पाब्लो पिकासो की कविताएँ
साहित्य अकादमी की द्वैमासिक पत्रिका 'समकालीन भारतीय साहित्य' ने
विश्वविख्यात चित्रकार पाब्लो पिकासो के कवि-रूप से परिचित कराने का
उल्लेखनीय काम किया है । पिकासो के जीवनीकारों ने बताया है कि 50 वर्ष की
उम्र के बाद उन्होंने चित्रकारी को स्थगित करके कविता लिखने में दिलचस्पी
ली थी और अनोखे व कल्पनाशील बिम्बों तथा प्रतीकों से युद्ध, आतंक व हिंसा
के विद्रूपों को शब्द भी दिए थे । हालाँकि पिकासो के कवि-रूप को ज्यादा
पहचान नहीं मिल सकी । फ्रेंच में लिखी/प्रकाशित पिकासो की कविताओं के
उपलब्ध अंग्रेजी अनुवादों को हिंदी में शशिधर खान ने प्रस्तुत किया है,
'समकालीन भारतीय साहित्य' ने जिन्हें इस विश्वास के साथ प्रकाशित किया है
कि इन्हें पढ़कर पाठक निश्चित ही रोमांचित होंगे । इन्हीं में से पाब्लो
पिकासो की चार कविताएँ यहाँ पढ़ी जा सकती हैं :
।। बिना खिड़की का लैंडस्केप ।।
उँगलियाँ झरने की
आपस में गुँथी
एक-दूसरे को जकड़े
फिर ढीली होकर उठ गईं
स्वर्ग की ओर
बिना जाने-समझे
स्वर्ग है क्या
बालूतट जैसे
हैं होंठ
उस पर है
एक मोती सीलन भरा
घुटता है दम वहाँ
झरने से गिर रहे हैं
काले-नीले आँसू
स्मृति मर रही है
आहिस्ता आहिस्ता
हर चेहरे के आगे
एक प्लेट है अटका
कहता है मैं हूँ कौन ?
जंगल के धूल भरे पत्तों के
नए ताजे नंगे पैर
टिके हैं चंद्रमा की ओर
सब समाए हैं
उसी चंद्रमा में
प्यार और खामोशी का
मैंने किया कायाकल्प शब्दों में
जो बोल नहीं सकते
उसे लिख डाला
पूरी दुनिया को एक बिंदु पर
मैंने खड़ा कर दिया ।
।। संतरे दक्षिणी स्पेन के ।।
रात के फंदे में लटके तारे
छोड़ जाते हैं सूखी धारियाँ
रतजगे से बेचैन लाल आँखें
झपक रही हैं बालकनी में
इतनी अलसायी उनींदी
कि खुल नहीं पा रहीं
राजी हैं
किसी भी अवस्था के लिए
ताकि क़ायम रहे रंग
गलियों में दौड़ते जा रहे
बच्चों के झुंड
न डर है, न फिकर
हर चेहरे के सामने है
चंद्रमा की थाली
कौन हूँ मैं
मेरी पहचान क्या है
कहते दौड़ते गलियों से
गुजर रहे हैं बच्चे
भवनों की परछाइयाँ
हिलाती हैं जड़ें पेड़ों की
फिर छोड़ देती हैं
घुप्प अँधेरे में अकेले
खड़ी स्थिर जड़वत्
अफसोस की आवाज़ें
देती हैं तसल्ली
अँधेरी रात में
चिल्लाते
पंखवाले कीड़े की तरह
संतरे होते हैं बड़े स्वादिष्ट
नाजुक और कोमल
नफ़ासत से गिरते हैं धीरे-धीरे
बागों में
पहाड़ों पर
खाती है धरती प्रेम से
निगल जाती है सारे
गोया धरती न हो
साँप हो
जैसे गुज़र रहा है
काफ़िलों का सिलसिला
फिसलते घिसटते
चक्कर पे चक्कर खाते
ले रहा है जायजा
संतरे जमीन पर गिरने का
पेड़ों की कतारों में शिकारी
कर रहा है घेराबंदी
हर शहर के चारों ओर ।
।। समुद्र पर एक दृष्टि ।।
सूरज ढल रहा है
पुआल से बने हैट के नीचे
जैसे छिपता हो समुद्र में
कहता है
मेरे पास वक़्त नहीं
शाम होने तक रुकने का
लेकिन मिलने का वादा
जिसने किया था
उसका कुछ अता-पता नहीं
खुली हवा में ज़िंदगी
मैं सुन रहा हूँ
दूसरे समुद्र को
मछली की गहराई में
तुम गेंद से खेलो
बिना उस पर शक किए
कभी कभी सूरज
जाता है नीचे
उसी लहर से गुजर कर
जो तट से दूर नहीं होती ।
['समुद्र
पर एक दृष्टि' शीर्षक यह कविता 1937 में स्पेन के बार्सीलोना पर नाज़ी
बमबारी के बाद लिखी गई थी । शहर के मुख्यालय गुयेरनिका की हृदयविदारक
विनाशलीला चित्र श्रृंखला 'गुयेरनिका पेंटिंग्स' के नाम से मशहूर है ।
कविता के मुख्य पात्र पिकासो स्वयं हैं ।]
।। कलाकार और उसका मॉडेल ।।
बिना सितारों वाले
सूने आकाश को
अपने ख़ाली ख़ाली हृदय से
देखो
लेकिन मगन रहो
अपनी धुन में
अटके रहो आँखों के सामने
मेरी कल्पना
छोड़ दो उसे खड़ी, ठिठकी
बिना कुछ बोले
निहारते रहो
नहीं देख सकते तुम
मगर मैं इसी तरह
अलग करता हूँ
दिन को रात से ।
इस रूप में हमें रूबरू करवाने के लिए आपका आभार|
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