पीरामल ऑर्ट फाउंडेशन में कला में दालों का पुनर्सृजन
किसी भी कला और या कलाकृति(यों) की
सार्थकता को पहचानने/चिन्हित करने/रेखांकित करने का बड़ा आम व साधारण सा
फार्मूला यह जाँच है कि वह हमारी अंतर्दृष्टि को अधिक व्यापक व संवेदनशील
बना रही है, या नहीं । इसी आधार पर, पीरामल ऑर्ट फाउंडेशन के तीन
सप्ताह के दालों पर आधारित रेजीडेंसी प्रोजेक्ट के बारे में सुना/पढ़ा तो
सहज जिज्ञासा हुई कि दालों को लेकर कला में भला क्या किया जा सकता है ? यूँ
तो दालें भारतीय खानपान व्यवस्था का एक जरूरी हिस्सा हैं - और इनकी कीमतों
ने सामाजिक, व्यावसायिक व राजनीतिक क्षेत्र में काफी उथल-पुथल भी मचाई है;
किंतु याद नहीं पड़ता कि दालों ने साहित्य और कला क्षेत्र का ध्यान कभी आकर्षित किया हो ।
पिछली शताब्दी के आरंभिक वर्षों से ही पारंपरिक तौर-तरीकों व माध्यमों को
तोड़कर सरल व स्थूल बिम्बों के सहारे सामाजिक स्थितियों को अभिव्यक्त करने
तथा कुछ नया रचने के प्रयास हो रहे हैं; जिसके चलते कला का परिप्रेक्ष्य
काफी बदला है और बढ़ा भी है; कला में समाज और जीवन यद्यपि हमेशा ही रहे हैं,
लेकिन परिप्रेक्ष्य बदलने के चलते समाज और जीवन ज्यादा डिटेल्स के साथ कला
में मुखरित व अभिव्यक्त हुए हैं । जीवन के साक्षात् अनुभवों को कला में
संभव बनाने के लिए बदलती उद्भावनाओं के साथ कला में प्रयोगशीलता के खासे
चमत्कार हुए हैं । इस चमत्कार के चलते कला जगत में एक नितांत नए संसार का
जन्म हुआ है, जो मौजूदा जीवन-व्यवस्था को झिंझोड़ता है, और उसे उसके
अधूरेपन का अहसास कराता है ।
इसीलिए पीरामल ऑर्ट फाउंडेशन ने जब दालों को ऑर्ट का विषय बनाने तथा दालों को कैनवस पर ट्रांसफर करने की योजना घोषित की, तो यह प्रोजेक्ट के लिए आमंत्रित कलाकारों के लिए भी एक चुनौती थी । हालाँकि एक कलाकार में खूबी ही यह होती है या होनी चाहिए कि वह दी हुई वस्तुओं में जो छिपा है या जो अन्तर्निहित है, उसे देख/पहचान ले तथा उसे उजागर करे - लेकिन फिर भी एक प्रोजेक्ट में तय समय-सीमा के भीतर दालों को कला में रूपांतरित करने की रचना-प्रक्रिया को संभव कर सकना चुनौतीपूर्ण तो होता ही है । प्रोजेक्ट की क्यूरेटर रेखा समीर ने भी माना कि हमारे दैनिक जीवन की जरूरतों को पूरा करती ऐसी बहुत सी चीजें हैं, जिन्हें जरूरत से परे किसी अन्य रूप में हम देख ही नहीं पाते हैं । दालें भी ऐसी ही चीज है । हालाँकि खेत से शुरू होकर कटोरी तक पहुँचने की इसकी यात्रा में बहुत से रोमांचक क्षण हो सकते हैं, जिनका कला के नजरिए से पुनर्सृजन दिलचस्प तो होगा - लेकिन कैसा होगा, यह कलाकार की कल्पनाशक्ति व रचनात्मक क्षमता पर निर्भर करेगा । क्यूरेटर के रूप में रेखा समीर ने आमंत्रित कलाकारों को सिर्फ इतना संकेत दिया कि दालों को कलाभिव्यक्ति का विषय बनाने से पहले वह दालों की फसल को उगाने वाले किसानों, दाल मिलों के मालिकों तथा उनके मजदूरों, दाल बेचने वाले व्यापारियों तथा हैसियत-अनुसार अलग अलग दालों के खरीदारों का ध्यान कर लें; क्योंकि भारत में दालों की कहानी वास्तव में भारतीय समाज के वर्गीय चरित्र की कहानी भी है ।
'पीरामल ऑर्ट रेजीडेंसी साईकल 6' के तहत तीन सप्ताह में हुए/किए गए काम की मुंबई के नेहरु साइंस सेंटर में लगी प्रदर्शनी में कलाकारों द्धारा बनाई गईं पेंटिंग्स हैं और कुछेक छोटे छोटे संस्थापन हैं । यहाँ प्रदर्शित संस्थापनों ने प्रसिद्ध चित्रकार व मूर्तिकार वेद नायर के पाँचवी भारतीय त्रिवार्षिकी में प्रदर्शित 'मैनकाइंड 2011 एन ऑल्टरनेटिव' शीर्षक संस्थापन की याद दिला दी - जिसके एक हिस्से में बाक़ायदा धान का एक छोटा सा खेत उगाया गया था । प्रदर्शनी के दौरान पौधे हर रोज बढ़ रहे थे, जो हवा लगने पर हिलते/लहराते किसी राग के साथ लयकारी सी करते महसूस होते थे । इस तरह की कला के साथ तादात्म्य स्थापित करने के लिए सबसे पहली जरूरत तो स्वीकृत तरीके की कला-अभिव्यक्तियों के असर से मुक्त होने की ही है; और साथ ही इस सच्चाई को समझने/पहचानने की है कि जीवन का रहस्य इस बात में छिपा रहता है कि हम उसे जितना जीते हैं, उतनी ही उसकी उत्सवधर्मिता और दूसरे 'सामूहिक' अर्थ अपने-आप प्रकट होने लगते हैं ।
इसीलिए पीरामल ऑर्ट फाउंडेशन ने जब दालों को ऑर्ट का विषय बनाने तथा दालों को कैनवस पर ट्रांसफर करने की योजना घोषित की, तो यह प्रोजेक्ट के लिए आमंत्रित कलाकारों के लिए भी एक चुनौती थी । हालाँकि एक कलाकार में खूबी ही यह होती है या होनी चाहिए कि वह दी हुई वस्तुओं में जो छिपा है या जो अन्तर्निहित है, उसे देख/पहचान ले तथा उसे उजागर करे - लेकिन फिर भी एक प्रोजेक्ट में तय समय-सीमा के भीतर दालों को कला में रूपांतरित करने की रचना-प्रक्रिया को संभव कर सकना चुनौतीपूर्ण तो होता ही है । प्रोजेक्ट की क्यूरेटर रेखा समीर ने भी माना कि हमारे दैनिक जीवन की जरूरतों को पूरा करती ऐसी बहुत सी चीजें हैं, जिन्हें जरूरत से परे किसी अन्य रूप में हम देख ही नहीं पाते हैं । दालें भी ऐसी ही चीज है । हालाँकि खेत से शुरू होकर कटोरी तक पहुँचने की इसकी यात्रा में बहुत से रोमांचक क्षण हो सकते हैं, जिनका कला के नजरिए से पुनर्सृजन दिलचस्प तो होगा - लेकिन कैसा होगा, यह कलाकार की कल्पनाशक्ति व रचनात्मक क्षमता पर निर्भर करेगा । क्यूरेटर के रूप में रेखा समीर ने आमंत्रित कलाकारों को सिर्फ इतना संकेत दिया कि दालों को कलाभिव्यक्ति का विषय बनाने से पहले वह दालों की फसल को उगाने वाले किसानों, दाल मिलों के मालिकों तथा उनके मजदूरों, दाल बेचने वाले व्यापारियों तथा हैसियत-अनुसार अलग अलग दालों के खरीदारों का ध्यान कर लें; क्योंकि भारत में दालों की कहानी वास्तव में भारतीय समाज के वर्गीय चरित्र की कहानी भी है ।
'पीरामल ऑर्ट रेजीडेंसी साईकल 6' के तहत तीन सप्ताह में हुए/किए गए काम की मुंबई के नेहरु साइंस सेंटर में लगी प्रदर्शनी में कलाकारों द्धारा बनाई गईं पेंटिंग्स हैं और कुछेक छोटे छोटे संस्थापन हैं । यहाँ प्रदर्शित संस्थापनों ने प्रसिद्ध चित्रकार व मूर्तिकार वेद नायर के पाँचवी भारतीय त्रिवार्षिकी में प्रदर्शित 'मैनकाइंड 2011 एन ऑल्टरनेटिव' शीर्षक संस्थापन की याद दिला दी - जिसके एक हिस्से में बाक़ायदा धान का एक छोटा सा खेत उगाया गया था । प्रदर्शनी के दौरान पौधे हर रोज बढ़ रहे थे, जो हवा लगने पर हिलते/लहराते किसी राग के साथ लयकारी सी करते महसूस होते थे । इस तरह की कला के साथ तादात्म्य स्थापित करने के लिए सबसे पहली जरूरत तो स्वीकृत तरीके की कला-अभिव्यक्तियों के असर से मुक्त होने की ही है; और साथ ही इस सच्चाई को समझने/पहचानने की है कि जीवन का रहस्य इस बात में छिपा रहता है कि हम उसे जितना जीते हैं, उतनी ही उसकी उत्सवधर्मिता और दूसरे 'सामूहिक' अर्थ अपने-आप प्रकट होने लगते हैं ।
'पीरामल
ऑर्ट रेजीडेंसी साईकल 6' में प्रदर्शित कामों के रचयिताओं ने दालों और
दालों की 'यात्रा' को जिस तरह देखा और प्रस्तुत किया है, वह अपने आप में
खासा रोमांचक परिदृश्य बनाता है । इस प्रोजेक्ट में काम करने वाले कलाकार
अभी अपनी कलायात्रा के आरंभिक वर्षों में ही हैं और अपनी पढ़ाई पूरी करने के
बाद उन्होंने दो से चार प्रोजेक्ट्स में काम किया है । ओडिसा के
दिग्बिजयी खटुआ ने एमएफए नई दिल्ली के कॉलिज ऑफ ऑर्ट से किया है, और वह
पेंटिंग से लेकर मिक्स्ड मीडिया व संस्थापन तथा थ्री डी क्राफ्ट में काम
करते हैं । गोवा के सागर नाइक मुले हाल के वर्षों में मुंबई, चंडीगढ़ व
हैदराबाद के ऑर्ट रेजीडेंस में काम कर चुके हैं तथा खासकर वुड के साथ
मिक्स्ड मीडिया में काम करने में दिलचस्पी रखते हैं । हैदराबाद से
एमएफए समीर मोहंती ऑर्गेनिक विषयों पर मिक्स्ड मीडिया में काम करने के
अभ्यस्त हैं । मुजफ्फरपुर की अदिति रमन मिक्स्ड मीडिया में काम करती हैं और
वह नई दिल्ली की निव ऑर्ट सेंटर के रेजीडेंस में काम कर चुकी हैं । पश्चिम
बंगाल के सर्बन चौधरी सिरेमिक शिल्प में काम करते हैं, और हाल के वर्षों
में चंडीगढ़ व बडोदरा के ऑर्ट रेजीडेंस में काम कर चुके हैं । मुंबई की रेखा
समीर कुछेक वर्ष सिंगापुर में रहने के बाद अब लंदन में जा बसी हैं, और
अलग-अलग देशों में कई ऑर्ट प्रोजेक्ट्स को क्यूरेट कर चुकी हैं ।
नेहरु साइंस सेंटर में लगी प्रदर्शनी के कुछेक दृश्य :
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