विवान सुंदरम को समकालीन भारतीय कला की हत्या का जिम्मेदार ठहरा कर जॉनी एमएल समकालीन भारतीय कला के दूसरे प्रमुख कलाकारों को भी अपमानित करने का काम नहीं कर रहे हैं क्या ?
कला समीक्षक जॉनी एमएल के लिखे हुए
को मैं उत्सुकता और दिलचस्पी से पढ़ता रहा हूँ, और उनके लिखे हुए के प्रति
मेरे मन में बहुत भरोसा और सम्मान रहा है । किंतु उन्होंने अपने एक नए लेख
में जिस तरह से विवान सुंदरम को समकालीन भारतीय कला की हत्या के लिए
जिम्मेदार ठहराया है, उसे देख/पढ़ कर मैं हैरान और क्षुब्ध हूँ । विवान
समकालीन भारतीय कला में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं और अपनी कला के जरिए
उन्होंने समकालीन राजनीतिक समय की जटिलताओं से जिस तरह से मुठभेड़ की है -
उसके कारण उनकी कला यात्रा बहुत ही खास महत्त्व की हो जाती है । विवान
आलोचना से परे नहीं हैं; उनके काम की और उनकी सक्रियताओं की आलोचना हो सकती
है, खूब हुई भी है - लेकिन उन्हें भारतीय कला का हत्यारा कहना, मैं
समझता हूँ कि उनके साथ ज्यादती तो है ही, बेबजह की सनसनी फैलाना भी है,
जिसका तथ्यों/तर्कों से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं है ।
जॉनी
एमएल ने विवान सुंदरम को निशाना बनाते हुए तर्क भी बड़े बचकाने से दिए हैं !
उनके जैसे व्यक्ति से इस तरह की बचकानी बातों की उम्मीद नहीं की जा सकती
है । अब दिल्ली और मुंबई के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डों पर लगे
मूर्तिशिल्पों के आगे खड़े हो कर लोग यदि सेल्फी नहीं ले रहे हैं; होटलों, अस्पतालों
तथा अन्य सार्वजनिक स्थानों पर लगे मूर्तिशिल्पों और या पेंटिंग्स बड़े नाम
वाले कलाकारों के दोयम दर्जे के काम हैं; एक ब्रिटिश कला समीक्षक ने
यदि भूपेन खख्खर के काम को ख़ारिज कर दिया है - तो इसमें विवान सुंदरम का
भला क्या दोष है ? इन सब बातों के लिए विवान को क्यों कोसा जाना चाहिए ?
जॉनी कह रहे हैं कि हमारे यहाँ अच्छी पेंटिंग्स, अच्छे मूर्तिशिल्प, अच्छे
प्रिंट, अच्छे फोटोग्राफ नहीं बन रहे हैं । उनकी बात यदि सच मान भी ली
जाए, तो सवाल यह है कि इसके लिए विवान को जिम्मेदार कैसे ठहराया जा सकता है
? जॉनी एमएल ने विवान सुंदरम पर पश्चिम के साँस्कृतिक उद्योग के लिए और
पश्चिमी हितों के लिए काम करने का आरोप लगाया है, जिसके तहत भारत में कला
प्रतिभा को नष्ट करने का काम किया गया । यह बड़ा बेतुका आरोप है । विवान ही क्या, कोई भी कला प्रतिभा को कैसे नष्ट कर सकता है ? और पश्चिमी हितों के लिए काम करने वाली बात तो बिलकुल ही बेमतलब की बात है ।
हमें याद रखना चाहिए कि भारत में कला विद्यालयों की नींव अंग्रेजों ने ही रखी थी, जिनमें कला शिक्षा का ढाँचा पूरी तरह ब्रिटिश कला शिक्षा जैसा ही बनाया गया । इसी ढाँचे में लेकिन इस ढाँचे से मुक्ति पाने के प्रयास भी हुए और भारतीय कला परंपरा से संवाद बनाने के काम भी हुए । दिलचस्प तथ्य है कि जिन ब्रिटिश कलाकार ईवी हैवेल ने चेन्नई और कोलकाता के कला विद्यालयों को बनाने में योगदान दिया था, उन्हीं ईवी हैवेल ने बंगाल स्कूल की स्थापना में सक्रिय भूमिका निभाई थी और उन्होंने ही भारतीय कलाकारों को भारतीय कला परंपरा से संवाद के लिए प्रेरित किया था । समकालीन भारतीय कला में पश्चिम की फूहड़ नकल के उदाहरण भी मिलेंगे, तो भारतीय परंपरा के नाम पर भावुकता का प्रदर्शन भी देखा जा सकता है - लेकिन पहचान और सम्मान उस कला को ही मिला, जिसमें समकालीन जीवन की चुनौतियों का स्वीकार था । ऐसे में, यह संभव ही नहीं है कि पश्चिमी हितों के लिए काम करने वाला कोई कलाकार इतनी ताकत जुटा ले कि वह भारत की कला प्रतिभा को ही नष्ट कर दे ।
हमें याद रखना चाहिए कि भारत में कला विद्यालयों की नींव अंग्रेजों ने ही रखी थी, जिनमें कला शिक्षा का ढाँचा पूरी तरह ब्रिटिश कला शिक्षा जैसा ही बनाया गया । इसी ढाँचे में लेकिन इस ढाँचे से मुक्ति पाने के प्रयास भी हुए और भारतीय कला परंपरा से संवाद बनाने के काम भी हुए । दिलचस्प तथ्य है कि जिन ब्रिटिश कलाकार ईवी हैवेल ने चेन्नई और कोलकाता के कला विद्यालयों को बनाने में योगदान दिया था, उन्हीं ईवी हैवेल ने बंगाल स्कूल की स्थापना में सक्रिय भूमिका निभाई थी और उन्होंने ही भारतीय कलाकारों को भारतीय कला परंपरा से संवाद के लिए प्रेरित किया था । समकालीन भारतीय कला में पश्चिम की फूहड़ नकल के उदाहरण भी मिलेंगे, तो भारतीय परंपरा के नाम पर भावुकता का प्रदर्शन भी देखा जा सकता है - लेकिन पहचान और सम्मान उस कला को ही मिला, जिसमें समकालीन जीवन की चुनौतियों का स्वीकार था । ऐसे में, यह संभव ही नहीं है कि पश्चिमी हितों के लिए काम करने वाला कोई कलाकार इतनी ताकत जुटा ले कि वह भारत की कला प्रतिभा को ही नष्ट कर दे ।
विवान सुंदरम ने
संस्थापन कला को लेकर जिस तरह की सक्रियता दिखाई, जॉनी एमएल को उसके
चलते 'स्किल' खत्म होती नजर आई है; और दरअसल इसी कारण से उन्होंने विवान को
भारतीय कला की हत्या करने का दोषी ठहराया है । संस्थापन कला को लेकर जो भी
बहसबाजी हुई है, उसमें संस्थापन कला के विरोधियों की तरफ से लगने वाला यही
एक ऐसा आरोप रहा है - जो बहुत ही घिसापिटा साबित हुआ है । जॉनी एमएलए
इस आरोप का सहारा लेकर जिस तरह विवान सुंदरम को निशाना बनाते हैं, उसमें वह
न तो संस्थापन कला के साथ न्याय करते हैं और न विवान सुंदरम के साथ ।
संस्थापन कला का अभ्युदय वास्तव में अनिवार्य होती जा रही आर्थिक व
राजनीतिक आवश्यकताओं के चलते हुआ, जिसके तहत कला में प्रभाव उत्पन्न करने
के लिए तरह तरह के प्रयोग किए गए और परंपरागत मर्यादाओं को तोड़ते हुए
संस्थापन कला ने एक अभियान का रूप लिया । एक मोटी सरलीकृत समझ यह है कि
पश्चिम में बुलंदी की ऊँचाइयाँ छूने के बाद संस्थापन कला भारत पहुँची ।
इसके विपरीत, सच्चाई यह है कि समकालीन भारतीय कला में पहले से ही ऐसे काम
होते रहे हैं, जो संस्थापन कला की परिभाषा में आते हैं । संस्थापन कला के
एक संगठित पहचान के रूप में आने से बहुत पहले मक़बूल फ़िदा हुसैन ने जहाँगीर
ऑर्ट गैलरी में अपने एक 'काम' के रूप में पूरी दीर्घा को अख़बार से आच्छादित
कर दिया था । उनके इस काम की आलोचना भी हुई थी, लेकिन किसी ने भी यह
नहीं कहा था कि हुसैन पेंटिंग का विरोध कर रहे हैं, या पेंटिंग की
निरर्थकता समझ रहे हैं, या पेंटिंग के खिलाफ माहौल बना रहे हैं ।
दरअसल संस्थापन कला किसी भी कलाकार की जरूरत तब बनती है, जब वह कोई 'बड़ी' बात कहना चाहता है और इसके लिए उसे पेंटिंग या स्कल्पचर के जरिए अपनी बात संप्रेषित होते हुए नहीं लगती । यही कारण है कि संस्थापन कला के कभी-कभार दिखने वाले 'दृश्यों' ने 1960 के बाद तब संगठित और सक्रिय रूप लेना शुरू किया, जब सारी दुनिया में आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक उथल-पथल का 'आधुनिक' दौर शुरू हुआ । इसका कला जगत पर भी असर पड़ना ही था, और वह पड़ा भी और कला जगत ने संस्थापन कला के जरिए न सिर्फ मौजूदा समय के प्रति अपनी प्रतिक्रिया दी, बल्कि अपने आप को भी पुनर्संयोजित करने का प्रयास किया । समकालीन भारतीय कला के तमाम प्रमुख चेहरों ने भी अपनी अपनी भूमिकाओं को विस्तृत संदर्भ में रखने के प्रयास करते हुए संस्थापन कला में काम किए । इसके साथ-साथ, जैसा कि हर अभियान में होता ही है कि, कई लोग बहती गंगा में हाथ धोने भी आ गए; कई कलाकारों ने संस्थापन को कला के उत्पादन की आसान तरक़ीब मानकर उसका इस्तेमाल किया । हुआ यह भी कि संस्थापन कला के आयोजनों में कई प्रतिष्ठित कलाकारों ने अपने दोयम दर्जे के काम को खपा दिया । संस्थापन कला अभियान का नाटकीय पहलू यह भी रहा कि बड़े कला मेलों व महोत्सवों में कला प्रेक्षकों व खरीदारों का ध्यान खींचने के लिए कलाकारों ने संस्थापन करने शुरू कर दिए । इसी तरह के अच्छे-बुरे अनुभवों के बीच संस्थापन कला की सार्थकता और उसकी सीमाओं - दोनों ने ही समकालीन कलाकार के द्वंद्व को सामने लाने का काम किया है; और कलानुभव का एक नया आस्वाद दिया है ।
दरअसल संस्थापन कला किसी भी कलाकार की जरूरत तब बनती है, जब वह कोई 'बड़ी' बात कहना चाहता है और इसके लिए उसे पेंटिंग या स्कल्पचर के जरिए अपनी बात संप्रेषित होते हुए नहीं लगती । यही कारण है कि संस्थापन कला के कभी-कभार दिखने वाले 'दृश्यों' ने 1960 के बाद तब संगठित और सक्रिय रूप लेना शुरू किया, जब सारी दुनिया में आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक उथल-पथल का 'आधुनिक' दौर शुरू हुआ । इसका कला जगत पर भी असर पड़ना ही था, और वह पड़ा भी और कला जगत ने संस्थापन कला के जरिए न सिर्फ मौजूदा समय के प्रति अपनी प्रतिक्रिया दी, बल्कि अपने आप को भी पुनर्संयोजित करने का प्रयास किया । समकालीन भारतीय कला के तमाम प्रमुख चेहरों ने भी अपनी अपनी भूमिकाओं को विस्तृत संदर्भ में रखने के प्रयास करते हुए संस्थापन कला में काम किए । इसके साथ-साथ, जैसा कि हर अभियान में होता ही है कि, कई लोग बहती गंगा में हाथ धोने भी आ गए; कई कलाकारों ने संस्थापन को कला के उत्पादन की आसान तरक़ीब मानकर उसका इस्तेमाल किया । हुआ यह भी कि संस्थापन कला के आयोजनों में कई प्रतिष्ठित कलाकारों ने अपने दोयम दर्जे के काम को खपा दिया । संस्थापन कला अभियान का नाटकीय पहलू यह भी रहा कि बड़े कला मेलों व महोत्सवों में कला प्रेक्षकों व खरीदारों का ध्यान खींचने के लिए कलाकारों ने संस्थापन करने शुरू कर दिए । इसी तरह के अच्छे-बुरे अनुभवों के बीच संस्थापन कला की सार्थकता और उसकी सीमाओं - दोनों ने ही समकालीन कलाकार के द्वंद्व को सामने लाने का काम किया है; और कलानुभव का एक नया आस्वाद दिया है ।
संचार
क्रांति के कारण किसी भी दूसरे क्षेत्र की तरह कला में भी पश्चिम के
प्रभावों से बच पाना तो किसी भी तरह से संभव नहीं है; वैश्विक स्तर पर
पहचान और बाज़ार पाने की इच्छा रखने के बीच ऐसा सोचा जाना भी बेवकूफी ही
कहलाएगी । सच बल्कि यह है कि जब संचार क्रांति की आहट भी नहीं थी, और पहचान
व बाज़ार का भी कोई दबाव नहीं था; तब भी - जैसा कि शुरू में ही जिक्र किया
गया है - भारतीय कला पर पश्चिम का प्रभाव पड़ रहा था । तब भी सच लेकिन
यही था और आज भी सच यही है कि कलाकार पश्चिम से भी प्रभावित हो रहे थे,
लेकिन साथ-साथ ही वह अपनी कला व अपनी कला-भाषा से जुड़ने के लिए भी संघर्षरत
रहे । अतिरेक दोनों तरह के मिलेंगे - पश्चिम का अंधानुकरण करने के भी
और इसके भी कि पश्चिम कहीं छू न जाए; पर समकालीन भारतीय कला का मूल स्वर
'संघर्ष' का ही रहा है । यही बात विवान सुंदरम के काम और उनकी सक्रियता के
बारे में कही जा सकती है; और उनके क्या - किसी भी कलाकार के बारे में कही
जा सकती है । किसी भी कलाकार की कला-यात्रा में उजले/अँधेरे पक्ष
मिलेंगे ही - किसी भी एक पक्ष के आधार पर मूल्याँकन करने की कोशिश को
ईमानदार कोशिश के रूप में तो नहीं ही देखा जा सकता है ।
इसीलिए
विवान सुंदरम को लेकर जॉनी एमएल ने जो कहा है, उसमें कहीं कोई ईमानदारी
नहीं झलकती है । किसी को भी हक़ है कि वह विवान के काम को पूरी तरह से ख़ारिज
कर दे; विवान की सोच और उनकी सक्रियता के नकारात्मक पक्ष को उद्घाटित करे;
लेकिन विवान को समकालीन भारतीय कला की हत्या का दोषी ठहराना किसी भी तरह
से न्यायपूर्ण नहीं कहा जा सकता । दरअसल ऐसा कहने का एक अर्थ यह भी है
कि समकालीन भारतीय कला परिदृश्य में आप विवान सुंदरम को निर्णायक रूप से
इतना ताकतवर समझ रहे हैं - कि दूसरे कलाकारों को भय, लालच और या कमसमझी के
चलते उनके द्धारा निर्देशित होता हुआ मान रहे हैं । सवाल यह है कि जिस समय
विवान समकालीन भारतीय कला की जड़ों में मट्ठा डालने का काम कर रहे थे, उस
समय दूसरे प्रमुख कलाकार कहाँ थे और क्या कर रहे थे ? यही कारण है कि
विवान को निशाना बनाते हुए जॉनी एमएल वास्तव में विवान सुंदरम के साथ तो
नाइंसाफी कर ही रहे हैं, समकालीन भारतीय कला के दूसरे प्रमुख कलाकारों को
भी अपमानित कर रहे हैं । दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि ऐसा वह समकालीन
भारतीय कला की समस्याओं पर बात करने की आड़ में कर रहे हैं । हुआ यह है
कि समकालीन भारतीय कला जगत जिन समस्याओं का सामना कर रहा है, वह पृष्ठभूमि
में चली गई हैं - और विवान सुंदरम के साथ उनकी निजी खुन्नसबाजी की बातें
होने लगी हैं । माना/समझा जा रहा है कि विवान सुंदरम से कोई पुराना हिसाब
बराबर करने के लिए तथा अपने आप को चर्चा के केंद्र में लाने के लिए जॉनी
एमएल ने यह सनसनी गढ़ी है ।
कलाकार विवान सुन्दरम के बारे में कला समीक्षक लेख मुझे अच्छा लगा।
ReplyDelete