शुरू में जब स्वामीनाथन के चित्रों को यह कहते हुए समूह प्रदर्शनी में शामिल करने से इंकार कर दिया गया था कि 'स्वामीनाथन चित्रकार नहीं है, वह तो पत्रकार है'
समकालीन भारतीय कला में जगदीश स्वामीनाथन का आज बड़ा नाम है, लेकिन उनकी कलायात्रा के शुरुआती दिनों का वह प्रसंग खासा दिलचस्प है - जब
दिल्ली में आयोजित हो रही एक समूह प्रदर्शनी में उनका काम शामिल करने से
इंकार कर दिया गया था, और इंकार करने का फैसला भी जिन लोगों ने किया था, वह
उनके अच्छे परिचित और मित्र थे ।
विनोद भारद्वाज ने परमजीत सिंह पर लिखी अपनी किताब में सूरज घई के हवाले
से इस घटना का विस्तृत विवरण दिया है । इस विवरण के अनुसार, 'सेवेन
पेंटर्स' नाम से बने एक ग्रुप ने 1961 में दिल्ली में एक नए कला-आंदोलन की
शुरुआत की, जिसे 'अननोन' नाम दिया गया था । उक्त ग्रुप में परमजीत सिंह,
आरके धवन, वेद नायर, विद्यासागर कौशिक, अमल पाल, सूरज घई और आरके भटनागर
सदस्य थे । इस ग्रुप ने दिसंबर 1958 में आईफैक्स में समूह प्रदर्शनी की थी,
जिसे खासी प्रशंसा मिली थी । इसके बाद इस ग्रुप में दो और लोग जुड़े -
एरिक बोवेन और नरेंद्र दीक्षित । रफी मार्ग पर स्थित आईईएनएस बिल्डिंग में
इन नौ कलाकारों के काम की प्रदर्शनी आयोजित हुई, जिसका उद्घाटन तत्कालीन
केंद्रीय शिक्षा व संस्कृति मंत्री डॉ हुमायूँ कबीर ने किया था । इसी प्रदर्शनी के दौरान नरेंद्र दीक्षित ने जगदीश स्वामीनाथन का परिचय ग्रुप के अन्य सदस्यों से करवाया था । नरेंद्र दीक्षित की स्वामीनाथन से दोस्ती थी, और उन्हीं के निमंत्रण पर स्वामीनाथन आईईएनएस में आयोजित हो रही उस समूह प्रदर्शनी को देखने आए थे ।
स्वामीनाथन
उन दिनों 'लिंक' में कला समीक्षक के रूप में काम करते थे, और कलाकारों के
बीच उनका अच्छा नाम था । स्वामीनाथन ने हालाँकि पेंट करना शुरू कर दिया था,
पर उनके कलाकार रूप से ज्यादा लोग परिचित नहीं थे । 'अननोन' नाम से शुरू
हुए कला-आंदोलन में स्वामीनाथन की भी वैचारिक भूमिका थी । कुछेक लोगों
का तो कहना है कि 'अननोन' को वैचारिक रूप से व्यवस्थित बनाने/करने का काम
स्वामीनाथन ने ही किया था । दरअसल नरेंद्र दीक्षित द्वारा परिचित कराये
जाने के बाद स्वामीनाथन की ग्रुप के सदस्यों के साथ जो बातचीत हुई, उसमें
ही 'अननोन' के बीज पड़ गए थे । 'अननोन' का संविधान भी बनाया गया था,
जिसे बनाने/तैयार करने के लिए हुई बैठकों में स्वामीनाथन भी शामिल हुए थे ।
हालाँकि स्वामीनाथन ने उस संविधान पर हस्ताक्षर नहीं किए थे । 'अननोन' से
इस बीच अर्पिता दत्ता, इंद्रजीत, नंद कात्याल, एसएस वोहरा भी जुड़े । 'अननोन'
दिल्ली में अपने ढंग का पहला ग्रुप था । इसे भवेश चंद्र सान्याल ग्रुप के
प्रतिद्धंद्धी के रूप में देखा गया था । दिल्ली के कला परिदृश्य में उस समय
भवेश चंद्र सान्याल का एकछत्र राज था, जो शिल्पीचक्र के जरिये कला
गतिविधियों को संयोजित करते थे ।
'अननोन' की पहली प्रदर्शनी की तैयारी शुरू हुई, लेकिन प्रदर्शनी शुरू होने के करीब 15 दिन पहले साथी कलाकारों के बीच स्वामीनाथन के काम को प्रदर्शनी में शामिल करने को लेकर विवाद छिड़ गया । ग्रुप
के कई लोगों ने सवाल उठाया कि स्वामीनाथन का काम देखे बिना उन्हें
प्रदर्शनी में कैसे शामिल किया जा सकता है ? विवाद बढ़ा, तो तय हुआ कि सूरज
घई और नरेंद्र दीक्षित उनके घर जा कर उनका काम देखेंगे और फिर उन्हें शामिल
करने के बारे में फैसला किया जायेगा । स्वामीनाथन उन दिनों करोलबाग
में रहते थे । सूरज घई और नरेंद्र दीक्षित उनके घर गए, जहाँ स्वामीनाथन ने
लीथोग्राफ में किया अपना काम उन्हें दिखाया । दोनों ने स्वामीनाथन के काम
को पसंद किया । आरके धवन ने लेकिन उनकी 'रिपोर्ट' को स्वीकार नहीं किया;
उन्होंने घोषणा की कि वह खुद स्वामीनाथन का काम देखेंगे, और तभी स्वामीनाथन को प्रदर्शनी में शामिल करने पर फैसला करेंगे । एरिक
बोवेन ने स्वामीनाथन को प्रदर्शनी में शामिल करने का भारी विरोध किया ।
उन्होंने तर्क दिया कि स्वामीनाथन चित्रकार नहीं है, वह तो पत्रकार है ।
'अननोन' की प्रदर्शनी में स्वामीनाथन का काम अंततः प्रदर्शित नहीं ही हो सका । मजे की बात यह है कि 'अननोन' के बनने के दौरान हुई मुलाकातों में
एरिक बोवेन और स्वामीनाथन की अच्छी दोस्ती हो गई थी । स्वामीनाथन ने 1963
में हिम्मत शाह, अंबा दास, गुलाम मोहम्मद शेख व जेराम पटेल के साथ मिल कर
जब 'ग्रुप 1890' बनाया था, तो एरिक बोवेन उसमें शामिल हुए थे । स्वामीनाथन
की कामयाबी की कहानी बताती है कि अपनी कला-यात्रा के बिलकुल शुरू में ही
उपेक्षा और विरोध के धक्के का उन पर कोई असर नहीं पड़ा और अपनी सृजनात्मकता
के बल पर उन्होंने अपना रास्ता स्वयं बनाया तथा समकालीन भारतीय कला में
अपनी अमिट जगह बनाई ।
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