अंतरा श्रीवास्तव की सृजन यात्रा में पौराणिक कथाओं से जुड़े प्रसंगों व व्यक्तित्वों के प्रमुखता पाने को लेकर, उनसे हुई बातचीत

अंतरा श्रीवास्तव ने पिछले कुछ समय में आध्यात्मिक भावभूमि के साथ पौराणिक पात्रों को जिस तरह से चित्रित किया है, वह विस्मय से भर देता है । इन चित्रकृतियों में रूपकालंकारिक छवियों को बहुत ही सूक्ष्मता के साथ विषयानुरूप चित्रित किया गया है । अंतरा की कला मनोभाव व संवेदना के स्तर पर जीवन से सीधा साक्षात्कार करती है, जिसमें गहरा अनुशासन रहा है और जिसमें अन्वेषण की निरंतर ललक व तलाश रही है । इसी ललक व तलाश के चलते एक स्वाभाविक प्रक्रिया से गुजरते हुए उनकी कला चेतना का आध्यात्मिकीकरण हुआ है । उनके चित्र हालाँकि निरे आध्यात्मिक नहीं हैं, बल्कि कलात्मक दृष्टि से भी उल्लेखनीय हैं । सच तो यह है कि अपनी कलात्मकता के कारण ये कलाकृतियाँ अंतरा श्रीवास्तव की श्रेष्ठ रचनात्मकता की साक्षी बनती हैं । उनकी सृजन-यात्रा में आए इस बड़े परिवर्तन के कारणों तथा उसे प्रेरित करने वाले प्रसंगों व तथ्यों को जानने समझने के लिए उनसे कुछ सवाल किए गए, जिनके उन्होंने गहरी दिलचस्पी के साथ जबाव दिए । सवाल-जबाव यहाँ प्रस्तुत हैं :  

      
अंतरा जी, पौराणिक कथाओं से जुड़े प्रसंग और व्यक्तित्व आपकी सृजनात्मक-यात्रा के आरंभ से ही आपके कैनवस पर विषय के रूप में जगह पाते रहे हैं । हालाँकि शुरू के वर्षों में आपने कैनवस पर फूलों के रूप में प्रकृति को और मानवीय चेहरों व रूपाकारों के रूप में मानवीय संवेदनाओं को भी चित्रित किया है और आपकी सृजनात्मक यात्रा में उन चित्रणों का भी खास महत्त्व है । किंतु पिछले कुछ समय से आपने विषय के रूप में स्वयं को पौराणिक कथाओं से जुड़े प्रसंगों व व्यक्तित्वों पर ही केंद्रित किया हुआ है । मेरी जिज्ञासा यह जानने की है कि आपकी सृजन-यात्रा में यह जो पड़ाव आया है, उसकी प्रक्रिया क्या रही है ? वह कौन से कारण हैं जिनके चलते आपकी पेंटिंग्स के विषय पौराणिक कथाओं पर ही केंद्रित हो रहे हैं ?

मैंने कला में कोई औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की है और बचपन से खुद ही प्रयोग करके ही सीखा है । मेरे पति चूँकि सेना में कार्यरत हैं, इसलिए सेना के कार्यालयों के लिए प्रतिकृति चित्र बनाने के काफी ऑफर व मौके मिले, जिन्हें पूरे करते हुए मैंने अपने आपको तकनीकी रूप से समृद्ध किया । सेना-संगठन में मुझे बहुत प्रोत्साहन मिला और मैं बहुत जल्द ही संगठन में एक व्यावसायिक कलाकार के रुप में पहचानी जाने लगी; और इस नाते मुझे कई प्रकार के काम ऑफर हुए, जैसे युद्ध से संबंधित बड़े आकार की पेंटिंग्स बनाने के काम । मुझे युद्ध स्थलों से संबंधित तस्वीरें दी जातीं, जिन्हें पेंटिंग्स में तब्दील करना होता था । आर्मी के कार्यालयों, मेस तथा अतिथि कक्षों के लिए मैंने अनगिनत पेंटिंग्स बनायीं । इनमें फ्लोरल पेंटिंग्स, लैंडस्केप्स, स्टिल लाइफ, अमूर्त पेंटिंग्स तथा पोट्रेट्स भी शामिल थे । इनके लिए कई बार मुझे तस्वीरें दी जातीं थीं, जिन्हें देख कर मुझे पेंटिंग्स बनानी होती थीं; तो कई बार मुझे अपनी कल्पना से काम करने की भी छूट दी जाती थी । इस दौरान मुझे अन्य सरकारी विभागों तथा निजी क्षेत्रों से भी कमीशंड काम मिलना शुरू हो गया था । जहाँ जहाँ मेरे पति की पोस्टिंग होती गयी, जो प्रायः हर तीन वर्ष पर देश के विभिन्न इलाकों में होती गयी - वहाँ वहाँ मेरी प्रदर्शनी भी होती रहीं ।  इन प्रदर्शनियों ने मेरी पहचान एक व्यावसायिक कलाकार के रूप में स्थापित करने में बड़ी भूमिका निभाई । मेरे चित्रों की पहली एकल प्रदर्शनी करीब 19 वर्ष पहले, वर्ष 1999 के आरंभ में लोहितपुर, अरूणाचल प्रदेश में हुई थी, जिसमें ज्यादातर कृतियाँ स्थापित भारतीय व विदेशी कलाकारों की प्रतिकृतियाँ थीं । उन्हें मैंने स्वयं ही प्रेरित होकर बनाया था, और मुझे वास्तव में अनुमान नहीं था कि उन्हें देख कर लोगों की प्रतिक्रिया क्या होगी ? मुझे लेकिन बहुत ही सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली । इससे स्वाभाविक रूप से मेरा उत्साह बढ़ा । 
इसी दौरान मुझे राजस्थान के अलवर उत्सव में भी भाग लेने का मौका मिला और वहाँ के राजघराने के लोगों से मेरे काम को काफी सराहना मिली । वहाँ के ईटाराना पैलेस, जो अब सेना के अधीन है, के प्रवेशद्वार पर मेरी कृति आज भी स्थापित है, जो महाराजा जय सिंह का लाइफ साइज पोट्रेट है । हैदराबाद में मेरे चित्रों की प्रदर्शनियाँ कई बार हुई हैं और वहाँ के वीवीआईपी मेस के लिए मैंने कई बड़े साइज की कलाकृतियाँ बनायी हैं । पुराने सिकंदराबाद की तस्वीर का ब्लैक/व्हाइट में पुनर्रचना करना मेरे लिए खासा रोमांचपूर्ण रहा था । वहाँ कई अप्रवासी भारतीयों ने मेरे काम में अच्छी दिलचस्पी ली और उनमें से कई मेरे काम के खरीदार भी बने और इस तरह मेरी कलाकृतियाँ दूसरे देशों में भी पहुँचने लगीं । बेंगलुरु की रेनेसाँ ऑर्ट गैलरी ने अपनी एक समूह प्रदर्शनी में बुद्ध के निर्वाण पर बनाई सीरिज की मेरी कलाकृतियों को प्रदर्शित किया था, जिसके लिए मुझे खासी प्रशंसा व सकारात्मक परिणाम मिले थे । मैं पूरी तरह प्रोफेशनल चित्रकार बन चुकी थी और प्रायः हर विषय वस्तु पर मैंने काम कर लिया था । लेकिन इस उपलब्धि के बावजूद मैं अपने भीतर कहीं एक खालीपन महसूस करती थी; मेरे भीतर जैसे कुछ अटक रहा हो । दरअसल कला के जरिये पैसे कमाना मेरा मकसद नहीं था, लेकिन मैं कर वही रही थी; मैं कला को आंतरिक तौर पर महसूस करने की चाह में थी, लेकिन तमाम कामयाबी के बावजूद वही नहीं हो पा रहा था । 
यहाँ मैं एक बात और बताना चाहूंगी कि इस दौरान कई अलौकिक घटनाएं मेरे जीवन में घटित हो चुकी थीं, जिन्होंने मुझे यह विश्वास दिला दिया था कि इस भौतिक संसार से परे भी कुछ है जो मुझसे गहनता से जुड़ा है । जैसे जब से मैंने होश संभाला था मुझे अपने लिए और मेरे करीबी लोगों के लिए तीव्र पूर्वाभास हुआ करता था जो अत्यंत ही जीवंत हुआ करता था; न सिर्फ सुखद बल्कि दुखद बातें जो भविष्य में घटने वाली होती थीं, मुझे चलचित्र की भांति दिख जाती थीं और जो मुझे बेहद विचलित कर जाया करती थीं । हालाँकि मेरी कला यात्रा में मुझे इससे बहुत सहायता मिली, जैसे एक बार एक सांई भक्त आर्मी आफिसर को सत्य सांई की एक अद्भुत पेंटिंग बनवानी थी जो उनके अचेतन मन में उन्हें दिखती थी । उन्होंने अपने पूजा स्थल में रखी दस/बारह तस्वीरें ला कर मुझे दीं और बताया कि उन्हें पेंटिंग में हर एक फोटो से कुछ न कुछ चाहिए मसलन किसी की आंखें, किसी की मुस्कान, किसी का भाव, उन्हें सांई सात घोड़ों पर सवार दिखते थे और उनके पीछे रहस्यमय ब्रह्माण्ड । मैंने अपने हाथ खड़े कर दिए, क्योंकि वह पेंटिंग मेरी कल्पना से परे थी । लेकिन वो अड़े रहे कि उन्हें वह पेंटिंग मुझसे ही बनवानी है और सांई की दस ग्यारह किताबें मुझे ला कर दी और कहा कि कोई जल्दी नहीं है, तसल्ली से मैं किताबों को पढ़ूँ, सांई मुझे खुद राह दिखाएंगे । यहाँ मैं एक बात स्पष्ट करना चाहूंगी कि मैं धार्मिक नहीं थी और पूजा पाठ में मुझे कोई खास दिलचस्पी नहीं थी पर मैं आध्यात्म में अवश्य ही दिलचस्पी रखती थी । मैंने तीन चार महीनों तक किताबें पढ़ीं पर मुझे कुछ नहीं हासिल हुआ । मैंने उन्हें फोन किया कि मेरे बस का नहीं है यह काम; आप कृपया अपनी किताबें और तस्वीरें वापस ले जाएँ । उसी रात अर्धनिद्रा में अचानक मुझे वह पेंटिंग दिखी और मैं तुरंत उठ कर स्केच करने भागी । दो घंटे में 6 फीट/4फीट की पेंटिंग का स्केच तैयार था । फिर जैसे किसी शक्ति का मुझे अनुभव हुआ और दस दिनों में ही ऑयल पेंटिंग  तैयार हो गई । इस साईज की पेंटिंग में हालाँकि मुझे करीब एक महीने का समय लग जाता रहा है । मैं खुद चकित थी कि मैंने इतने कम समय में यह पेंटिंग कैसे बना ली । जब वह आफिसर पेंटिंग लेने आए तो पेंटिग देख कर खुशी में उनकी आँखों से अश्रुधारा बह निकली । उस दिन मुझे अहसास हुआ कि मैं सिर्फ एक माध्यम हूँ और मेरा खुद का कुछ नहीं है ।
ऐसी ही अनेक घटनाएँ होती रहीं जिन्होंने मुझे स्वयं की खोज करने के लिए बाध्य किया । इसके लिए मैंने ध्यान और योग का सहारा लिया । कई गुरुओं के बताए ध्यान के तरीकों को सीखा; योग, उर्जा, चक्रों के बारे में देशी और अंग्रेजी किताबें पढ़ीं । फिर जब मेरे पति की पोस्टिंग इलाहाबाद हुई और हम इलाहाबाद आए, तो उसी वर्ष यहाँ महाकुंभ का आयोजन था , जहाँ आस्था का एक सैलाब सा दिखा जिसने मेरे मनोमस्तिष्क पर गहरा असर किया । यहाँ पहुँचते ही जैसे मुझे आगे का रास्ता साफ दिखा और मैने 'आस्था' सीरिज के चित्र बनाने का निर्णय लिया । इन चित्रों में 'त्रिवेणी संगम', 'अवधूत', 'विश्वास', 'योग', 'इन सर्च ऑफ सेल्फ', 'मैनी लाइव्स मैनी रोल्स', 'शंखनाद', 'थ्रेड्स ऑफ फेथ', 'इंडिविजुअल क्वेस्ट', 'साधिका' शीर्षक कृतियाँ बनीं । 


आपने जो बताया, उससे पता चलता है कि आपकी कला चेतना का आध्यात्मिकीकरण एक प्रक्रिया का परिणाम है । कैनवस पर आपकी सृजन-यात्रा को देखें तो पाते हैं कि आपकी कला की इस आध्यात्मिक अवस्था ने आपके कैनवस के रूपाकारों को अमूर्तन में जाने से रोका है और रूपाकारों ने मूर्त रूप लिया है । पहले आपकी पेंटिंग्स के शीर्षक 'नॉस्टेल्जिया', 'एम्पटीनेस', 'व्हर्लविन्ड ऑफ इमोशंस एन मी', 'ल्युसिड एस्पिरेशंस', 'एज द वेटिंग एंड्स', 'इटरनल लव', 'श्रृंगार' आदि होते थे; लेकिन अब वह 'सीता', 'कृष्णा', 'गणेशा', 'उर्वशी', 'सूर्य', 'वन देवी', 'सरस्वती' होने लगे हैं । इससे लग रहा है कि आपकी कला में अध्यात्म व्यक्तिवादी हो गया है । इस बदलाव को एक सचेत नागरिक के रूप में आप स्वयं कैसे देखती हैं ?

'आस्था' सीरिज की पेंटिंग्स के बाद मैंने नारी संवेदनाओं पर काम शुरू किया जो कि मेरे निजी जीवन के उथल पुथल का  सृजनात्मक परिणाम था । मेरे पति एक वर्ष के लिए विदेश की पोस्टिंग पर गए थे, और उस दौरान घर/परिवार की सारी जिम्मेदारी मेरे ही कंधों पर आ पड़ी थी । आर्मी परिवार में महिला की जिंदगी काफी चुनौतियों से भरी होती है और उसके मन में तमाम मनोभाव चलते रहते है । उन मनोभावों के अंतर्द्वंदों को मैंने अपनी कला के जरिये साधने की कोशिश की है । 'इमोशंस' सीरिज के चित्र उसी का परिणाम था । उस सीरिज की अंतिम पेंटिंग 'एज द वेटिंग एंड्स' थी, जो मेरे पति के विदेश की पोस्टिंग से लौटने पर मेरे मन में उमड़े भावों की अभिव्यक्ति थी । 
पूर्वाभास की प्रक्रिया के चलते मुझे मेरी माँ के निधन का आभास हो गया था, जिस कारण मेरा मन अत्यंत विचलित रहा करता था । मेरे इसी विचलन के बीच हुआ माँ का निधन शायद मेरी जिंदगी का एक टर्निंग प्वाइंट बना और मैं अपनी कला यात्रा में वापस पौराणिक पात्रों के चित्रण पर लौट आई । रूपाकारों का मूर्त रूप होना शायद मुझे मेरे अंतर्द्बंदों को चित्रित करने के लिए आवश्यक जान पड़ने के कारण हुआ । आध्यात्म को सरल रूप में दर्शाने के लिए पौराणिक प्रसंगों को व्यक्तिवादी चित्रण के रूप में अभिव्यक्त करना मुझे जरूरी लगा; क्योंकि पात्रों के जरिये आध्यात्म समझना सरल हो जाता है । वस्तुतः मैंने कुछ नया नहीं किया क्योंकि शायद हिंदू धर्म में मूर्तियों का निर्माण भी इसी उद्देश्य से किया गया होगा, जिससे कि भारतीय दर्शनशास्त्र को धर्म के सहारे और वेदों की गूढ़ बातें पौराणिक पात्रों के जरिये समझी जा सकें । 

पौराणिक पात्रों/चरित्रों के चित्रांकन में आकृतियों का चुनाव आप किस आधार पर करती हैं ?

पौराणिक पात्रों की आकृतियों का चुनाव शायद अचेतन मन से होता है । मुझे बचपन से ही पौराणिक कथाओं को पढ़ने, सुनने और जानने की अत्यधिक रुचि थी । किताबों ने मेरी कल्पनाशक्ति को बढ़ाने में बहुत योगदान दिया है । कथाओं को सुनते/पढ़ते हुए बाल मन हमेशा कल्पना चित्र बनाता है; और फिर अमर चित्र कथाएँ जैसी किताबें उन्हें और सजीव बनाने का काम करती हैं । बाद में महाभारत और रामायण के हर किरदार पर आधारित किताबें मैंने पढ़ीं, जिन्होंने कल्पना-शक्ति को और विस्तार दिया । आज भी जब मैं ब्रश उठाती हूँ तो जैसे वही कल्पना-चित्र जीवंत हो उठते हैं ।

पौराणिक पात्रों/चरित्रों के चित्रण में आपने प्रकृति-उपकरणों - फूल/पत्तियों को भी चित्रण में लिया है । ऐसा करने के पीछे आपका क्या उद्देश्य रहा है ?

प्रकृति सदा ही मेरे लिए ऊर्जास्रोत रही है; फूल पौधों के बिना मैं जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकती । अक्सर नए विचार मुझे प्रकृति की निकटता से ही आते हैं । मेरी कला और कविता प्रकृति से एकाकार होने पर ही प्रस्फुटित होती है । शायद यही कारण है कि प्रकृति-तत्त्व अपने आप ही मेरी कलाकृतियों में प्रस्फुटित हो जाते हैं । मेरी पेंटिंग्स में प्रकृति-उपकरणों तथा फूल/पत्तियों के चित्रण के पीछे आध्यात्म भी एक प्रमुख कारण है, जिसके अनुसार स्त्री को प्रकृति स्वरूप माना गया है । शिव को चेतना के प्रतीक के रूप में देखा/समझा जाता है और शक्ति को प्रकृति के रूप में ।

यह सायास हो रहा है; या जान कर, बहुत सोच-विचार कर आप ऐसा कर रही हैं ?

अपनी कला चेतना में मैंने महसूस किया और पाया है कि यह हमारे चाहने से आकार नहीं लेती है, यह एक ऐसी उर्जा है जो स्वतः प्रवाहित होती है, और इसे ससम्मान धारण कर निकलने देना ही उचित है । इसमें किसी प्रकार का वैचारिक, मानसिक विघ्न ठीक नहीं । किसी भी कलाकृति का अस्तित्व तो सूक्ष्म रूप में पहले से ही है, भौतिक जगत में उसे लाने के मामले में हम कलाकार तो उसके सिर्फ माध्यम भर ही हैं । इस समझ और अहसास के चलते मैं ज्यादा सोच-विचार कर पेंटिंग की राह में विघ्न नहीं डालती, बस उसे घटने देती हूँ जो मेरे माध्यम से अस्तित्व में आना है


पौराणिक कथाओं पर आधारित चित्र-रचना में रंगों की संगति आप अपने अनुभव और अपनी कल्पनाशक्ति से बैठाती हैं, या पौराणिक प्रसंगों व चरित्रों से जुड़ी अवधारणा को ध्यान में रखते हुए तय करती हैं ? 

ज्यादातर रचना कल्पनाशक्ति पर आधारित होती है जो अस्तित्व में आने के पहले मेरे अचेतन मन में कहीं अपनी उपस्थिति का अहसास करा जाती है । कई वर्षों पहले सैयद हैदर रज़ा जी से उनके पेरिस के निवास पर मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था और उन्होंने मुझे जीवन की सबसे बहुमूल्य सीख दी थी जो शायद मेरे अंतःमन में स्थित हो गई है । उन्होंने कहा था कि अपनी कलायात्रा में सदैव एक बात याद रखना कि तुम्हारी रचना में रंगों के संयोजन में उनकी शत्रुता न दिखे । रंगों के चुनाव की प्रक्रिया स्वतः होती है, उसे लेकर मैं बहुत ज्यादा विचार नहीं करती । जैसे कि हाल ही में मैंने 'सरस्वती' शीर्षक पेंटिंग बनाई, जिसमें ज्ञान की अभिव्यक्ति है कि कैसे ज्ञान अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है; उस पर काम शुरू करते ही नीला रंग स्वतः उभर आया जो अनंत का सूचक है; ज्ञान आकाश और सागर जितना ही अनंत व रहस्यमय है । 'शिव' शीर्षक से मैंने जो पेंटिंग बनाई है उसमें शिव को चेतना के रूप में दर्शाया है जो पंच तत्त्व में निहित है; पेंटिंग में मैंने उन सभी तत्त्वों को दर्शाने का प्रयास किया है और उनसे ही संबंधित रंगों का चयन किया । 'कृष्ण' शीर्षक पेंटिंग में गोपियों को हरे रंग में दर्शाया है जो प्रकृति का स्वरुप है ।

विविधताओं से गुजरते हुए आपने अपनी एक चित्रभाषा को आविष्कृत किया है और उसे सिद्ध किया है । पौराणिक कथाओं से जुड़े प्रसंगों व पात्रों पर बनी आपकी पेंटिंग्स एक चित्रकार के रूप में आपकी पहचान बन गईं हैं । क्या आपने यह सोच लिया है कि यही वह पड़ाव है, जिसे एक चित्रकार के रूप में आप पाना चाहती थीं ?

मेरे लिए कला सिर्फ साधना का अभ्यास है और साधना का कोई पड़ाव निश्चित नहीं किया जा सकता है । इस प्रक्रिया में अगर मुझे एक चित्रकार की पहचान मिल जाती है तो वह ईश्वरीय कृपा है । अन्यथा पहचान बनाने की इच्छा से मैं काम नहीं करती । मैंने खुद को किसी एक शैली में बांधने की कोशिश नहीं की है, क्योंकि हर बंधन से मुक्त होने पर ही सही मायने में कला को जीवंत रूप से जीया जा सकता है । 


आपकी चित्र-भाषा जब पौराणिक कथाओं और चरित्रों पर केंद्रित होने की तरफ बढ़ रही थी, उससे लगभग ठीक पहले ही वर्ष 2015 में आयोजित हुए अंतर्राष्ट्रीय आधुनिक व समकालीन कला मेले 'ऑर्ट मोनाको 2015' में तथा जनवरी 2017 में दिल्ली में आयोजित 'इंडिया ऑर्ट फेस्टिवल' में तथा अक्टूबर 2017 में पेरिस के एक बड़े व प्रख्यात शॉपिंग मॉल में प्रतिवर्ष 'ऑर्ट शॉपिंग लॉवरे' शीर्षक से आयोजित  होने वाले ऑर्ट शॉपिंग ट्रेड शो के लिए आपकी पेन्टिंग्स का चयन हुआ था । देशी/विदेशी कलाकारों के काम के साथ अपनी पेंटिंग्स प्रदर्शित करने का आपका अनुभव कैसा रहा था ? आपकी चित्र-भाषा में आये बदलाव में उस अनुभव की कोई भूमिका रही है क्या ?

देश के विभिन्न शहरों की कला गतिविधियों के साथ-साथ मुझे दो अंतराष्ट्रीय कला आयोजनों में भी हिस्सा लेने का अवसर मिला है । हर मौके पर देश/विदेश की विलक्षण प्रतिभाओं से परिचित होने व संवाद करने का काम हुआ ही । इससे काम की विविध तकनीकों को समझने का मौका मिला, जो मेरे लिए अत्यंत प्रेरणास्पद व ज्ञानवर्धक साबित हुआ । बहुत सारे वरिष्ठ कलाकारों के आशीर्वाद और सुझावों से मेरी कला पर काफी प्रभाव पड़ा । विदेशी कलाकारों से मेरी मित्रता हुई जो हर समय सुझाव और मदद देते रहते है, और यह ईश्वरीय कृपा बरकरार है । अंतर्राष्ट्रीय कला आयोजनों में हिस्सा लेने के पूर्व मैं ज्यादातर ऑयल में काम किया करती थी । एक्रिलिक को ज्यादा समझने का मैंने प्रयास नहीं किया था । विदेशी कलाकारों से मिलने और उनका काम देखने के बाद मैं एक्रिलिक पर ध्यान देने के लिए प्रेरित हुई । टेक्स्चरिंग के लिए मैंने एक्रिलिक में जो प्रयोग किए, उनका चमत्कारिक असर मैंने देखा/पाया । रंग लगाने में नाइफ के इस्तेमाल को लेकर तथा वॉश टेक्निक को बारीकी से समझने का मुझे मौका मिला । यूरोपीय यथार्थवादी स्टाइल मुझे पहले से ही प्रभावित करता रहा है । ईरान में जन्में अमेरिका में रह रहे फरीदूँ रसौलि के स्वप्निल व अतियथार्थवादी चित्रों ने भी मुझे शुरू से ही आकर्षित और प्रभावित किया है । एक रूसी कलाकार से थ्रेड (एम्ब्रॉयडरी) ऑर्ट तथा एक कनाडियन कलाकार से कोलाज ऑर्ट सीखना मेरे लिए बड़ा रोमांचपूर्ण रहा है ।

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