सूरत के युवा व किशोर चित्रकारों की दिल्ली में आयोजित हुई पहली कला प्रदर्शनी की पहली वर्षगाँठ के बहाने कुछ जरूरी बातें

'अलंकृति कला प्रदर्शनी' शीर्षक से सूरत के नौ युवा और किशोर कलाकारों के काम की दिल्ली में आईफैक्स कला दीर्घा में आयोजित हुई समूह प्रदर्शनी को एक वर्ष पूरा हो रहा है । 13 से 19 जनवरी के बीच आयोजित हुई उक्त प्रदर्शनी ने दो कारणों से मेरा ध्यान आकर्षित किया था, और उसी ध्यानाकर्षण के चलते उक्त प्रदर्शनी की वर्षगाँठ पर मैं उन दो कारणों का विवेचन करने के लिए प्रेरित हुआ हूँ । उक्त प्रदर्शनी ने जिन दो कारणों से मेरा ध्यान आकर्षित किया था, उनमें पहला कारण तो प्रदर्शनी में प्रदर्शित पेंटिंग्स ही थीं । अपने समय और समय के अनुभवों का प्रतिनिधित्व करते विषयों को पेंटिंग्स में जिस अनुभूति व गहराई से चित्रित किया गया था, वह चित्रकारों के परिपक्व होने का संकेत कर रहा था । चित्रकारों के परिपक्व होने का संकेत ही महत्त्वपूर्ण नहीं था, उससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि पेंटिंग्स में विषयों से लेकर रंग-संरचना तक में कल्पनाशीलता और प्रयोगधर्मिता की जो परिपक्वता नजर आ रही थी - उसे उनके युवा व किशोर रचनाकारों ने सूरत जैसे ऐसे शहर में प्राप्त किया था, जहाँ आधुनिक चित्रकला से कोई परिचय नहीं ही था । यह सच है कि प्रत्येक चित्रकार चित्र बनाने की प्रेरणा अपने आसपास से ही ग्रहण करता  है, और अपनी चिंतनशीलता या चिंतनप्रक्रिया के द्धारा ही अपने चित्रों के रूपाकारों तथा रंग-संयोजनों को संभव करता है । लेकिन एक शौकिया चित्रकार वास्तव में चित्रकार तब बनता है, जब उसमें खोज के प्रति उत्सुकता होती है । दरअसल खोज में संवेदना की वह सूक्ष्मता शामिल होती है, जो हमें नया बनाती है - हमें नए आयामों तथा नई दृष्टियों की ओर ले जाती है ।
'अलंकृति कला प्रदर्शनी' में प्रदर्शित पेंटिंग्स में नए आयामों व नई दृष्टियों की ओर जाने के संकेतों ने ही असल में मुझे चकित किया । चकित होने का कारण यही था कि चेतना और सजगता के संदर्भ में आधुनिक कला से दूर रहने वाले सूरत के युवा और किशोर चित्रकार ऐसा काम कर रहे हैं, जो दिल्ली-मुंबई-बड़ौदा-कोलकाता जैसे महत्वपूर्ण कला-केंद्रों के चित्रकारों के काम की बराबरी कर सके । इस समूह प्रदर्शनी में जिन चित्रकारों का काम प्रदर्शित था, वह सभी स्वयंप्रशिक्षित हैं तथा उन्होंने अनुकरण प्रक्रिया से ही कला 'सीखने' का रास्ता पकड़ा है । इसके बावजूद, उनके चित्रों में जो वैशिष्ट्य और चतुर्दिक प्रभाव देखने को मिला - उसके चलते ही चंडीगढ़ की बामा एकेडमी ऑफ फाईन ऑर्ट की स्थापना के 25 वर्ष पूरे होने के अवसर पर हो रहे आयोजनों में कला क्षेत्र में अनजाने/अनपहचाने शहरों में पनप रही कला-सक्रियता की पहचान को रेखांकित करने के लिए मेरे द्धारा चयनित कामों में 'अलंकृति कला प्रदर्शनी' में शामिल चार चित्रकारों - सुनीता जाजु, निकिता जरीवाला, ईशानी सांघवी तथा दिंकल दालवाला की पेंटिंग्स व ड्राइंग्स सहज ही शामिल हुईं । यह एक चित्रकार के रूप में उनकी अपनी अपनी सृजनात्मक योग्यता का सुबूत तो था ही, साथ ही सचेष्ट ढंग से और दृढ़संकल्प भाव से अपनी अपनी निर्मितियों की चित्र-भाषा को गढ़ने के साथ-साथ अपनी अपनी पहचान बनाने की उनकी कोशिशों का नतीजा भी था ।
सूरत से दिल्ली आकर अपनी अपनी कृतियों को प्रदर्शित करने की उनकी पहल और उनकी योजना में भी उनकी इस कोशिश को देखा/पहचाना जा सकता है । 'अलंकृति कला प्रदर्शनी' के प्रति मेरे ध्यानाकर्षण का दूसरा कारण यही था । आमतौर पर देखा गया है कि खासतौर से छोटे शहरों में चित्र-रचना का काम शौक से आगे नहीं बढ़ पाता है; जो लोग शौक से आगे बढ़ते भी हैं और चित्र-रचना को अपने खाली समय में अपने आप को आँकने/टटोलने का जरिया बनाने का प्रयास करते हैं - और इस प्रयास में या कुछ महत्त्वाकांक्षी होकर, कला की दुनिया में प्रवेश करते भी हैं : वह भी एक सीमित दायरे तक ही अपने आप को स्थापित करने में लगे रहते हैं । मेरे लिए यह सचमुच हैरानी की बात थी कि सूरत में स्वयंप्रशिक्षित युवा व किशोर कलाकार दिल्ली में अपने चित्रों को प्रदर्शित करने के बारे में सोचें और उसे संभव कर लें । उनकी इस 'उपलब्धि' को मैंने समकालीन कला जगत में एक ऊँची छलांग लगाने की उनकी इच्छा और कोशिश के रूप में ही देखा/पहचाना । उनकी इच्छा और कोशिश को देखते/पहचानते हुए ही मैंने उन्हें भविष्य की उम्मीद और उपलब्धि के रूप में चिन्हित किया ।
'अलंकृति कला प्रदर्शनी' में शामिल चित्रकारों में से जिन चित्रकारों के नए काम पिछले एक वर्ष में देखने को मिले हैं, उनमें तकनीकी दक्षता के साक्ष्य तो मिलते हैं - किंतु कल्पनाशीलता और प्रयोगधर्मिता आगे बढ़ती हुई नहीं लगती है । ऐसा लगता है कि जैसे 'दिल्ली-यात्रा' ने उनकी कला चेतना को ज्यादा विकसित नहीं किया है । दरअसल छोटे शहरों की कला गतिविधियों में कला चेतना का आधार बहुत ही निराशाजनक है, और इसी कारण से छोटे शहरों के चित्रकार तकनीकी कुशलता के बावजूद अपना कोई मुकाम बना पाने में प्रायः असफल ही रहते हैं । बड़े शहरों में भी हालात हालाँकि कोई बहुत अनुकूल नहीं हैं, लेकिन फिर भी बड़े शहरों में एक चित्रकार के लिए कैनवस को सचमुच में अपना बनाने के अवसर अपेक्षाकृत बेहतर तो हैं हीं । इसीलिए सूरत के कुछेक युवा व किशोर चित्रकारों ने 'अलंकृति कला प्रदर्शनी' शीर्षक से जब दिल्ली में अपने चित्रों की प्रदर्शनी की, तो उससे मुझे यही आभास और संकेत मिला जैसे कि वह अपनी कला-यात्रा के लिए एक बड़े रास्ते की खोज में हैं । 'अलंकृति कला प्रदर्शनी' में शामिल चित्रकारों ने दिल्ली में अपने चित्रों को प्रदर्शित करने के जरिए वास्तव में क्या पाया - कुछ पाया भी या नहीं - यह तो नहीं पता; दिल्ली से वापस लौट कर उन्होंने जो काम किए, उससे भी कोई ठोस संकेत नहीं मिले हैं कि अपनी कला-यात्रा को आगे बढ़ाने के लिए बड़े रास्ते की उनकी खोज किस हद तक पूरी हुई है; एक वर्ष का समय यह संकेत देने/लेने के संदर्भ में हालाँकि काफी कम भी है - पर इतनी उम्मीद तो की ही जा सकती है कि 'औसत' किस्म की सक्रियताओं में अपने आप को खपाने और सफलता के लिए शॉर्टकट अपनाने की बजाए वह अपने भीतर और बाहर के संसार को एक नए ढंग से देखने तथा अनुभव करने और उसे एक नए रंग में रंगने पर ध्यान देंगे । 'अलंकृति कला प्रदर्शनी' की पहली वर्षगाँठ के अवसर पर मैं इतनी उम्मीद तो करता ही हूँ कि उक्त प्रदर्शनी में शामिल चित्रकार अपनी 'दिल्ली-यात्रा' को व्यर्थ नहीं जाने देंगे ।

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