ऑर्ट गैलरीज के पुराने ढर्रे पर ही कायम रहने के कारण उनके द्वारा आयोजित 'देहली कंटेम्पररी ऑर्ट वीक' एक आम समूह प्रदर्शनी जैसा आयोजन बन कर ही रह गया, और अपने उद्देश्य को प्राप्त कर पाने में नितांत असफल रहा है


'देहली कंटेम्पररी ऑर्ट वीक' शीर्षक से 27 से 30 अगस्त के बीच इंडिया हैबिटेट सेंटर की विजुअल ऑर्ट्स गैलरी में हुआ आयोजन आयोजक ऑर्ट गैलरीज के लिए ढाक के तीन पात ही साबित हुआ है । इस आयोजन को दिल्ली की सात बड़ी ऑर्ट गैलरीज की तरफ से ऑर्ट के नए खरीदारों को खोजने और उन्हें ऑर्ट का ग्राहक बनाने की कोशिश और तैयारी के रूप में देखा/पहचाना गया; लेकिन खुद आयोजक गैलरीज के लोगों का ही मानना और कहना है कि अपना लक्ष्य पाने में इस महत्त्वाकांक्षी आयोजन से कोई खास उत्साहजनक नतीजे नहीं मिले हैं । ऑर्ट वीक का उद्देश्य लोगों को ऑर्ट के प्रति शिक्षित और जागरूक बनाने/करने तथा युवा कलाकारों व उनके काम को प्रमोट करना बताया गया था । लेकिन इन मामलों में भी कुछ होता हुआ दिखा नहीं । कुछ होता हुआ दिखना तो दूर की बात, चार दिनों के इस आयोजन में कुछ किया जाता हुआ भी नहीं नजर आया । लगता है कि आयोजक गैलरीज के कर्ता-धर्ताओं ने यह मान लिया था कि आयोजन के नाम पर कुछ युवा कलाकारों के काम प्रदर्शित कर देने भर से 'लोग' ऑर्ट के प्रति शिक्षित व जागरूक भी हो जायेंगे, और युवा कलाकार और उनका काम प्रमोट भी हो जायेगा - लिहाजा उससे ज्यादा या उसके अलावा उन्हें और कुछ करने की जरूरत ही नहीं है । माना/समझा जा रहा है कि ऑर्ट गैलरीज इस समय बहुत ही बुरे दौर से गुजर रही हैं, और भारी संकट का सामना कर रही हैं । दरअसल भारतीय कला का बाजार एक तरफ तो मुश्किल से दस-बारह बड़े कलाकारों तक ही सिमटा हुआ है; दूसरी तरफ, जिन पर भी ऑक्शन हाउसेस, निजी म्यूजियम्स तथा बड़े ऑर्ट डीलर्स ने कब्जा किया हुआ है । ऐसे में, ऑर्ट गैलरीज के पास काम/बाजार न के बराबर ही है और इसके चलते उनकी पहचान और हैसियत भी घटती जा रही है । हालात की गंभीरता और ऑर्ट गैलरीज की मुसीबतों व उनकी मजबूरी का अंदाजा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि बड़े ऑर्ट डीलर के रूप में देखे/पहचाने जाने वाले 'नेचर मोर्ते' तक को 'देहली कंटेम्पररी ऑर्ट वीक' में शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ा है ।
मजे की बात यह है कि ऑर्ट गैलरीज की मौजूदा दशा के लिए खुद उनके ही किये धरे को जिम्मेदार माना/ठहराया जा रहा है । भारतीय ऑर्ट बाजार की दुर्दशा के लिए ऑर्ट गैलरीज के रवैये को ही कारण के रूप में देखने वालों का मानना/कहना है कि उदारवादी अर्थव्यवस्था के चलते कला-बाजार में जो उथल-पुथल मची, उसका फायदा उठाने के लिए ऑर्ट गैलरीज के प्रबंधकों ने 'शॉर्टकट पेंटर्स' की एक बड़ी फौज तो खड़ी कर दी, लेकिन जो रचनात्मक बेचैनी और बौद्धिक उत्तेजना से कोसों कोसों दूर बने रहे; जिनके 'काम' से ज्यादा 'बायोडाटा' का 'शोर' मचा - इस शोर में फलाँ कलाकार की पेंटिंग 'इतने में बिकी' या 'कहाँ से' और 'कैसे बिकी'; कौन गैलरी किसे प्रमोट कर रही है, और किसने ज्यादा कीमत के चक्कर में किस गैलरी का साथ पकड़ लिया है, या कौन सीधे ही अपनी पेंटिंग्स बेचने लगा है - जैसे सवाल महत्त्वपूर्ण हो उठे । हद की बात यह भी हुई कि आकार के हिसाब से कृतियों की कीमत तय होने लगी । ऐसे में, ऑर्ट गैलरीज की भी और बदकिस्मती की बात यह रही कि कलाकारों की भी दिलचस्पी 'दर्शकों' की बजाये 'ग्राहकों' तक ही सिमट गई । इस तरह कला को एक विशिष्ट 'चीज' बना दिया गया, और उसे एक बड़ी आबादी से दूर कर दिया गया । बाजार के दबाव में हुई इस तरह की बातों ने कलाकार और कला की स्वाभाविकता को खोने के साथ-साथ भविष्य की संभावनाओं को भी बाधित कर दिया । आर्थिक उदारीकरण के चलते पूँजी के आवागमन की आँधी का दौर थमा और तमाम देशों की अर्थव्यवस्थाएँ संकट में पड़ीं, तो उसका सबसे बुरा असर कला बाजार - खासकर भारतीय कला के बाजार पर पड़ा । भारतीय कला और कलाकारों को विश्व बाजार में भी मात खानी पड़ी, और घरेलू बाजार में भी खरीदार पीछे हटे । इस स्थिति के चलते ऑर्ट गैलरीज के लिए दोहरे झटके की स्थिति बनी - एक तरफ तो उनके यहाँ कला के ग्राहकों की भीड़ कम हुई, और दूसरी तरह कला-बाजार में जो ग्राहक बचे भी वह ऑक्शन हाउसेस, निजी म्यूजियम्स तथा बड़े ऑर्ट डीलर्स की तरफ चले गए ।
इस दोहरे झटके से उबरने के लिए ऑर्ट गैलरीज के प्रबंधकों को लोगों को ऑर्ट के प्रति शिक्षित और जागरूक बनाने/करने की जरूरत महसूस हुई है, तो यह ठोकर खाकर सबक सीखने का ही एक उदाहरण है - और इसका स्वागत किया जाना चाहिए; हमारे यहाँ माना/कहा भी जाता है कि जब जागो, तब सवेरा । लेकिन 'देहली कंटेम्पररी ऑर्ट वीक' को जिस तरह से अंजाम दिया गया, उसे देख कर लगता नहीं है कि इसकी आयोजक गैलरीज के प्रबंधक सचमुच 'जाग' रहे हैं । आयोजकों का अपने वक्तव्य में यह कहना कि 'कम से कम ऑर्ट की खातिर तो ऑर्ट खरीदिये' - तो गिड़गिड़ाना है; इसमें पेशेवर नजरिया और मार्केटिंग वाली सोच भला कहाँ है ? 'ऑर्ट वीक' में गैलरीज ने जितिश कल्लट, अतुल डोडिया, अंजु डोडिया, जितेन ठुकराल, सुमिर तगरा, केएम मधुसूधन, रनवीर कालेका, मंजुनाथ कामथ, वसीम अहमद, विपुल कुमार, सुदीप्त दास, राधिका अग्रवाल, प्रियंका डिसूजा, नूर अली, नियति चड्ढा आदि के साथ-साथ आस-पड़ोस के देशों के कुछेक कलाकारों का काम प्रदर्शित किया । यह सभी कलाकार गैलरीज के 'ब्ल्यू-ऑइड बॉय' रहे हैं और यहाँ प्रदर्शित अधिकतर काम पहले प्रदर्शित और तरह तरह से चर्चित हो चुके हैं ।  इसलिए यह समझना मुश्किल है कि जिन कलाकारों और उनके कामों से गैलरीज को अपने आपको 'बचाने' का मौका नहीं मिला, और वह मुसीबतों में धँसती चली जा रही हैं - उन्हीं कलाकारों और कामों  के सहारे गैलरीज अपने आपको बचाने का प्रयास क्यों कर रही हैं ? उम्मीद की जा रही थी कि 'ऑर्ट वीक' के आयोजन के पीछे जो 'जरूरत' देखी/समझी जा रही है, उसे पूरा करने के लिए गैलरीज नए कलाकारों और या नए कामों का सहारा लेंगी । उनके द्वारा ऐसा न करने का अर्थ यही लगाया जा रहा है कि मुसीबत का सामना कर रही गैलरीज मुसीबत के पैदा होने के कारणों को समझ/पहचान नहीं रही हैं, और इसीलिए कोई नया कदम नहीं उठा रही हैं - और अपने पुराने ढर्रे पर ही कायम हैं । इसीलिए खासी महत्त्वाकांक्षा के साथ आयोजित किया गया चार दिवसीय 'देहली कंटेम्पररी ऑर्ट वीक' एक आम समूह प्रदर्शनी जैसा आयोजन बन कर ही रह गया, और अपने उद्देश्य को प्राप्त कर पाने में नितांत असफल रहा है ।

Comments

  1. समकालीन चित्रकारों मे बहुत से कलाकारों मे भविष्य की गहरी सोच
    हे जो उनकी कलाकृतियों मे दिखाई देता
    है परंन्तु भारत मे मध्यम वर्गीय परिवार
    अधिक होने के कारण प्रोत्साहन का अभाव रहता है एवं प्रिंट तथा
    टेक्नोलॉजी का भी काफी प्रभाव कला के मूल एवं नवीन यूवा कलाकारो पर पड़ रहा हे जो की अभी भारतीय कला
    विधालयों से काफी दूर हे.

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