आईफैक्स की 91वीं वार्षिक कला प्रदर्शनी में चयनित होने व पुरस्कृत होने में बड़े कला केंद्रों के मुकाबले छोटे शहरों के कलाकारों के काम को मिली तरजीह बदलते कला वातावरण का ही नतीजा है

आईफैक्स (ऑल इंडिया फाईन ऑर्ट्स एंड क्राफ्ट्स सोसायटी) की 91 वीं वार्षिक कला प्रदर्शनी समकालीन कला परिदृश्य में देश के दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, बेंगलुरु, वडोदरा जैसे बड़े कला केंद्रों के मुकाबले छोटे और कला के क्षेत्र में अनजान से शहरों के कलाकारों की बढ़ती सक्रियता तथा उपलब्धियों का एक दिलचस्प नजारा प्रस्तुत करती है । छोटे व कला के क्षेत्र में अनजान से शहरों के कलाकारों ने न सिर्फ वार्षिक कला प्रदर्शनी के लिए चयनित होने के मामले में बड़े कला केंद्रों के कलाकारों को कड़ी टक्कर दी है, बल्कि पुरस्कृत होने के मामले में भी बेहतर 'प्रदर्शन' किया है । आमतौर पर माना/समझा जाता है - और ठीक ही माना/समझा जाता है - कि बड़े कला केंद्रों में चूँकि सुविधाओं और सक्रियताओं का जोर रहता है, इसलिए वहाँ के कलाकार ज्यादा चेतनासंपन्न होते हैं और उनकी अभिव्यक्ति कम से कम सधी हुई तो होती ही है; जबकि सुविधाओं व सक्रियताओं के अभाव में छोटे कला केंद्रों में उदासीन व निराशाजनक स्थिति होने के कारण वहाँ के कलाकारों के लिए अपनी पहचान बना पाना और मुख्य धारा में शामिल हो पाना काफी मुश्किल होता है । यही कारण है कि छोटे शहरों में खूब खूब कला गतिविधियाँ होने के बावजूद वहाँ के कलाकारों के काम में अधकचरापन होने की शिकायतें प्रायः सुनी जाती हैं, और इसीलिए छोटे शहरों के कलाकारों को मुख्य धारा की दौड़ में पिछड़ा हुआ भी देखा/पाया जाता रहा है । लेकिन आईफैक्स की 91 वीं वार्षिक कला प्रदर्शनी इस धारणा को ध्वस्त करती हुई दिख रही है । 
इस प्रदर्शनी में बड़ी बात यह रही कि दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, बेंगलुरु, वडोदरा जैसे बड़े कला केंद्रों के कलाकारों के बीच चारों कैटेगरी - पेंटिंग, स्कल्पचर, ड्राइंग व ग्राफिक्स - में सबसे बड़े वाले पुरस्कार विदिशा, मेदिनीपुर, मुर्शिदाबाद व लखनऊ जैसे छोटे व अनजान से शहरों के कलाकारों को मिले । सिर्फ इतना ही नहीं, कुल पुरस्कृतों में भी छोटे शहरों के कलाकारों का पलड़ा भारी रहा । प्रत्येक कैटेगरी में ग्यारह ग्यारह पुरस्कार दिए गए; और इस गिनती के हिसाब से कुल दिए गए 44 पुरस्कारों में 23 पुरस्कार छोटे शहरों के कलाकारों को मिले - प्रदर्शित 147 पेंटिंग्स में छोटे शहरों के कलाकारों की 64 पेंटिंग्स हैं, जिनमें 5 पुरस्कृत हुईं, प्रदर्शित 47 स्कल्प्चर्स में छोटे शहरों के कलाकारों की हिस्सेदारी 27 की है, जिनमें 5 पुरस्कृत हुए हैं; प्रदर्शित 36 ड्राइंग्स में छोटे शहरों के कलाकारों की 18 ड्राइंग्स हैं, जिनमें 7 पुरस्कार के लिए चुनी गईं हैं; प्रदर्शित 51 ग्राफिक्स में 30 ग्राफिक्स छोटे शहरों के कलाकारों के हैं, जिनमें 6 पुरस्कृत हुए हैं । यह आँकड़े इसलिए और महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि चयनित कृतियों की तुलना में वार्षिक प्रदर्शनी के लिए प्राप्त हुए आवेदनों की संख्या काफी ज्यादा थी । आईफैक्स अधिकारियों द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार, वार्षिक प्रदर्शनी के लिए कुल 957 कलाकारों ने 1773 कृतियों के जरिये आवेदन किया था, जिनमें से 240 कलाकारों की 281 कृतियों को प्रदर्शनी के लिए चुना गया । आईफैक्स की 91वीं वार्षिक कला प्रदर्शनी के लिए देश के विभिन्न शहरों से पेंटिंग्स में 545 कलाकारों की तरफ से 1011 कृतियों के आवेदन मिले; तो स्कल्पचर में 117 कलाकारों की तरफ से 206 आवेदन आये; जबकि ड्राइंग में 196 कलाकारों ने 363 आवेदन दिए; और ग्राफिक्स में 99 कलाकारों ने 193 आवेदनों के जरिये दस्तक दी । 
इससे जाहिर है कि बिमान दास, राजेंद्र अग्रवाल, निर्मल कपूर, राजन फुलारी तथा वसुंधरा तिवारी जैसे वरिष्ठ कलाकारों की ज्यूरी को पहले प्रदर्शनी के लिए कृतियों के चयन में - और फिर चयनित कृतियों में से पुरस्कार के लिए कृतियों को चुनने में कितना माथापच्ची करना पड़ी होगी । इतने कठिन मुकाबले में छोटे शहरों के कलाकारों ने यदि आईफैक्स की 91वीं वार्षिक कला प्रदर्शनी में बड़े कला केंद्रों के कलाकारों को कड़ी टक्कर दी है, और अपनी श्रेष्ठता को साबित किया है, तो यह इस बात का संकेत और सुबूत ही माना जाना चाहिए कि हमारे देश में कला का वातावरण बदल रहा है, और छोटे शहरों के कलाकार माहौल व सुविधाओं के अभाव में भी समकालीन कला के प्रचलित व मुख्य मुहावरे को 'पकड़' रहे हैं और तकनीकी रूप से भी परिपक्वता प्राप्त कर रहे हैं । देखने में आ भी रहा है कि बड़े कला केंद्रों में कलाकार सुविधाओं और माहौल का फायदा उठा पाने में दिलचस्पी ही नहीं ले रहे हैं । दूसरे बड़े कला केंद्रों के बारे में तो दावे से नहीं कह सकता हूँ, लेकिन दिल्ली के बारे में जरूर कह सकता हूँ कि यहाँ होने वाले महत्त्वपूर्ण आयोजनों से अधिकतर कलाकार दूर ही रहते हैं, और उनकी तमाम कोशिशें प्रायः सेल्फियाँ लेने और या फोटो खिंचवाने तथा 'मैं तेरी पीठ थपथपाता हूँ, तू मेरी पीठ थपथपा' के 'सौदे' करने तक सीमित रहती हैं । समकालीन कला में जो हो रहा है उसकी प्रासंगिकता तथा उसकी ग्रहणशीलता से जुड़े सवालों पर शायद ही कहीं कोई चर्चा करता हो, और इसीलिए उनकी कला चेतना का आधार बहुत ही निराशाजनक है - जिससे उनके काम पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है । छोटे शहरों के कलाकारों के सामने भी इस तरह के हालात हैं; लेकिन छोटे शहरों में गतिविधियों के अभाव में चूँकि कलाकारों को 'भटकने' का ज्यादा मौका नहीं मिल पाता है, जिस कारण वह अपने काम पर ध्यान दे पाते हैं । आईफैक्स की वार्षिक प्रदर्शनी में बड़े कला केंद्रों के मुकाबले छोटे शहरों के कलाकारों के काम को यदि खासी तरजीह मिली है, तो यह बदलते कला वातावरण का ही नतीजा है । 

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