यूसुफ अरक्कल नहीं रहे !

अपनी कलाकृतियों में अकेली मानव आकृतियों के रूप में एकाकीपन के विलक्षण रचयिता के रूप में पहचाने जाने वाले प्रसिद्ध चित्रकार यूसुफ अरक्कल ने आज अचानक अपनी देह छोड़ दी । अभी चार दिन पहले ही, 30 सितंबर को चेन्नई के नजदीक मुत्तुकाडु में 'फेसेस ऑफ क्रियेटिविटी' शीर्षक से दक्षिणा चित्रा म्यूजियम के सहयोग से लगाई गई उनके चित्रों की प्रदर्शनी संपन्न हुई थी, जिसे लेकर वह खासे उत्साहित थे । प्रगतिशील मूल्यों के मुखर समर्थक रहे यूसुफ अरक्कल अपने जीवट के साथ रचनात्मक प्रयोगधर्मिता के लिए सतत सक्रिय रहे । केरल के चवक्काड में 1945 में जन्में यूसुफ ने कला की शिक्षा बेंगलुरू में प्राप्त की और यहीं रह कर उन्होंने अपनी कला के मुहावरे को रचा और स्थापित किया । उनका मानना रहा कि अच्छी कला निजी अनुभवों पर आधारित होती है । एक बातचीत में उन्होंने कहा था, 'बेंगलुरू की सड़कों पर आवारगी करते हुए मैंने जो भोगा था, एक चित्रकार के रूप में उसकी उपेक्षा कर पाना असंभव है ।' यूसुफ ने पूर्णरूपेण यथार्थवाद में काम करते हुए अपनी चित्रकृतियों की भाषा गढ़ी ।
यूसुफ की प्रेरणा व बौद्धिकता के स्रोत केरल में ही थे । मलयाली साहित्य के साथ उनका गहरा जुड़ाव रहा ।
अपने बौद्धिक विकास में एमटी, वशीर, विजयन, मुकुंदन आदि प्रख्यात मलयाली लेखकों के योगदान को उन्होंने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया । वाम राजनीति व विचारधारा के प्रति उनके रूझान ने भी उनकी कला को प्रभावित किया, जिसके परिणामस्वरूप उनके चित्रों में सामाजिक प्रसंगों व घटनाओं ने अभिव्यक्ति पाई । पेंटिंग में वह ज्यादा रंगों के इस्तेमाल के खिलाफ थे । उनका मानना और कहना था कि ज्यादा रंग - संयोजन व विषय को उलझा देते हैं । उनका कहना था कि बीस रंगों का एक साथ प्रयोग करके चित्र में 'ब्राउन' रंग बनाया तो जा सकता है, पर क्यों न सीधे 'ब्राउन' का प्रयोग कर बीस रंगों के प्रभाव को उजागर किया जाए । 
उनकी कुछेक पेंटिंग्स की तस्वीरें :






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