कोलकाता में अपनी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी करने जा रहे गणेश हलोई का कहना है कि 'पेंटिंग भी वास्तव में बोध की एक प्रक्रिया है'
कोलकाता की 'आकार प्रकार' गैलरी में 15 जनवरी की शाम वरिष्ठ चित्रकार गणेश
हलोई के हाल ही में बनाए चित्रों की 'पोएटिक्स ऑफ एब्सट्रेक्शन'
शीर्षक प्रदर्शनी उद्घाटित हो रही है, जिसे जेसल ठक्कर क्यूरेट कर रही हैं ।
गणेश हलोई की पेंटिंग्स पिछले दिनों ही बर्लिन बिएनाले तथा एथेंस व कासेल
में आयोजित डोक्युमेंटा 14 जैसे समकालीन कला के विख्यात और प्रतिष्ठित
आयोजनों में प्रदर्शित हुईं हैं । गणेश हलोई ने अपने चित्रों में
एब्सट्रेक्शन को एक नई ही ऊँचाई दी है । जेसल ठक्कर के साथ बातचीत में
उन्होंने बहुत ही स्पष्टता के साथ अपने विचार व्यक्त किये हैं । अंग्रेजी
में हुई उसी बातचीत का अशोक पाण्डे द्वारा किए गए अनुवाद से गणेश हलोई की कही बात का किंचित संपादित
अंश यहाँ प्रस्तुत है :
'एब्सट्रेक्शन रंगों का अर्थहीन टुकड़ा भर नहीं होता ।
एब्सट्रेक्शन विचार, सघन अनुभूति और मजबूत कल्पनाशक्ति से
आता है । वास्तव
में कल्पना ही अंतिम सत्य है ।
यह अकल्पनीय रूप से आश्चर्यजनक काम कर सकती
है ।
मैं अपने आप को खुशकिस्मत मानता हूँ कि
मैं कला की सौगात लेकर इस धरती पर पहुँचा हूँ;
रोजी-रोटी के लिए मुझे किसी जगह नौकरी नहीं करनी पड़ी,
मेरे ऊपर समय की कोई
पाबंदियाँ नहीं हैं,
मेरे कार्य की प्रगति पूरी तरह मेरे आंतरिक बोध की
प्रक्रिया पर निर्भर करती है,
मुझे केवल उस रास्ते पर चलना है जिस पर मैं
यकीन करता हूँ
और वही मुझे उस अंतिम लक्ष्य तक लेकर जायेगा जहाँ ईश्वर है
और जहाँ मुझे आशा है कि मैं अपने को उसके आगे समर्पित कर दूँगा ।
यथार्थवाद
किसी भी किस्म के विकास को पोषित नहीं करता ।
धरती इतनी सुंदर कैसे बन
गयी,
क्या हम इस तरह की बातों को लेकर यथार्थवादी हो सकते हैं ?
धरती
यथार्थवाद की वजह से सुंदर नहीं बनी ।
वह कल्पना के कारण सुंदर बनी है ।
मुझे बताइये कि जीवन का अंतिम लक्ष्य क्या होता है ?
आप खुश होना चाहते
हैं; हैं न;
अपनी कल्पना का प्रयोग करना आपको प्रसन्न बनाता है ।
जब आप एक
पेंटिंग बना रहे होते हैं और वह बिलकुल वैसी ही बनकर सामने आती है
जैसा
आपने सोचा होता है, तो आपको उतना संतोष नहीं मिलता ।
लेकिन पेंटिंग जब
आपकी उम्मीदों से कहीं अलग बन जाती है
तब आप चरम आनंद के अतिरेक से भर उठते
हैं ।
क्योंकि उसकी उम्मीद नहीं की गयी थी ।
वह नयी होती है । ऐसे में आपकी समझ में आने लगता है कि
जिन तत्त्वों का इस्तेमाल आप अपनी पेंटिंग
में कर रहे होते हैं,
वे एक सामंजस्य के तहत आपके साथ रेस्पॉन्ड करने लगे
हैं ।
सामंजस्य होगा तो पेंटिंग ठीक होगी ही ।
यह आवश्यक नहीं है कि पेंटिंग्स को किसी ट्रेडमार्क की तरह देखा जाए ।
अपनी शैली स्थापित करने के फेर में कलाकार को भटक नहीं जाना चाहिए ।
यह
बात कलाकारों, लेखकों और किसी भी किस्म का रचनात्मक कार्य करने वाले
व्यक्ति पर लागू होती है ।
आपको इसका अहसास तक नहीं हो पाता कि
आप अपनी शैली बनाये रखने की वजह से मैकेनिक बन चुके होते हैं ।
निश्चितता
के कारण आप एक ही जगह पर अटक जाते हैं
क्योंकि हर चीज बहुत तय और नियत हो
जाती है ।
और अगर अनिश्चितता दुबारा न आये तो हम गतिहीन बन जाते हैं ।
निश्चितता से अनिश्चितता की यात्रा ही जीवन को आनंददायक बनाती है ।
तब पुनः
निश्चितता अनिश्चितता की जगह ले लेती है
क्योंकि आपने कुछ उत्तर खोज लिए
होते हैं ।
और फिर वही प्रक्रिया शुरू हो जाती है, किसी चक्र की तरह ।
यदि
ऐसा अनवरत न चलता रहे तो जीवन में गति कहाँ से आयेगी ?
जीवन बहते पानी
की तरह होना चाहिए ।
रास्ते भर की सारी अनिश्चितताओं में ही तो आनंद है ।
आगे बढ़ते हुए आपके सामने नयी बाधाएँ आती रहती हैं ।
इसी तरह पेंटिंग भी
वास्तव में बोध की एक प्रक्रिया है ।
पेंट करने की
इच्छा सिद्धांततः दो कारकों पर निर्भर करती है - संवेदना और बुद्धि पर ।
जब
संवेदना बुद्धि से आगे निकल जाती है, तब हम भटक जाते हैं ।
बुद्धि मन पर
काबू किये रहती है ।
इसलिए दोनों कारकों के बीच एक संतुलन जरूरी होता है ।
इनमें किसी एक की अधिकता दूसरे को अरुचिकर बना देती है ।
पेंटिंग तभी
पूरी होती है
जब बुद्धि और संवेदना के बीच एक संतुलन स्थापित होता है ।
संवेदना पेंटिंग में अनुभूति की सघनता को काबू में रखती है,
जबकि बुद्धि
उसे एक संरचना प्रदान करती है ।'
गणेश हलोई की कुछेक पेंटिंग्स की तस्वीरें :
बहुत रोचक और परिपक्व संवाद साझा करने के लिए शुक्रिया।
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