अर्थपूर्ण सृजनात्मकता के जरिये मधुबनी चित्रकला की अनगढ़ता के सौंदर्य और सरलता के वैशिष्ट्य को श्वेता झा ने अपनी कला में जिस प्रभावी तरीके से साधा और अभिव्यक्त किया है, 'दिव्य शक्ति' पेंटिंग उसका एक अनूठा उदाहरण है

मधुबनी कला की प्रखर चितेरी श्वेता झा की 'दिव्य शक्ति' शीर्षक पेंटिंग की तस्वीर देखते हुए मुझे लियोनार्दो दा विंची की एक प्रसिद्ध पंक्ति सहसा याद हो आई कि 'हमें जो दिखायी देता है, उस पर यक़ीन नहीं करना चाहिए; अपितु, जो दिखायी देता है उसे समझना चाहिए ।' श्वेता ने सिंगापुर में रहते हुए सिंगापुर की प्रगति को देखा, लेकिन जैसे ही उन्होंने इस प्रगति को समझने की कोशिश की - वैसे ही इस प्रगति के साथ छिपे 'अँधेरे' को भी उन्होंने पहचान लिया । हर देश और समाज ने प्रगति की कीमत चुकाई है; उसी तर्ज पर तमाम प्रगति के बावजूद सिंगापुर जिस तरह आत्महीन, स्मृतिहीन और व्यक्तित्वहीन इकाइयों का समूह बनता जा रहा है - उसी पर एक सचेत और संवेदनशील प्रतिक्रिया के रूप में श्वेता ने 'दिव्य शक्ति' को रचा है । कह सकते हैं कि 'दिव्य शक्ति' के रूप में श्वेता ने दरअसल अपने परिवेश को ही रचा है । किसी भी कलाकार का परिवेश बाहरी दुनिया का यथार्थ भर नहीं होता है, जिसमें वह जीता है; उसका परिवेश तभी बन पाता है जब वह अपना बाहरीपन छोड़ कर उसके भीतर जीने लगता  है । पिछले कुछेक वर्षों में श्वेता ने एक चित्रकार के रूप में सिंगापुर में जिस तरह की बहुरूपीय सक्रियता संयोजित की है, उससे यह तो आभास होता रहा कि वह सिंगापुर के भीतर जीने लगी हैं - लेकिन यह अब पता चला है कि उनके भीतर दरअसल एक 'दिव्य शक्ति' आकार ले रही थी, जो एक पेंटिंग के रूप में हमारे सामने है ।
हम सभी के साथ ऐसा होता है कि हम अपने जीवन में विभिन्न घटनाओं व प्रसंगों द्धारा विचलित और या उद्धेलित होते हुए जिन प्रभावों को ग्रहण करते हैं, और जो अनुभव भोगते हैं वह एक निरंतर चलती रहने वाली प्रक्रिया के तहत हमारे भीतर के ऐसे स्थलों को आलोकित करते हैं, जिनके प्रति हम अभी तक या तो अचेत थे और या लापरवाह बने हुए थे । जिस तरह आत्मबोध की प्रक्रिया बराबर चलती रहती है, उसी तरह अपने परिवेश के प्रति सचेत और संवेदनशील होने की प्रक्रिया भी गतिमान रहती है । दोनों में एक अंतरंग संबंध हमेशा ही बराबर से कायम रहता है । सामान्य व्यक्ति में यह संबंध यूँ ही नष्ट हो जाता है; किंतु कलाकार के सृजन-कर्म में यह संबंध सजीव और नाटकीय रूप में उद्घाटित और अभिव्यक्त होता है । श्वेता झा की 'दिव्य शक्ति' शीर्षक पेंटिंग में यही संबंध अपने ऐंद्रिक बिंबों के द्धारा प्रकट हुआ है; और इसी बात ने श्वेता की कैनवस पर एक्रिलिक रंगों से बनी इस कलाकृति को एक असाधारण विशिष्टता प्रदान की है ।
'दिव्य शक्ति' का महत्त्व इस मायने में भी है कि एक कलाकृति के रूप में यह रचनात्मकता के मनोविज्ञान का समय के साथ जो खास तरह का रिश्ता होता है - अपने समय के साथ, अपने से पहले समय के साथ, और आने वाले समय के साथ - उसे भी रेखांकित करती है । अतीत, परंपरा, वर्तमान, भविष्य ... की लगातार उपस्थित का बोध, या इनमें से किसी एक की अति-उपस्थिति का बोध निर्धारित करता है कि एक कलाकार अपने समय की स्थिति और उसकी प्रगति को अपनी कृतियों में किस तरह ग्रहण और परिभाषित करता है । प्रगति को आमतौर पर तकनीकी ज्ञान और औद्योगीकरण के साथ जोड़ कर देखा जाता है; लेकिन कला प्रगति को एक भिन्न नजरिए से देखती है । पहली बात तो यह कि कला वस्तुमात्र नहीं है; और वस्तु की तरह तो उसकी व्याख्या नहीं ही की जा सकती है । कला सबसे पहले एक रचनात्मक चेष्टा है । प्रगति, भौतिक अर्थों में, हमारे जीवन में आया वह बदलाव है जो तकनीकी ज्ञान व औद्योगीकरण की वजह से आया है । कला उस बदलाव के साथ नए कलापूर्ण और सार्थक रिश्तों की तलाश है - और इस तलाश के जरिए वह अपने समय को मानवीय तथा सुंदर बनाने का प्रयास करती है । 'दिव्य शक्ति' श्वेता झा की कला का ऐसा ही प्रयास-परिणाम है और इसीलिए 'दिव्य शक्ति' की तस्वीर देखते हुए मुझे लियोनार्दो दा विंची की वह प्रसिद्ध पंक्ति याद आई जिसमें वह दिखायी दे रहे को समझने की बात कह रहे हैं ।
माना/कहा जाता है कि चित्रकार का चित्र बनाना वास्तव में उसके अपने आसपास और अपने समय को देखने की प्रक्रिया का ही हिस्सा है । 'देखना' आना, और बहु-आयाम में 'देखना' आना, कोई सहज क्रियाएं नहीं है । इस पृष्ठभूमि में 'दिव्य शक्ति' सिंगापुर को 'देखने' का श्वेता का नजरिया या कोण है । रंग-रेखाओं और उनसे बने रूपाकारों के संकेतों और बिंबों के द्धारा 'दिव्य शक्ति' सिर्फ सिंगापुर के ही नहीं, बल्कि हर प्रगतिशील समाज/देश के जीवन के वास्तविक अर्थों व मुद्दों से साक्षात्कार कराती है । हर महत्त्वपूर्ण कलाकृति यही करती है । श्वेता ने अपनी इस पेंटिंग को 'वेक-अप' कॉल के रूप में उचित ही व्याख्यायित किया है । चिंतनशीलता और उदग्र सृजनशीलता के मिलेजुले असर में श्वेता ने अपनी कला में एक ऐसी दुनिया रची है जिसमें हमारी स्मृति, परंपरा, स्वप्न और संसृति के सूत्र अभिव्यक्त होते महसूस होते हैं । उनकी कला में उन समस्त अनुभवों की पुंजीभूत 'आकृति' सी महसूस होती है जिसे मनुष्य अपने भीतर लेकर चलता है - जो ना कहीं से शुरू होती है और न कहीं उसका अन्त होता है । अपनी कला में अर्थपूर्ण सृजनात्मकता के जरिये मधुबनी चित्रकला की अनगढ़ता के सौंदर्य और सरलता के वैशिष्ट्य को श्वेता झा ने जिस प्रभावी तरीके से साधा और अभिव्यक्त किया है, 'दिव्य शक्ति' उसका एक अनूठा उदाहरण है ।

Comments

  1. Wish, sweta will be doing d same hard work in coming times to make Mithila Painting Art famous Worldwide.
    All d very best.

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