतनी बड़ी 'धोखाधड़ी' क्यों कर की जा रही है - कलाजगत के लोगों को यह सवाल हैरान कर रहा है । यह मामला वास्तव में इसलिए भी गंभीर बन गया है क्योंकि इंडिया ऑर्ट फेयर के साथ-साथ कोच्ची-मुज़िरिस बिएनाले, जितिश कल्लट, नेचर मोर्ते आदि की भी अंतर्राष्ट्रीय कला जगत में अपनी अपनी पहचान और प्रतिष्ठा है; इसलिए इस तरह की बेईमानियाँ इन सभी की  विश्वसनीयता व साख को चोट पहुँचाने का भी काम करेंगी । 
कला जगत के कुछेक अनुभवी लोगों का कहना लेकिन यह भी है कि कला जगत में इस तरह की बेईमानियाँ होती रहती हैं, और यह कोई बड़ी बात नहीं है । मेले के आयोजकों और गैलरीज के मालिकों के लिए सकता है कि इस तरह की बेईमानियाँ कोई बड़ी बात न हो, लेकिन एक कलाकार के लिए तो यह बड़ी बात होनी ही चाहिए । मेले के आयोजकों और गैलरीज के मालिकों को तो विश्वसनीयता व साख को पहुँची चोट की भरपाई करने का मौका मिल भी सकता है, किंतु कलाकार को वैसा मौका मिल पाना लगभग असंभव ही है । इसलिए कलाजगत के लोगों को हैरानी है कि जितिश कल्लट आखिर धोखाधड़ी की इस कार्रवाई का हिस्सा क्यों बने हैं ? इसका जबाव कला बाजार के दुष्चक्र में ही छिपा नजर आता है । दरअसल कला मेले अब कुल मिलाकर कला के बाजार की पहचान तक सिमटते जा रहे हैं, और इसमें कला को ही नहीं कलाकार को भी एक प्रोडक्ट की तरह पेश करना/होना पड़ता है और खुद कलाकार भी अपने आपको इसी तरह 'सजाता' है । कला को - पेंटिंग करना और या शिल्प गढ़ना - 'एकांत का तप' कहा/माना जाता रहा है; लेकिन कलाकार अब एकांत में नहीं रहना चाहता और वह यह सोच कर निश्चिंत नहीं रहना चाहता कि उसका काम अपना समय लेकर अपनी जगह और अपना प्रभाव बना लेगा । कला मेले उसे लगातार अपने महत्त्व के बारे में सजग करते रहते हैं और कलाकार के लिए भी उससे बाहर और या अलग रहना मुश्किल हो जा रहा है । हर मेले पर दूसरे मेले के आयोजक नजर रखते हैं और कलाकार की कामयाबी इससे आँकी जाती है कि वह आगे कितने आयोजनों में आमंत्रित किया जाता है, और या उस पर कितने कार्यक्रम होते हैं । ऐसे में, जितिश कल्लट चाहें जितने ही बड़े और कामयाब कलाकार हो गए हों, लेकिन कुछ ही दिन के भीतर अपने मोनोग्राफ के दोबारा लॉन्च किए जाने की धोखाधड़ी में शामिल उनकी भी 'मजबूरी' है - क्योंकि वह जान/समझ रहे हैं कि उसमें शामिल होने में ही उनकी 'भलाई' के रास्ते बने हैं ।
जैसा कि पहले कहा गया है कि कला जगत के 'अनुभवी' लोगों के लिए इस तरह की बेईमानी बड़ी बात नहीं है और इस तरह की बातें होती रहती हैं । कला-प्रकाशनों के संदर्भ में इनका तर्क है कि कला संबंधी पुस्तकों पर भारी खर्चा होता है, इसलिए बार बार उसका प्रमोशन करना जरूरी होता है, और फिर पुस्तक के प्रमोशन के बहाने कलाकार का भी प्रमोशन हो जाता है । अब जैसे जितिश कल्लट के संदर्भित मोनोग्राफ को ही लें - नताशा गिनवाला द्वारा संपादित इस मोनोग्राफ में खुद नताशा गिनवाला सहित रंजीत होसकोटे, गिरीश शहाणे, सुहण्या राफेल, दिलीप गाओंकर, ज्योति धर, बरनार्डो कस्ट्रप, शुमोन बसर आदि के जितिश की कला पर लिखे आलेखों के साथ साथ जितिश का एक विस्तृत इंटरव्यू प्रकाशित है; 376 पृष्ठों के इस मोनोग्राफ में जितिश के काम की 155 रंगीन तस्वीरें हैं; नेचर मोर्ते गैलरी के साथ इस मोनोग्राफ को तैयार करने/करवाने में गैलरी टेम्पलोन तथा चेमौल्ड प्रेस्कॉट रोड गैलरी का भी सहयोग रहा है और इसे मापिन प्रकाशन ने प्रकाशित किया है; तथा इसकी कीमत 3950 रुपए है । मामला सिर्फ इस मोनोग्राफ को बेचने भर का नहीं है; वास्तव में इसके प्रकाशन के पीछे मुख्य उद्देश्य कलाकार को प्रमोट करना और उसका बाजार बढ़ाना है । इसलिए यह मोनोग्राफ सिर्फ एक जगह और एक बार लॉन्च हो कर नहीं रह जायेगा । कला जगत के 'अनुभवी' लोगों का कहना है कि यह मोनोग्राफ अभी और जगह भी लॉन्च होगा । दरअसल कला और बाजार का रिश्ता खासा पेचीदा है । कला को बाजार मिले - बड़ा बाजार मिले, इससे भला कौन इंकार करेगा; लेकिन बाजार पाने की कोशिश में कला और कलाकार बाजार का गुलाम हो जाये, और बेईमानियाँ तक करने लगे - इसे कोई भी 'स्वीकार' नहीं करेगा । समस्या किंतु यह है कि बाजार और सृजनात्मकता की स्वतंत्रता के बीच की लकीर इतनी बारीक है कि पता ही नहीं चलता कि कब कलाकार और उसकी कला बाजार की गुलाम हो गई है । सफल होने और फिर उस 'सफलता' को बनाए रखने की चाह इतनी बलवती होती है कि फिर वह बारीक लकीर किसी को नहीं दिखती और वह बेमानी ही हो जाती है - और तब हर धोखाधड़ी स्वीकार्य हो जाती है ।  

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