जब हम प्रकृति को देखते हैं तब क्या हम प्रकृति को देखते भी हैं ?
पद्मश्री हकु शाह कला
और अध्यात्म को पर्याय मानते हुए यकीन करते हैं कि कला दरअसल आध्यात्मिकता
का उजागर होना है । अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफोर्निया में प्रोफ़ेसर
रहे हकु शाह ने बड़ौदा की एमएस यूनिवर्सिटी से कला की औपचारिक शिक्षा
प्राप्त की है । हालाँकि वह मानते हैं कि रचना आत्मबोध है, और इसे तर्क के परास में महदूद नहीं किया जा सकता है । उन्होंने
कहा है कि वह बहुत छुटपन से ही हरेक जगह व स्थिति में चित्र देखा करते थे,
और संसार को वह इसी भांति देखते रहे हैं । 1934 में गुजरात में सूरत जिले
के गाँव वालोड में जन्मे हकु शाह ने देश-विदेश की कई कला-परियोजनाओं की
संकल्पना व रचना में केंद्रीय भूमिका निभाई है, जिसके चलते उन्हें
देश-विदेश के महान कला-चिंतकों तथा विद्धानों के साथ काम करने का मौका मिला
। दुनिया की प्रतिष्ठित कलादीर्घाओं में अपने चित्रों की एकल
प्रदर्शनियाँ कर चुके हकु शाह को पीयूष दईया ने 'स्वधर्म में जीने - सांस
लेने वाले एक आत्मशैलीकृत व प्रतिश्रुत आचरण-पुरुष' के रूप में पहचाना है,
'जिनकी विरल उपस्थिति का आलोक जीवन के सर्जनात्मक रास्ते को उजागर करता है
।' पीयूष दईया ने सेंटर फॉर मीडिया एंड अल्टरनेटिव कम्यूनिकेशंस के लिए
हकु शाह से उनके कृतित्व व व्यक्तित्व पर करीब छह माह बात की । उस बातचीत
में हकु शाह ने जो कहा, उसे 'मानुष' शीर्षक से प्रकाशित किताब में
प्रस्तुत किया गया है । हकु शाह के कहे हुए का एक प्रमुख अंश यहाँ प्रस्तुत
है :
हम प्रकृति को देखते हैं पर देखते नहीं हैं ।
यूँ हमारे नहीं देखने में जो घटक काम कर रहे होते हैं, उनमें ऐसा नहीं है कि हम देखने से बाहर हैं या हमें देखना नहीं है लेकिन कई बातों सहित बहुत कुछ हमने इस तरह मान लिया व संस्कारित कर लिया है कि उसमें फिर वह चीज़ रह जाती है जिसे हमारे देखने में होना चाहिए । दरअसल हम चारों ओर सौंदर्य से घिरे हैं - देखने के लिए आँख चाहिए । प्रकृति एक ऐसा विरल उपहार है, जिसमें लगता है कि प्रकृति का आनंद देने में छिपा है और मनुष्य का आनंद इसे लेने में, लेकिन जब दोनों सुपात्र हों तब लेना-देना दोनों अच्छा है । लेकिन लेना क्या इतना सरल है ? गहरी पात्रता चाहिए न ! विनयता व मानव-मूल्य बिना भला यह कैसे संभव है ?
बल्कि स्व के उजागर होने में ही देखना छिपा है !
अब आँखों को ही लें जो देखने के लिए हैं लेकिन हम देखते नहीं हैं । देखने में इतने ज़्यादा अवयव शरीक हैं कि आप जन्मों तक उन पर वार्ता करते रह सकते हैं लेकिन ज़रा ग़ौर करें कि क्या हम देखते हैं ? इसमें स्वयमेव उनका वरण हो जाता है जिन्हें हम देखते हैं । दूसरा देखना वह है जिसे हम देखते नहीं, देख नहीं पाते क्योंकि संस्कृति, संस्कार, इतिहास, स्मृति वग़ैरह आड़े आ जाती है जिसमें चीज़ें हम तक इस तरह आती हैं कि वे बंट जाती हैं; जहाँ कुछ खास चीज़ों को आपको इतना व यूँ दिखाया व आपके माथे में बिठा दिया जाता है कि देखना ही शेष नहीं रह पाता या इतना कम दिखाया व बरज लिया जाता है कि आपका देखना अंखुआ ही नहीं पाता । फिर देखने के अमूर्त रूपों में ध्वनि वग़ैरह को हम खयाल में ही नहीं लेते - जबकि ध्वनि को सुनने सहित उसे देखना भी एक कलाकार के लिए जरूरी है बल्कि हर संवेदनशील प्राणी के लिए । स्व-जीव को पहचानना अपरिहार्य है ।
उदाहरण के लिए आप कौवे को लें ।
हम कहते हैं कि कौवा धूर्त होता है या ऐसा होता है या वैसा होता है, जिसके चलते फिर आप इतने सबल नहीं रह जाते कि उसे देख सकें; जबकि कौवे के काले रंग और प्रकाश व छाँव में उसकी tonal value कितनी मूल्यवान है । मैं भूल नहीं सकता वे क्षण जब मैंने दिल्ली में अपने बेटे के घर की खिड़की से दिखते बागीचे में एक फिसलपट्टी पर एक कौवे को ठीक वैसे ही करते देखा जैसे बच्चे करते हैं - फिसलपट्टी पर फर्र से उतरते हैं फिर चढ़ते हैं फिर उतरते हैं । मुझे नहीं पता, वह कौवा यह क्यों कर रहा था । हो सकता है, हमारे मन से वह खेल रहा था शायद । कौवे से जुड़े सारे नकारात्मक सिलसिलों को पहचानते हुए ही हम कौवे को देखने की कोशिश कर सकते हैं - उसके सारे रूपों को और यह बात अन्य सब कुछ के लिए भी रहती है ।
हम प्रकृति को देखते हैं पर देखते नहीं हैं ।
यूँ हमारे नहीं देखने में जो घटक काम कर रहे होते हैं, उनमें ऐसा नहीं है कि हम देखने से बाहर हैं या हमें देखना नहीं है लेकिन कई बातों सहित बहुत कुछ हमने इस तरह मान लिया व संस्कारित कर लिया है कि उसमें फिर वह चीज़ रह जाती है जिसे हमारे देखने में होना चाहिए । दरअसल हम चारों ओर सौंदर्य से घिरे हैं - देखने के लिए आँख चाहिए । प्रकृति एक ऐसा विरल उपहार है, जिसमें लगता है कि प्रकृति का आनंद देने में छिपा है और मनुष्य का आनंद इसे लेने में, लेकिन जब दोनों सुपात्र हों तब लेना-देना दोनों अच्छा है । लेकिन लेना क्या इतना सरल है ? गहरी पात्रता चाहिए न ! विनयता व मानव-मूल्य बिना भला यह कैसे संभव है ?
बल्कि स्व के उजागर होने में ही देखना छिपा है !
अब आँखों को ही लें जो देखने के लिए हैं लेकिन हम देखते नहीं हैं । देखने में इतने ज़्यादा अवयव शरीक हैं कि आप जन्मों तक उन पर वार्ता करते रह सकते हैं लेकिन ज़रा ग़ौर करें कि क्या हम देखते हैं ? इसमें स्वयमेव उनका वरण हो जाता है जिन्हें हम देखते हैं । दूसरा देखना वह है जिसे हम देखते नहीं, देख नहीं पाते क्योंकि संस्कृति, संस्कार, इतिहास, स्मृति वग़ैरह आड़े आ जाती है जिसमें चीज़ें हम तक इस तरह आती हैं कि वे बंट जाती हैं; जहाँ कुछ खास चीज़ों को आपको इतना व यूँ दिखाया व आपके माथे में बिठा दिया जाता है कि देखना ही शेष नहीं रह पाता या इतना कम दिखाया व बरज लिया जाता है कि आपका देखना अंखुआ ही नहीं पाता । फिर देखने के अमूर्त रूपों में ध्वनि वग़ैरह को हम खयाल में ही नहीं लेते - जबकि ध्वनि को सुनने सहित उसे देखना भी एक कलाकार के लिए जरूरी है बल्कि हर संवेदनशील प्राणी के लिए । स्व-जीव को पहचानना अपरिहार्य है ।
उदाहरण के लिए आप कौवे को लें ।
हम कहते हैं कि कौवा धूर्त होता है या ऐसा होता है या वैसा होता है, जिसके चलते फिर आप इतने सबल नहीं रह जाते कि उसे देख सकें; जबकि कौवे के काले रंग और प्रकाश व छाँव में उसकी tonal value कितनी मूल्यवान है । मैं भूल नहीं सकता वे क्षण जब मैंने दिल्ली में अपने बेटे के घर की खिड़की से दिखते बागीचे में एक फिसलपट्टी पर एक कौवे को ठीक वैसे ही करते देखा जैसे बच्चे करते हैं - फिसलपट्टी पर फर्र से उतरते हैं फिर चढ़ते हैं फिर उतरते हैं । मुझे नहीं पता, वह कौवा यह क्यों कर रहा था । हो सकता है, हमारे मन से वह खेल रहा था शायद । कौवे से जुड़े सारे नकारात्मक सिलसिलों को पहचानते हुए ही हम कौवे को देखने की कोशिश कर सकते हैं - उसके सारे रूपों को और यह बात अन्य सब कुछ के लिए भी रहती है ।
फिलेल्डेल्फिया में
हेलेन नाम की एक महिला मेरी मित्र हैं । वे वहां एक गैलरी की मालकिन हैं ।
उन्होंने एक मर्तबा मुझे अपने उधर के मिट्टी की सफ़ेद कृतियां बनाने वाले एक
नामचीन कलाकार से भेंट करवाई । उनका नाम रूडोल्फ था । रूडोल्फ से जब मिलना
हुआ तब उससे पहले हेलेन ने एक बार मुझे रूडोल्फ की बनाई हुई एक बहुत सुंदर
कृति दिखाकर उसके बारे में मेरी राय जाननी चाही थी । कृति मुझे इतनी
सुंदर, बिलकुल मूर्तिशिल्प-सी लगी कि मैंने उनसे इसे बनाने वाले
मृत्तिका-शिल्पी से मिलने की अपनी इच्छा जाहिर की । हेलेन ने फ़ौरन कहा कि
अभी मिलवाती हूँ । यूं रूडोल्फ से मेरी भेंट हुई । उनके शिल्प में
वस्तु की दीवालें काफ़ी पतली और बहुत ही पारदर्शी सफ़ेद से आकार लेती थीं ।
यह सफ़ेद उनके शिल्पों को अद् भुत तरह से आलोकित करता जान पड़ता था । अमेरिका
में कई अच्छे मृत्तिका-शिल्पी हैं, लेकिन रूडोल्फ के काम की अपनी अलग पहचान है । वे एक अनुभव-समृद्ध व मिट्टी से प्यार करने वाले कलाकार व इंसान है ।
हमने
सोचा कि क्यों न हम उनका काम व स्टूडियो देखने जाये जो फिलेल्डेल्फिया से
करीब पचास मील दूर कहीं एक छोटे-से कस्बे में था जहां घर बस गिनती के ही थे
। अपनी कार में बिठाकर रूडोल्फ मुझे, मेरी पत्नी वीलू और हेलेन को अपने
स्टूडियो ले जा रहे थे । रास्ते में हमारे साथ-साथ बाजू में एक सुंदर
नदी भी बहती चली जा रही थी जिसे देखते हुए मुझे कुछ-कुछ होता रहा लेकिन मैं
बोला कुछ नहीं, उस समय चुप रहा लेकिन जब हम उनका स्टूडियो देखकर लौट रहे
थे तो वापसी में रास्ते के बाजू में बह रही उसी नदी को फिर से देख कर इस
बार मुझसे रहा न गया । मैंने रूडोल्फ से कहा, 'क्या आप नदी नहीं देखना
चाहेंगे ?' मेरी इस सहज इच्छा पर उन्हें शायद घोर आश्चर्य हुआ क्योंकि
उन्होंने पलट कर मुझसे पूछा, 'क्या सचमुच आप नदी देखना चाहते हैं ?' मेरा
जवाब था, 'हां ।'
वहीं बगल में गाड़ी खड़ी कर हम नदी के पास
पहुंचे । उसे देखने लगे । मैंने गौर किया कि वहां कुछ बच्चे कांटा डाल कर
मछली वग़ैरह भी पकड़ रहे थे जिनसे वीलू बातें करने लगी थी । बहती हुई नदी को देखना मुझे बहुत भाता है और अपने ही रूप में जब वह होती है तो क्या कहने !
यहां हमारे अहमदाबाद में साबरमती नदी है और वहां वह बाजू में प्रवहमान थी ।
मुझे ऐसा प्रतीत हुआ मानो मैंने नदी को अपने आगोश में ले लिया हो । इस
दरमियान तभी जब मेरा ध्यान उन मृत्तिका-शिल्पी महोदय की ओर गया, वे बेहद
भावविह्वल हो लगभग कृतज्ञ-सा महसूस करते हुए बोले, 'मैं रोज़ लगभग बीस सालों
से इसी रास्ते से हो कर जाता-आता रहा हूँ । यह नदी हमेशा से ही हमारे
सामने बहती रही है लेकिन कभी यह कौंधा नहीं कि इसके पास जाएं, इससे गुफ्तगू
करें । आज इससे मिल रहा हूं, मानो मेरे अंदर सब कुछ हिलोर लेते हुए बदल सा
रहा है । यों जानता था मगर पता आज ही चला कि नदी के पास आना भी एक विरल व
अलौकिक अनुभव से गुजरने जैसा है ।'
मेरे लिए नदी अपने आप
में एक गतिमान देन का पर्याय है । कभी-कभी लगता है कि समाज ने इसे भूल से
बांध दिया है । फिर भी आखिर तो नदी है न !
कुदरत के साथ हम यह कर रहे हैं कि उसे पूरी तरह भुला बैठे हैं जबकि कितना कुछ है उसमें । हमारी गोद में ।
मुझे
हमेशा यह लगता रहा है कि एक चित्र या कविता या कोई भी चीज़ - क्योंकि हरेक
चीज़ में कुछ ऐसा है जो सत्य के नज़दीक है - जिसमें रस व शक्ति है, वह देखने
वाले को, भावक को जरूर छू सकती है । हर चीज़ की अपनी एक रचनात्मक शक्ति होती
है जो उसमें सतत प्रवाहित रहती है । आप एक बच्चे को देखें कि वह कैसे
किसी भी वस्तु के साथ खेलता है : उसका यह खेलना कितना निर्दोष है जिसमें
सुंदर-असुंदर से लेकर तमाम तरह की धारणाएं कहीं भी आड़े नहीं आतीं, वे उसके
सिर पर नहीं बैठ जातीं । बस, चीजों को देखने, सुनने, अनुभूत करने का
हमारा रास्ता साफ़ व पारदर्शी होना चाहिए । मूल बात है, वह आत्म जो चीज़ों को
जान रहा व विश्लेषित कर रहा है, खुला होना चाहिए ।
रचनारम्भ का उत्स भी यही है ।
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