मक़बूल फ़िदा हुसैन के अनुसार सृजन की दुनिया ऐसी है, जिसमें कुछ करने के मौके हमेशा मौजूद होते हैं

आधुनिक भारतीय चित्रकला में निर्णायक परिवर्तन लाने वाले चुनिंदा चित्रकारों में एक अलग और विशेष पहचान रखने वाले मक़बूल फ़िदा हुसैन का आज 102वाँ जन्मदिन है । इस मौके पर उनको याद करना इसलिए भी प्रासंगिक और जरूरी लगता है, क्योंकि वह अपने समय की सच्ची आवाज़ थे । यह बिडंबना ही है कि भारतीयता के आग्रही और जीते जी एक किवदंती बन चुके इस महान कलाकार को अपने जीवन के अंतिम कुछेक वर्ष बेवतनी में गुजारने पड़े । निस्संदेह, कला जगत में आधुनिकता को भारतीय जमीन पर खड़ा करने में हुसैन का अप्रतिम योगदान है । समकालीन भारतीय कला जगत में हुसैन अकेले कलाकार नज़र आते हैं जिन्होंने ख़ुद को, अपनी संस्कृति के बीचोंबीच बहुत गहरे महसूस किया है, जिसका प्रतिफलन उनके चित्रों के रूप में हमारे सामने है । हुसैन, भारत की आजादी की लड़ाई के दौर में पली-बढ़ी तथा स्वतंत्रता के तुरंत बाद के दौर में सृजनात्मक रूप से सक्रिय हुई उस पीढ़ी के सबसे अग्रणी नामों में से हैं, जिसने अपने को पहचानते हुए, अपने पाँवों पर खड़े होते हुए एक राष्ट्र के रूप में भारत की संस्कृति को गढ़ा/रचा । उन्होंने भारतीय संस्कृति के वैविध्य को आत्मसात कर अपने चित्रों में अभिव्यक्ति दी ।
भारतीयता हुसैन के चित्रों में आरोपित नहीं है, वह उनके चित्रों की आंतरिक चेतना है । भारतीय कला की समकालीनता रचते हुए भारत की सांस्कृतिक पहचान का परचम दुनिया भर में फहराने का काम अकेले हुसैन ने ही किया है । विभिन्न देशों के राष्ट्रीय संग्रहालयों में किसी और भारतीय चित्रकार के चित्र हों या न हों, हुसैन के चित्र अवश्य ही मिलेंगे ।
हुसैन को अपने साथी कलाकारों के बीच जो चीज सबसे विशिष्ट बनाती थी, वह थी उनकी किसी भी सौंदर्यात्मक आधार को लेकर, उसमें कुछ नया करने की उनकी सृजनात्मक ऊर्जा । चित्रकला के प्रायः सभी रूपों को रचने में समर्थ रहे हुसैन शास्त्रीय, लोकप्रिय व समकालीन शैलियों के बीच परस्पर जोड़ बना लेने का खास हुनर रखते थे; और इसी हुनर के चलते वह महाकाव्यों के दृश्यों को भी आधुनिक परिप्रेक्ष्य के साथ जोड़ लेते थे ।
इकबाल रिजवी को दिए गए साक्षात्कार में हुसैन ने कई बड़ी पते की बातें की/कही थीं, जो युवा कलाकारों के लिए खास महत्त्व की हैं । जिनमें से कुछ हैं :
'मुझे कला के क्षेत्र में दिलचस्पी रखने वालों को खाली देख कर 
बड़ी हैरत होती है । हमारे ज़माने में मेहनत बहुत होती थी । 
मैंने अपने समकालीन कलाकारों को बेहद मेहनत करते हुए 
देखा है । खुद मैं अपने को कभी खाली नहीं रखता था । 
जब फिल्मों के होर्डिंग बनाता था तब भी, 
और जब फर्नीचर डिजाईन कर रहा था तब भी, 
और मुम्बई जाने से पहले भी 
मैं लगातार चित्र बनाता रहता था । 
मुझे लगता था कि मैं कोई भी काम कर सकता हूँ; 
भले ही जरूरत पड़ने पर ये लिखना पड़े कि 'यहाँ पेशाब करना मना है ।' 
मुझे हैरत होती है जब आजकल के नौजवानों को यह कहते हुए सुनता हूँ कि 
हमारे पास काम करने की जगह नहीं है, सामान नहीं है । 
मैं अक्सर कहता हूँ कि कला में जब तक समर्पण नहीं होगा, तब तक बात नहीं बनेगी । 
यहाँ आप पूरी जिंदगी देने को तैयार हों, तब तो ठीक है; 
वरना जाइए, आलू बेचिए; उसमें ज्यादा पैसा कमा लेंगे । 
मुम्बई में मैं करीब अठारह-बीस साल रहा । 
वहाँ मुझे कोई नहीं जानता था, वहाँ मुझे मान्यता ही नहीं मिली, 
उस दौरान वहाँ मैंने कोई प्रदर्शनी ही नहीं की थी । 
वहाँ मैं बिलकुल अजनबी सा था; 
मैं जिस तबके से आया था वहाँ का समाज वैसा था भी नहीं । 
रज़ा, सूज़ा आदि वहाँ थे, पर तब मैं उनसे भी नहीं मिला था । 
किंतु मैं वहाँ लगने वाली प्रदर्शनियों को जरूर देखता था । 
इससे सीखने का बहुत मौका मिला । 
अमृता शेरगिल 1936 में मुम्बई आईं थीं, टाऊन हाल में उनके चित्रों की प्रदर्शनी लगी थी । 
प्रदर्शनी के आखिरी दिन वह टाऊन हाल में आईं थी, जहाँ मैंने उन्हें देखा । 
मैंने भीड़ में उचक उचक कर उन्हें देखा था । 
वह बिलकुल प्रिंसेज की तरह आईं थीं । 
प्रदर्शनी स्थल से उनके जाने के बाद मैं उनकी पेंटिंग्स को बहुत देर तक देखता रहा था । 
मैं नौजवानों से कहता हूँ कि अगर आप अलर्ट हैं, 
तो इस दुनिया में करने को बहुत कुछ है । 
सृजन की दुनिया ऐसी है, जिसमें कुछ करने के मौके हमेशा मौजूद होते हैं । 
जिंदगी इतनी तेजी से जा रही है कि एक चीज जो आप कायम करते हैं 
वह मुश्किल से कायम रह पाती है । 
लेकिन उससे आपका आधार बनता है । उसका सहारा लेकर आगे बढ़िए, चलते रहिए, 
रिस्क भी लीजिए; यह जरूरी नहीं है कि जो चीज आप कर रहे हैं, 
वह कामयाब होगी ही, या आप उससे कुछ हासिल कर ही लेंगे । 
लेकिन कई दफा बेकार चीजों से भी बहुत कुछ मिल जाता है । 
यह जो समय है वह टेक्नोलॉजी व साइंस का समय है । 
यहाँ कोई बैरियर नहीं रहा कि ऑर्ट किसी खास तरीके से की गई है, 
तो ही ऑर्ट है । 
यह जरूरी थोड़े ही है कि आप जो कैनवस पर कर रहे हैं, वही ऑर्ट है । 
मैं सृजन के क्षेत्र में किसी को प्रोत्साहित करने के पक्ष में नहीं हूँ । 
खुद अपने बेटों को मैंने कभी बढ़ावा नहीं दिया । 
मैं जब राज्यसभा का सदस्य था तब मुझ पर उँगलियाँ उठाई गईं कि 
मैं कला को बढ़ावा देने के लिए क्यों कुछ नहीं करता ? 
लेकिन प्रोत्साहित तो मैं करना ही नहीं चाहता । 
मेरी समझ है कि ऑर्ट या पोएट्री में किसी को प्रोत्साहित नहीं किया जा सकता । 
अगर आप में दम है तो यहाँ आइए, पंद्रह/बीस साल तक नाक रगड़िए 
- तब कुछ बात बनेगी । 
अगर इतना धैर्य नहीं है तो कहीं और जाइए, यहाँ मत रुकिए । 
मैं साफ कहना चाहता हूँ कि सृजन के क्षेत्र में कोई शॉर्ट कट नहीं है ।'

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