महात्मा गाँधी ने कला को संवेदनात्मक सत्याग्रह कहा है

गाँधी के विचारों और आदर्शों ने राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक पहलुओं को ही प्रभावित नहीं किया है - बल्कि कला सृजन को भी प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से आकर्षित किया है । गाँधी का जीवन सत्य, अहिंसा, सादगी और भाईचारे पर आधारित रहा है; इसलिए कला को लेकर भी उनके विचार सादगी, सरलता, जीवन्तता और जनमानस से सहज जुड़ने की प्रक्रिया के अनुकूल रहे हैं । उनका सहज विश्वास था कि 'जो व्यक्ति आकाश के सौंदर्य से स्पन्दित नहीं होता है उसमें किसी भी वस्तु से स्पंदित होने की क्षमता नहीं होती है ।' कला के प्रति उनके लगाव और सम्मान के सबसे बड़े उदाहरण के रूप में उस समय के प्रमुख और प्रसिद्ध कलाकार नन्दलाल बसु के साथ उनके संबंध और उनके विश्वास को देखा जा सकता है । 1936 में महाराष्ट्र के फैजपुर तथा 1938 में गुजरात के हरिपुरा में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में साज-सज्जा तथा प्रदर्शनी की सारी जिम्मेदारी नन्दलाल बसु पर छोड़ते हुए उन्होंने कहा था 'वे सृजनशील कलाकार हैं, जो मैं नहीं हूँ । ईश्वर ने मुझे कला की भावना तो दी है पर उसे मूर्त रूप देने की प्रतिभा प्रदान नहीं की है । नन्दलाल बसु को ईश्वर ने ये दोनों चीज़ें बख़्शी हैं ।'
नन्दलाल बसु पर उनके भरोसे का एक दिलचस्प व आज भी प्रासंगिक प्रसंग है : एक बार जगन्नाथपुरी में कांग्रेस का अधिवेशन होने वाला था । अधिवेशन की तैयारी में जुटे नेताओं को पुरी और कोणार्क के मंदिरों की दीवारों पर बने रतिक्रीड़ा के शिल्पों को लेकर बहुत परेशानी थी । उन्होंने गाँधी का ध्यान उन शिल्पों की तरफ आकर्षित किया और तर्क दिया कि यह शिल्प अश्लील हैं, इसलिए अधिवेशन से पहले इन्हें पलस्तर से ढक देना चाहिए । गाँधी को उनका तर्क सही तो लगा, किंतु कोई फैसला लेने से पहले उन्होंने नन्दलाल बसु से सलाह करना उचित समझा । नन्दलाल बसु ने सारी बात सुनी तो उक्त तर्क को तुरंत से खारिज़ कर दिया । नन्दलाल बसु का कहना रहा कि यह प्राचीन शिल्प महत्त्वपूर्ण कलाकृतियाँ हैं और देश की अमूल्य विरासत हैं, पलस्तर करने से यह नष्ट हो जायेंगी । नन्दलाल बसु से यह सुनकर गाँधी ने पलस्तर के प्रस्ताव को उसी समय नामंजूर कर दिया ।
इसी प्रसंग में कला को संवेदनात्मक सत्याग्रह कहने के गाँधी के भाव को पकड़ा/पहचाना जा सकता है ।
दरअसल गाँधी ने सत्याग्रह को एक अलग विशिष्ट रूप व पहचान दी है । उनके यहाँ सत्याग्रह केवल प्रतिरोध भर नहीं है, बल्कि प्रेमानुभूति का ही एक प्रकार है; सामान्य समझ में प्रतिरोध में प्रतिपक्ष 'अन्य' ही होता है, किंतु गाँधी ने उसे 'आत्म' में भी रूपांतरित किया । कला में तो 'अन्य' आत्मवत होता ही है । वास्तव में कला जीवन का, सत्य का अनुभूत्यात्मक अन्वेषण है और हर अन्वेषण एक सृजनात्मक प्रक्रिया और प्रत्येक सृजन मूलतः व अंततः आत्म-सृजन ही होता है । गाँधी के यहाँ सत्याग्रह की जो प्रक्रिया है, वह कला-प्रक्रिया से एक दिलचस्प समानता दिखाती/रखती है : गांधी ने सत्याग्रह को हृदय परिवर्तन के एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया, जो नैतिक संवेदन को जाग्रत करता है; एक उत्कृष्ट कलाकृति भी हमारे नैतिक बोध को जाग्रत करते हुए हमारी संवेदना को परिष्कृत करती है । इस तरह हम पाते हैं कि कला को व्याख्यायित करने व परिभाषाएँ देने का काम गाँधी ने भले ही न किया हो, किंतु कला-दृष्टि और उसकी प्रक्रिया में प्राप्त अनुभूति को समग्र जीवन की प्रक्रिया बनाने का जो अनोखा और महत्त्वपूर्ण काम उन्होंने किया है - वह कला के साथ उनके संबंध को प्रेरणापूर्ण बनाता है ।

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