अमृता शेरगिल की खोई डायरी के कुछ पन्ने

सिर्फ अट्ठाईस वर्ष ज़िन्दा रहीं अमृता शेरगिल (30 जनवरी 1913 - 5 दिसंबर 1941) ने आयु के सोलहवें वर्ष में कला विद्यालय में प्रवेश लिया था । पेरिस के प्रतिष्ठित कलाविद्यालय 'इकोल ब्यो ऑर्ट' में शिक्षा पाने के बावजूद उन्हें जल्दी ही यह समझ में आ गया कि सच्ची शिक्षा किसी विद्यालय में नहीं, बल्कि प्रकृति और समाज के बीच रह कर ही मिलेगी । इस समझ के भरोसे उन्होंने जो रचा, उसके कारण ही उन्होंने चित्रकला - खासकर आधुनिक भारतीय चित्रकला के इतिहास में अपना विशेष स्थान बनाया ।
अमृता शेरगिल की अंग्रेजी में लिखी डायरी के कई अंश अनुदित होकर मराठी में प्रकाशित हुए थे, जिनका 'कला-भारती' के लिए हिंदी रूपांतर दीप्ति गावंडे ने किया है । उसी में से कुछ प्रमुख अंश यहाँ साभार :
23 मई 1927, शिमला :
आज इर्विन अंकल हंगरी गए हैं । हंगेरियन सरकार ने उन्हें सम्मान देने के लिए आमंत्रित किया है । उनके पौर्वात्य ज्ञान तथा अध्ययन को ध्यान में रखते हुए उनके नाम से बुडापेस्ट में एक विद्यापीठ स्थापित कर रहे हैं । यह गौरव की ही बात है । जाते समय उन्होंने मुझे बाँहों में लिया और बोले, 'चित्रकार बनने का मेरा स्वप्न अधूरा ही रहा । तुम्हारे चित्र देखने के बाद मुझे लगा कि तुम्हारी रेखाओं में स्वप्न है । ये रेखाएँ जीवंत और विशेष लगती हैं । उनके स्वत्व को ज़िन्दा रखो । मेरे अधूरे सपनों की पूर्ति तुम कर सकती हो, ऐसा मुझे विश्वास है ।' फिर मॉम और पापा से कहा, 'मैडम मेरी अटोनेट और सरदार उमरावसिंह, लड़की के चित्रों में यहाँ की संस्कृति की गंध है । यह दैवी पौधा आपके यहाँ उगा है । इसका संवर्धन करो । इसकी कला विकसित होने दो । इसके बारे में मैं आश्वस्त हूँ ।' उनकी यह बातें सुनकर मुझे लगा जैसे मैंने आकाश छू लिया है । धन्यवाद अंकल, आपके विश्वास को मैं टूटने नहीं दूँगी । मेरे अस्तित्व पर अपने आशीर्वाद का हाथ हमेशा रहने दें । मेरे भीतर आपके द्धारा रोपा हुआ आत्मविश्वास का बीज अंकुरित होता रहेगा । मुझ पर विश्वास रखिए । मेरी आँखें अनायास भर आयीं । अभी भी लिखते समय लग रहा है जैसे अक्षर पिघल रहे हों ।
1 जून 1927, शिमला :
कल रात खाना खाते हुए मॉम और पापा में अच्छी खासी बहस हो गयी । इर्विन अंकल की बात को मॉम ने बहुत गंभीरता से लिया था । वे पापा से बोलीं, 'लड़कियों को मैं यूरोप ले जाऊँगी ।' पापा की आँखों में बेगाना-सा भाव था । मॉम की आँखों में भी वही भाव था । वे बोलीं, 'बेटियों के भविष्य के बारे में तुम्हें कोई चिंता नहीं है । जरूरी हुआ तो मैं अमृता के साथ पेरिस में रहूँगी । उसे वहाँ के किसी अच्छे ऑर्ट स्कूल में दाख़िला मिल जायेगा । इर्विन कह रहा था...।' उन्हें बीच में रोकते हुए पापा बोले, 'देखो मेरी, मुझे भी लगता है कि लड़कियाँ ख़ूब पढ़ें, आगे बढ़ें । उमर खय्याम की रूबाइयों पर उसके बनाए हुए वाटर कलर्स के चित्र मैंने यहाँ के ब्रिटिश शिक्षकों को दिखाए हैं । वे भी कहते हैं कि इसे लाहौर भेजो । लाहौर का ऑर्ट स्कूल भी अच्छा है ।' किंतु मॉम ने ज़िद की, 'नहीं, मेरी बेटी पेरिस ही जाएगी ।' पापा ने मॉम को बड़ी आतुरता से समझाने का प्रयत्न किया । किंतु वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थीं ।
29 अगस्त 1927, शिमला :
इर्विन अंकल का पत्र आया है । आधे से ज्यादा पत्र मेरे बारे में है । किंतु उसका आधार कल्पना और स्मृति पर अधिक है । उसे मॉडल के साथ काम करने के लिए कहिए । भीड़ को देखने दो । बाजार में सब्जीवाली, मटनवाला, जैसे स्त्री-पुरुष देखने दो । उनकी मुद्राएँ, हाव-भाव, आनंद, द्वेष, क्रोध आदि का अध्ययन करने दो । मुझे एकदम गुब्बारे में हवा भरने जैसी अनुभूति हुई । मेरा मन व्याकुल हो गया । मैं आकाश में उड़ने लगी । जैसे पंख लग गए हों । दौड़ते हुए आँगन में आयी तो हमारी नौकरानी कुशी को झाड़ू लगाते देखा । उसके काम करते हुए कई फोटो खींचे । लगा, मेरी आँखें वस्तु के पार, त्वचा के भीतर भी देख सकती हैं ।
कुशी को झाड़ू रखकर खाली बैठे हुए देखा तो मॉम ने आकाश सिर पर उठा लिया ।
मैं आने-जाने वालों के चेहरे ध्यान से देखने लगी । पापा को अध्ययन में गर्क़ देखकर उनका चित्र बनाया । लम्बी दाढ़ी, झुकी गर्दन, सिर पर सरदारों की पगड़ी । उनके आस-पास पुस्तकों का ढेर ।
29 अप्रैल 1929, पेरिस :
हम सब पेरिस पहुँचे । यह एकदम अलग दुनिया है । यहाँ के लोग फ्रेंच के अलावा दूसरी कोई भाषा नहीं बोलते । मुझे जर्मन आती है, इसका मुझे गर्व है । हंगेरियन और अंग्रेजी भी आती है । मेरे देश की हिंदी-पंजाबी भी मैं बोल सकती हूँ । किंतु पाँच-छह भाषाओं का ज्ञान भी यहाँ बेकार ही है । फ्रेंच सीखे बिना यहाँ के जीवन से समरस होना मुश्किल है । मैंने पापा को अपनी यह समस्या बताई तो वे बोले, 'अम्मू, कला की भाषा वैश्विक होती है । यूनीवर्सल । तुम यहाँ चित्रकला सीखने आई हो । कला का अभ्यास करते हुए भाषा की रुकावट नहीं आएगी, वैसे फ्रेंच मीठी भाषा है ।' पापा मुझे प्यार से अम्मू कहते हैं । मॉम मुझे ऋतु कहती हैं । मैं अमृता हूँ ।
5 जून 1929, पेरिस :
जोसेफ नेमिस के साथ ग्रैण्ड शामिए कलाविद्यालय में मैं प्रोफ़ेसर पेर वेलान से मिली । उन्होंने मेरे चित्र देखे । मेरे चित्रों की ओर देख कर उन्होंने अगले ही क्षण चश्मे के लेंस से घूरकर मेरी ओर देखा और पूछा, 'क्या उम्र है तुम्हारी ?' मैं बोली, 'सोलह', वह तुरंत बोले आयु के हिसाब से तुम्हारा अनुभव प्रौढ़ है; किसी को भी प्रभावित कर सके, इतना कौशल तुम्हारे चित्रों में है । वस्तु जैसी दिखती है वैसी चित्र रचना कठिन नहीं है; किंतु महत्त्वपूर्ण यह है कि वह तुम्हें कैसी दिखी । वस्तु का दृश्य परिणाम कलाकारों के लिए आह्वान होता है । इस पर मैंने कहा कि वही आह्वान सुनने के लिए तो मैं हिंदुस्तान से पेरिस आयी हूँ । यह सुनते ही उन्होंने उत्साह के साथ मेरी पीठ थपथपाई ।
15 नवम्बर 1929, पेरिस :
मुझे फ्रेंच बोलना आ गया है । मॉम को मैंने आज स्पष्ट कहा कि मुझे पियानो नहीं सीखना । उन्हीं की ज़िद के कारण मैंने अल्फ्रेड कोरो की संगीतशाला में एडमिशन लिया था । चित्रकला सीखना तय करने पर संगीत के लिए समय देना मुश्किल था । दो नावों में सवारी मुश्किल थी ।
लूव्र में गेरिका का 'शफ्ट आंक मेडुसा' देखा । कितनी भीषण जीवनाकांक्षा है उस छोटी सी नाव पर बचे हुए लोगों की । मन व्याकुल हो तो लूव्र आना चाहिए । यहाँ के चित्र, शिल्प देखकर मन आश्वस्त होता है । पल भर के लिए आप खुद को भूल जाते हैं । विस्मृति कभी कभी वरदान सिद्ध होती है ।
10 जनवरी 1930, पेरिस :
पिछले कुछ दिनों से मैं इकोल ब्यो आर्ट में जाने लगी हूँ । एडमिशन के लिए जोसेफ नेमिस मुझे प्राध्यापक ल्यूसेन सिमोन के पास ले गए थे । वहाँ उनके नाम का दबदबा है । वह वहाँ पढ़ाते हैं । उन्होंने मेरे चित्र देखे । उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वह मेरे बनाए चित्र हैं । दाख़िले के लिए आयु कम से कम अठारह वर्ष होनी चाहिए और इस हिसाब से मैं दाख़िले के लिए अयोग्य थी । लेकिन उन्होंने अपने अधिकार का प्रयोग करके मुझे अपने स्टुडियो में दाखिला दिलवा दिया । कला जगत में सिमोन एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं । इकोल ब्यो आर्ट में वह पढ़ाते नहीं हैं । उनकी विशेषता यही है कि सिर्फ उनकी उपस्थिति, उनका एक कटाक्ष, होठों पर आया हुआ एकाध शब्द ही बहुत कुछ कह जाता है; सिखा देता है । यहाँ विद्यार्थी केवल चित्र ही नहीं बनाते हैं, बल्कि परंपरा का अभ्यास करके नए नए कला क्षितिज की खोज की तरफ भी ध्यान देते हैं । पेरिस में वैसे भी परंपरा तथा आधुनिकता की निकटता सामाजिक जीवन में पल-पल होती है । मैं वहाँ के वातावरण में खोयी रहती हूँ । मित्रों के साथ लैटिन क़्वार्टर के धुएँ भरे अँधेरे कैफे में बैठकर कला-शिल्प-साहित्य तथा सामाजिक जीवन विषयों पर खुली चर्चा में विशेष रूप से शामिल होती हूँ । ऐसा लगता है कि मेरी बोलचाल में भी बहुत अंतर आया है । बचपन से ही मैं खुद से पहल करके किसी से बात नहीं करती थी । सब कहते अमृता इंट्रोवर्ट है । हीन भावना से ग्रस्त थी । यहाँ के मस्त वातावरण ने मुझे जकड़ कर रखे परम्परा के फ़ौलादी कवच को क्षत-विक्षत कर दिया । मुझे लगा मेरा पुनर्जन्म हुआ है । मैं नयी अमृता बन गई हूँ । मुक्त हूँ । दिमाग में वान गॉग घूम रहा है । उसने अपने जीवन के व्यक्तिगत दुःखों और असफलता को कभी महत्त्व नहीं दिया । ये दुःख खाली सूखी सीप जैसे हैं, ऐसा वह कहता था । उसके लिए चित्र बनाना ही महत्त्वपूर्ण था । भोजन से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण चित्र बनाना था । उसे छाया में भी रंग नज़र आते थे । रंग ऊर्जास्रोत, भावना व्यक्त करने वाले तथा पारलौकिक सत्य को खोजने का माध्यम है । यही सच है ।
18 जनवरी 1930, पेरिस :
प्राध्यापक सिमोन के प्रति दिन-पर-दिन आदर की भावना बढ़ती जा रही है । वे एक विशाल वटवृक्ष की तरह नज़र आते हैं । उम्र सत्तर के आसपास होगी । गालों की हड्डियाँ उभरी हुईं । शुभ्र धवल दाढ़ी । त्रिकोणाकार मूँछ लेकिन काली है । सिर पर हैट हमेशा होती है । होठों पर सिगरेट भी सतत जलती रहती है । कमज़ोर आँखें जब चश्मे के लेंस से देखती हैं तो लगता है, वे खोया हुआ कुछ ढूँढ़ रहे हैं अथवा उस पार के अदृश्य को खोजती हैं । सिमोन सर केवल अध्यापक नहीं हैं । वे गुरु हैं । आधुनिक विश्व में ख़त्म होती जा रही गुरु-शिष्य परम्परा वे स्थापित करना चाहते हैं । वे कहते हैं, 'मैं एकेडमी में पढ़ाता हूँ फिर भी मेरा निश्चित मत है कि एकेडमी अंतःप्रेरणा की पर्याय नहीं हो सकती । वान गॉग किस एकेडमी से पढ़ा था । खुली प्रकृति ही उनकी पाठशाला थी । अनुभव से सीखा हुआ पारम्परिक कौशल, स्वीकृत सत्य को आह्वान देने वाली ज़िद तथा रंगों के तादात्म्य को अंतःप्रेरणा से आत्मसात करने की महत्त्वाकांक्षा का समन्वय उनके चित्रों में दिखायी देता है ।' सिमोन सर अक्सर याद कराते रहते हैं, ' ध्यान रहे, डिगास ने कहा था, कला व्यवसाय नहीं है ।'

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