अखिलेश का कहना है कि 'कोई एक स्ट्रोक, कोई एक रंग का परस्पर संबंध, कोई एक रूप, कोई एक आकार अनायास ही मुझे मिल जाता है, और मैं ठगा-सा रह जाता हूँ; यही क्षणांश मेरे चित्रों में मुझको संभाले खड़ा है'

दिल्ली की आकृति ऑर्ट गैलरी में पाँच जनवरी से अखिलेश के काम की एकल प्रदर्शनी शुरू हो रही है जिसमें उनकी पेंटिंग्स व ड्राइंग्स के साथ-साथ उनके मूर्तिशिल्प भी देखे जा सकेंगे । इंदौर में 1956 में जन्में अखिलेश की कला मध्यप्रदेश की लोक व आदिवासी परंपरा से प्रभावित रही है, हालाँकि एक चित्रकार के तौर पर वह हमेशा ही आधुनिक कला के प्रति जिज्ञासु और उत्साही रहे हैं । वरिष्ठ चित्रकार सैयद हैदर रज़ा ने उन्हें उन बहुत थोड़े से चित्रकारों में पहचाना, जो महत्त्वपूर्ण काम कर रहे हैं । रज़ा के अनुसार, अखिलेश के चित्रों में चित्रात्मक तर्क है और वह अपने निजी व्याकरण का अनुसरण कर रहे हैं, जो किसी भी चित्रकार के लिए महत्त्वपूर्ण बात है । देश-विदेश की कई कलादीर्घाओं में अपने चित्रों को प्रदर्शित कर चुके अखिलेश दिल्ली में करीब 17 वर्ष बाद अपने काम की एकल प्रदर्शनी कर रहे हैं । इससे पहले 1999 में ऑर्ट इंड्स में 'नॉट ऑनली पेपर्स' शीर्षक से उनके चित्रों की प्रदर्शनी हुई थी । अपनी रचना प्रक्रिया को लेकर अखिलेश ने एक आलेख लिखा है, जो यहाँ प्रस्तुत है :

'चित्र की रचना मेरे लिए संसार में रहने का अपना तरीका है । उस संसार में जहाँ उसके अपने सुख-दुःख, अपने पहाड़, अपनी नदी, अपने मौसम और अपने रंग हैं जो उस जमीन पर एक आकाश को असीम और अनन्त बनाये हुए है ।
उस असीम में एक सीमित दायरा है, रचना उससे बाहर है । मेरे लिए कल्पना और सौंदर्य में परिचित आकार को ढूँढ़ना कठिन नहीं है, किंतु फिर परिचित आकार को अपरिचितता में आकार दे कर पहचानना, उसके परिचय को ख़त्म कर उसे पुनः एक अपरिचित सौंदर्य में स्थापित करने का खेल ही दरअसल मेरी कोशिश होती है । यह लुका-छिपी का खेल बचपन से साथ रहा ।
इस खेल में छुपते हुए हम खेल को विस्तार देते हैं । मेरे लिए ऐसा विस्तार चित्रों में आता है क्योंकि मैं सतत खेलना चाहता हूँ, जाहिर होते हुए नहीं, छुपते हुए । रंग और उसके स्याह अँधेरे में जहाँ से मैं सफ़ेद को एक नए रूप में, एक नए आकार में, एक नए टोन में चुपके से पकड़ लेता हूँ । वह अचम्भित हो जाता है । फिर धीरे से दोस्त बन जाता है ।
रंग मुझे प्रेम देते हैं । मैं उनसे जीता हूँ । काले रंग में छुपते हुए मैं उस प्रेम को और अधिक क़रीब पाता हूँ । मैं और अधिक ऊर्जावान हो कर चित्र बनाता हूँ । यह एक रंगीय प्रेम कई साल, लगभग आठ साल तक मेरे साथ रहा । मैं सिर्फ काले रंग के साथ ही खेलता रहा ।
इस काले रंग के अँधेरे में मैंने पाया कि मैं हर बार अपने को किसी कोने में छुपा कर रख देता हूँ और पुनः उसी में अपने को पाता हूँ । उसको ढूँढ़ने की कोशिश में मैं वापस बाहर ही होता हूँ । पूरी तरह से उस अँधेरे में खो जाने के सुख और दुःख के अचानक मिल जाने की अपरिचित पीड़ा, दोनों ही को अनुग्रहीत करते हुए मैं चित्र बनाता रहा हूँ । इस अँधेरे में (जो प्रकाशमान भी है) अनन्त असीम संभावनाएँ हैं । अँधेरे में हाथ-पाँव मारना और कोशिश करना कि पूरी विनम्रता से अपने को छुपा पाऊँ, यही जारी है । मैंने हमेशा अपनी उपस्थिति विनम्र रखी है ।
मैं आज तक यह नहीं जान पाया कि चित्र क्यों बनाता हूँ ? क्या यह चित्र बनाना लुका-छिपी का खेल है ? यहाँ कहीं कुछ गलत है । चित्र बनाना या बन जाना, इससे भी आगे बहुत कुछ है । इसी बहुत कुछ को ढूँढ़ने की एक सार्थक या निरर्थक कोशिश मेरे द्धारा की जा रही है । चित्र क्या है ? मैं क्या हूँ ? रंग क्या है ? रूप क्या है ? रूपाकार क्या है ? आकार रहित रूप आखिर क्या है ? रूपायित आकार क्या है ? आरोपित रूप क्या है ? रंगों की पारस्परिकता वास्तव में क्या है ? रंग, प्रकाश और अँधेरा क्या है ? आदि अनेक प्रश्न उस कोरे कैनवस के साथ शुरू होते हैं और इन्हीं प्रश्नों के साथ ख़त्म होते हैं । यह प्रश्न करने और उत्तर न पाने का सिलसिला जारी रहता है । इसके विपरीत कई अन्य क्षणों को मैंने अपने कैनवस पर जिया है । कोई एक स्ट्रोक, कोई एक रंग का परस्पर संबंध, कोई एक रूप, कोई एक आकार अनायास ही मुझे मिल जाता है, और मैं ठगा-सा रह जाता हूँ; यही क्षणांश मेरे चित्रों में मुझको संभाले खड़ा है ।
हर कोरे कैनवस के सामने मैं डरा हुआ खड़ा होता हूँ । कहीं यह इंकार न कर दे । मुझे मेरे अस्तित्व के साथ नहीं पहचाने, और यही झिझक व यही दुविधा मुझे उसके पास ले जाती है । ज्यों-ज्यों मैं उसके पास जाता हूँ वह उतना ही मुझसे दूर होता जाता है । इसका यह दूर जाना मुझे और प्रेरित करता है । यह प्रेम इस दूरी के कारण प्रगाढ़ है ।
जिस दिन कैनवस को में प्राप्त कर लूँगा वह मेरा अंतिम दिन होगा । उस दिन मैं ख़त्म हो जाऊँगा, उसी दिन यह संसार ख़त्म हो जायेगा । प्रेम भौतिक होते ही समाप्त हो जायेगा । हर कैनवस के साथ गुजारे गए समय को मैं निश्चित ही फिर से नहीं गुजारना चाहता । किंतु हर बार इंकार सुनने की इच्छा मुझे दोबारा कैनवस के सामने खड़ा कर देती है । मैं रोज़ कैनवस के सामने खड़ा होता हूँ और उसे देखता रहता हूँ । शायद यह देखना भी रचना-प्रक्रिया का एक हिस्सा है । यह देखना दरअसल देखने से कहीं ज्यादा किसी की तरफ बढ़ना है । मैं इसी तरह रंगों की तरफ बढ़ता जाता हूँ । पाता हूँ कि रंग मेरे ज्यादा निकट हैं । किसी एक ही रंग को ज्यादा जानना या देखना, इसी प्रक्रिया में जन्म लेता है ।
कैनवस पर जाते हुए रंग में प्राणतत्व की मौजूदगी को मैं भलीभाँती पहचानता हूँ । रंग को एक सक्रिय तत्व में बदलना उसे इस तरफ से जन्म देना है कि वह अपने रूपाकार द्धारा कई सारे अर्थ को जन्म दे पाये । मेरे लिए ऐसा होना दरअसल एक चित्र से दूसरे चित्र तक पहुँचना होता है क्योंकि रंग कभी ख़त्म नहीं होते और इसी तरह चित्र भी । इसी के साथ यह भी कहा जा सकता है कि रचना-प्रक्रिया भी कभी समाप्त नहीं होती । अपने चित्रों के बारे में सोचते हुए, लिखते हुए या किसी से बात करते हुए भी मैं उसी प्रक्रिया में होता हूँ । किसी भी चित्रकार के लिए रचना-प्रक्रिया उसके जीवन का हिस्सा नहीं है, बल्कि संपूर्ण जीवन होती है । वह अपने जीवन में से रचना-प्रक्रिया को चोरी नहीं करता है बल्कि रचना-प्रक्रिया से जीवन चुराता है और यहीं वह फ़र्क हमारे सामने आता है कि रचना-प्रक्रिया व जीवन को दो तरह से देखते हुए हम अपने सृजनकर्म के साथ कितनी बेईमानी करते हैं । मेरे लिए जीवन जीने का अर्थ चित्र के सामने होना है । तब मैं वहाँ कुछ और कर रहा होता हूँ, जैसे या तो चित्र देख रहा होता हूँ या उसे बना रहा होता हूँ । बहुत बार मैं उस बने हुए चित्र में अपने आपको देखने की कोशिश करता हूँ ।
यह केवल मेरे लिए ही संभव है कि मैं अपने चित्र में खुद को देख पाऊँ; समीक्षक या दर्शक शायद उसे नहीं देख पाएँ, और यह ठीक भी है । कला का अर्थ कहीं यह भी होता है कि वह हर व्यक्ति को अपने विचार से देखने का मौका दे । मैं यह नहीं चाहता कि दर्शक मेरे चित्र देखते हुए मेरे जीवन को देखें । वे क्यों मेरे जीवन को देखना चाहेंगे । उन्हें अपना जीवन वहाँ दिखना चाहिए, अगर उनमें देखने की शक्ति हो तो । इसी बात को विस्तारित करते हुए मैं यह बोलने का साहस कर सकता हूँ कि चित्र की रचना-प्रक्रिया तब तक जारी रहती है जब तक कि अंतिम दर्शक उसे देख न ले ।
मेरा यह मानना है कि रचना-प्रक्रिया चित्र में जारी होकर चित्र में ही ख़त्म नहीं होती बल्कि वह निरंतर जारी बनी रहती है । मुझसे और कैनवस से प्रवाहित हो, चित्र में से दर्शकों तक पहुँच कर भी ख़त्म नहीं होती, बल्कि वह आंदोलित करती है - अपने क्रम को आगे बढ़ाये रखने में । यह क्रम उस वक्त तक जारी रह सकता है जब तक कि वह अपने अंतिम सत्य तक न पहुँचे । यह अंतिम सत्य मुझे नहीं मालूम और न ही उसके दर्शक को, किंतु मैं आशान्वित हूँ कि कोई एक दर्शक कोई एक कलाकार इस सत्य तक कभी पहुँचेगा । मेरे लिए यही इसका सत्य भी है । कला की खोज दरअसल सत्य की खोज ही होती है । इस तरह के सत्य की खोज, जिसे केवल कलाकार ही खोज सकता है ।
भ्रान्ति से पैदा हो कर कला सत्य तक पहुँचने की कोशिश करती है । यह कोशिश, जाहिर है, सदियों से जारी है । मैं या कोई भी चित्रकार अपनी रचना-प्रक्रिया के द्धारा उस कालखण्ड को बढ़ाने की कोशिश ही करता है । खण्ड-खण्ड सेतु बनता यह सत्य मालूम नहीं कब प्रत्यक्ष होगा । किंतु उसके बाद भी कला अपनी जगह पर होगी । यह सत्य उस कला से अपना रूप प्राप्त कर उसे नए ढँग से पुनर्स्थापित करेगा ।
रचना-प्रक्रिया के दौरान उत्पन्न कला ही वास्तविक कला है । अव्यक्त से व्यक्त होते ही, भ्रान्ति से यथार्थ में आते ही वह अपना स्वरूप, एक दूसरे रूप में प्राप्त करती है - जो उसका अपना नहीं है । मूल रूप से हट कर कलाकार की वैयक्तिक सोच अन्य दबाव आदि में व्यक्त हो, वह सामने आती है । कला की जगह यदि कोई है तो वह रचना-प्रक्रिया ही है - इसलिए कला शाश्वत भी है, क्योंकि इसकी रचना-प्रक्रिया सतत चलती रहती है । मैं अपने चित्रों के द्धारा रचना-प्रक्रिया को जन्म तो जरूर दे सकता हूँ, किंतु उसका ठौर पाना मेरे वश में नहीं है । इसी कारण से मैं यहाँ रचना-प्रक्रिया के बारे में कुछ विशेष बता नहीं सकता सिवाय इसके कि, उसका जन्म मुझमें कैसे और कहाँ से हुआ ।
चित्रकला में मेरी रूचि शुरू में नहीं थी; मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैं छोटा था तो चित्र और रंगों से बहुत दूर था । संभव है उस समय मेरे लिए चित्र और रंग कुछ और रहे हों और मैं बिना उनके पास पहुँचे उन्हें अपरिचित रूप में शायद पाता रहा हूँ । मुझे बिलकुल भी याद नहीं कि मेरे चित्रों की रचना-प्रक्रिया का जन्म कैसे और कहाँ हुआ ? शायद वह भी रचना-प्रक्रिया ही हो, जब मैं इन सब बातों से बहुत दूर रहा । बचपन की बहुत सारी यादें, क्षण और उनकी मिठास बहुत बार खाली समय में मुझे कौंधती रही हैं । जब मुझे चित्र और रंग के प्रति कोई लगाव नहीं था, और आज मुझे चित्र और रंगों के प्रति बहुत चाहना है । लेकिन मुझे चित्र बनाते समय शायद अपने बीते हुए जीवन की याद नहीं होती, इसका मतलब यह नहीं कि जब मैं छोटा था तो चित्रकला से बहुत दूर था, और आज जब चित्र बना रहा हूँ तो बचपन से बहुत दूर हूँ । शायद इसी अपरिचय के कोहरे-भरे बादलों से धरती पर कला, दृश्य या प्रकट होती है; और हम उसके समक्ष अल्प हो जाते हैं । दरअसल, रचना-प्रक्रिया के द्धारा और उस रचना-प्रक्रिया के दौरान पैदा हुई कला के द्धारा, हम अपने छोटे रूप को शाश्वत और विस्तारित रूप में सामने पाते हैं - जिसे हम देख तो सकते हैं, लेकिन उसे छूने से हमें यह डर लगता है कि कहीं कुछ ख़त्म न हो जाये ।'              
अखिलेश और उनके कुछेक चित्रों की छवियाँ यहाँ इन तस्वीरों में देखी जा सकती हैं :






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