गढ़ी में 'संडे ऑर्ट हाट' उर्फ ठेले पर कला

ललित कला अकादमी के गढ़ी रीजनल सेंटर में पिछले कुछ रविवारों से 'संडे ऑर्ट हाट' देखने को मिल रहा है, जहाँ चित्रकार/कलाकार अपनी अपनी पेंटिंग्स और या स्कल्प्चर को पटरी बाजार की दुकानों की तरह सजाते हैं, और उनके बिकने का इंतजार करते रहते हैं । बीच बीच में ऊबते हुए एक दूसरे की 'दुकान' पर बैठ कर गप्पें करते हैं और शाम ढलते अपनी अपनी दुकान समेट कर घर लौट जाते हैं । यह नजारा देख कर मुझे गढ़ी के पूर्व निदेशक नरेंद्र दीक्षित की याद हो आई । नरेंद्र दीक्षित जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी से रिटायर होने के बाद करीब तीन वर्ष गढ़ी के निदेशक रहे थे । प्रख्यात ब्रिटिश पेंटर और प्रिंटमेकर स्टेनले विलियम हेतर से 'ग्रावुरे' जैसी प्रिंटिंग तकनीक सीखने और पेरिस स्थित 'अटेलिएर 17' में साठ के दशक के अंत में तब के प्रमुख चित्रकारों के साथ काम कर चुके नरेंद्र दीक्षित ने अपने चित्रों की दिल्ली, पेरिस व कोपेनहेगेन में दस एकल प्रदर्शनियाँ की थीं, तथा देश-विदेश में आयोजित हुईं 22 समूह प्रदर्शनियों में उनके चित्र प्रदर्शित हुए हैं । बात अप्रैल 2000 में दिल्ली के मैक्स मुएलर भवन में आयोजित उनके प्रिंट्स की एकल प्रदर्शनी के दौरान की है । एक शाम एक कलाप्रेमी उनसे मिले और शिकायत करने लगे कि मैं एक दिन पहले भी आया था और आज दिन में भी आया था, लेकिन आप यहाँ मिले ही नहीं । नरेंद्र दीक्षित ने उनकी शिकायत पर किंचित नाराजगी दिखाते हुए पूछा कि मुझे हमेशा यहाँ क्यों मौजूद रहना चाहिए ? नरेंद्र दीक्षित के इस सवाल से उक्त शिकायतकर्ता कुछ सकपका गए और उन्हें तुरंत इसका जबाव नहीं सूझा । तब नरेंद्र दीक्षित ने ही बात को आगे बढ़ाया और कहा कि एक चित्रकार से यह उम्मीद क्यों की जाती है कि अपने चित्रों के प्रदर्शनी स्थल पर हमेशा ही मौजूद रहे ? मेरे चित्र यहाँ प्रदर्शित हैं; आप उन्हें देखिये - उन्हें देखते हुए आप आनंदित होना चाहते हैं, तो आनंदित होइये; उनके साथ इन्वॉल्व फील करते हैं और उन्हें जानना/समझना चाहते हैं, जानने/समझने की कोशिश कीजिये । मुझसे बात करना चाहते हैं तो यहाँ आपको मेरा फोन नंबर मिल जायेगा, फोन पर मुझसे बात कर लीजिये । मुझसे मिलना चाहते हैं, तो फोन पर बात करके मिलने का समय तय कर लीजिये । नरेंद्र दीक्षित ने एक बार फिर जोर देकर कहा कि आप यह उम्मीद क्यों करते हैं कि मैं यहाँ आपको हमेशा बैठा हुआ मिलूँ ? मैं कोई दुकानदार हूँ ?
उक्त कलाप्रेमी जब थोड़ी-बहुत बात करके चले गए, तब नरेंद्र दीक्षित ने अपना बचा हुआ 'गुस्सा' मेरे समक्ष निकाला । दरअसल इसके लिए उन्हें मेरे ही एक सवाल ने उकसाया । मैंने पूछा कि जब एक चित्रकार अपने खुद के प्रयत्नों से अपने चित्रों को प्रदर्शित करता है, तब वह क्या एक 'दुकानदार' की ही भूमिका में नहीं होता है ? मुझे बखूबी याद है कि उन्होंने तपाक से जबाव दिया था कि हाँ, होता है । उनका कहना रहा कि एक चित्रकार जैसे ही अपना काम किसी दूसरे को दिखाने के लिए प्रवृत होता है, वह एक 'दुकानदार' की भूमिका में आ जाता है; लेकिन वह उपभोक्ता वस्तुओं को बेचने की इच्छा रखने व कोशिश करने वाले दुकानदार से 'एक अलग तरह' का दुकानदार होता है । उनके और मेरे बीच जो बातचीत हुई उसमें इस बात पर सहमति बनी कि कला चूँकि मनुष्य की किसी जरूरत और या उसके किसी प्रयोजन को पूरा नहीं करती है, इसलिए उसे आम उपभोक्ता वस्तुओं की तरह नहीं बेचा जा सकता है । नरेंद्र दीक्षित ने कहा/बताया कि उन्हें यह देख कर बहुत बुरा लगता है कि अपने चित्रों की प्रदर्शनी कर रहा चित्रकार सुबह से शाम तक गैलरी में बैठा रहता है और गैलरी में हर आने वाले को अपने काम के एक संभावित ग्राहक के रूप में देखता है, और या किसी ग्राहक के आने का इंतजार करता रहता है । जो कलाकार अपने काम में कल्पनाशीलता और प्रयोगधर्मिता का पालन करता है, वह प्रदर्शनी स्थल पर बिताए जाने वाले अपने समय का कोई कल्पनाशील व प्रयोगधर्मी उपयोग नहीं करता है । उन्होंने बताया था कि गढ़ी के निदेशक के रूप में उन्होंने युवा कलाकारों को कला-बाजार में अपनी मौजूदगी बनाने/जताने के लिए प्रशिक्षित करने के कुछ प्रयास किए थे, लेकिन जो उनका कार्यकाल खत्म हो जाने के कारण संगठित रूप नहीं ले सके थे और फिर मामला जहाँ का तहाँ ही रह गया ।
नरेंद्र दीक्षित का कहना था कि अफसोस की बात है कि कला संस्थाएँ कलाकारों को बाजार ढूँढने/बनाने और बाजार में अपनी मौजूदगी बनाने/जताने के हुनर में प्रशिक्षित करने में कोई दिलचस्पी नहीं लेती हैं, और अधिकतर कलाकार आम दुकानदारों वाले रास्ते ही अपनाते हैं - जिस पर चल कर वह बार बार अपमानित होते हैं और निराश होते जाते हैं । कभी-कभार कोई अपना काम बेच लेने में सफल भी हो जाता है, लेकिन यह सफलता कुल मिला कर संयोग व किस्मत से मिली सफलता जैसी ही होती है । ललित कला अकादमी की गढ़ी में 'संडे ऑर्ट हाट' सुन/देख कर नरेंद्र दीक्षित की याद आने का कारण यही रहा कि पिछले करीब दो दशकों में उनके बाद गढ़ी का प्रबंधन संभालने वाले पदाधिकारियों ने उनके द्वारा शुरू किए प्रयासों को आगे बढ़ाने की बजाए उन्हें दफनाने का ही काम किया, जिसके चलते हालात आज भी वही हैं - जिन्हें लेकर नरेंद्र दीक्षित अफसोस व्यक्त किया करते थे । 'ऑर्ट हाट' के नाम पर गढ़ी में कला को जिस तरह से ठेले पर लदवा देने का काम किया जा रहा है, और इसे एक 'यूनीक अपॉर्च्यूनिटी' बताया जा रहा है, उसे यदि नरेंद्र दीक्षित की आत्मा देख रही होगी, तो निश्चित ही और ज्यादा निराशा से भर गई होगी ।  
सवाल दरअसल यही है कि ऑर्ट का बाजार क्या 'हाट' बाजार की तरह होता है और या बनाया जा सकता है, और दूसरी उपभोक्ता वस्तुओं की तरह क्या ऑर्ट को बेचा जा सकता है ? जिन कलाकारों को गैलरीज व प्रमोटर्स का सहारा नहीं है, वह कला-बाजार में अपनी मौजूदगी आखिर कैसे बनाएँ ? यह सवाल और ज्यादा गंभीर इसलिए भी बन जाता है, क्योंकि अधिकतर कलाकार इस सवाल पर माथापच्ची ही नहीं करना चाहते हैं - और अपने आप को किस्मत के हवाले कर देते हैं । जो प्रयास करते भी हैं, वह इतने बेहूदा और अनगढ़ तरीके से करते हैं कि उन प्रयासों को कोई नतीजा न निकलना होता है और न निकलता है । एक कलाकार के 'जीवन' को मैं मोटे तौर पर तीन चरणों में देखता हूँ : पहला चरण, जब वह काम करता है; दूसरा चरण, जब वह अपना काम प्रदर्शित करता है; और तीसरा चरण, जब वह अपनी पहचान बनने और बाजार पाने की उम्मीद करता है । मेरा अनुभव है कि प्रायः सभी कलाकार पहले चरण में विषय से लेकर माध्यम (पेपर, पेंसिल, कागज, केनवस, कलर्स आदि) चुनने में अपनी पूरी अक्ल, एनर्जी व समय लगाते हैं; दूसरे चरण में भी फ्रेमिंग, गैलरी, केटलॉग, उद्घाटनकर्ता आदि का चयन करने में भी अपनी अक्ल, एनर्जी व समय लगाते हैं; लेकिन तीसरे चरण में - अपना टारगेट-ऑडिएंस पहचानने/चुनने और उस तक 'पहुँचने' तथा अपनी पहचान बनाने के प्रयासों को लेकर अक्ल, एनर्जी, समय लगाने की कोई जरूरत नहीं समझते हैं, और इस गलतफहमी में रहते हैं कि यह तीसरा चरण तो अपने आप पूरा हो जायेगा । और जब वह नहीं होता है, तब मीडिया को और गैलरीज को कोसते हैं । अधिकतर कलाकार कला परिदृश्य में अपने आप को और अपने काम को पहचान दिलाने के तरीकों पर विचार-विमर्श ही नहीं करते हैं, और प्रदर्शनियों के मौके पर प्रायः ठगी का शिकार भी हो जाते हैं । यही कारण है कि अधिकतर चित्रकारों की प्रदर्शनियाँ गुमनामी के अँधेरे में ही संपन्न और व्यतीत हो जाती हैं, तथा चित्रकार को कोई पहचान तक नहीं मिलती है ।
गढ़ी के प्रबंधकर्ताओं और पदाधिकारियों से उम्मीद की जाती है कि वह युवा कलाकारों को वास्तविकता से परिचित करने/करवाने तथा पहचान व बाजार 'पाने/बनाने' के प्रयत्नों के लिए प्रशिक्षित करने तथा उनके प्रशिक्षण के मौके बनायेंगे । ऐसा कुछ करने की बजाए गढ़ी प्रबंधकों ने सीधे सीधे कलाकारों के लिए 'हाट' खोल दी है - जो एक तरफ उन्हें किस्मत के हवाले कर देने का प्रयास है, और दूसरी तरफ उन्हें निराशा व अपमान की दलदल में धकेलने का रास्ता है । गढ़ी में शुरू हुए 'ऑर्ट हाट' में कलाकार सुबह दुकान सजाते हैं और दिनभर ग्राहक के आने का इंतजार करते हैं, हर अपरिचित को ग्राहक समझते हैं । एक युवा चित्रकार ने ही गहरी निराशा के साथ बताया कि अकादमी के कुछेक अधिकारियों तथा कलाकार नेताओं ने कुछ कर दिखाने का मौका बनाने और अपने आपको सक्रिय दिखाने के लिए 'ऑर्ट हाट' का शिगुफा शुरू कर लिया है, लेकिन कलाकारों को इससे हासिल कुछ भी नहीं हो रहा है - और यही कारण है कि उम्मीद और उत्साह के साथ इस 'यूनीक अपॉर्च्यूनिटी' का लाभ उठाने के लिए प्रवृत्त हुए कलाकार अब इसमें दिलचस्पी खो रहे हैं ।

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