लोकमित्र गौतम की कविताएँ

राजनीतिक व सामाजिक विषयों पर प्रखर टिप्पणियों के लिए पहचाने जाने वाले लोकमित्र गौतम के अनुभवों की विविधता और विचार व समझ की गहराई का परिचय कभी-कभार पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली उनकी कविताओं के जरिये भी मिलता रहा है । इसीलिए उनके पहले कविता संग्रह 'मैं अपने साथ बहुत कुछ लेकर जाऊँगा …' के प्रकाशन की सूचना ने उत्साहित किया । नितांत सरल संवेदना का अहसास करातीं लोकमित्र गौतम की कविताओं में अनुभव का सृजनात्मक प्रतिफलन विचारोत्तेजक तो है ही, साथ ही आस्वाद के स्तर पर प्रसरणशील भी है । इस संग्रह में प्रकाशित उनकी कविताएँ कुछ लंबी हैं और इसी कारण से आख्यानपरक हैं, जिसके जरिये वह चित्र खड़ा करते हैं और अपनी बात कहते हैं । कथात्मक बुनावट का आभास सा कराती उनकी कविताओं में कहीं कहीं हम अपने आप को विवरणों के जंजाल से घिरा हुआ सा पाते तो हैं, किंतु जैसे जैसे कविता आगे बढ़ती है हम पाते हैं कि जिसे हम विवरणों का जंजाल समझ रहे थे वह दरअसल सामाजिक तत्वों और उनसे प्रभावित मनोदशाओं का रचनात्मक संश्लेष है । लोकमित्र अपनी अभिव्यक्ति की परिधि में मौजूदा समय की जटिलता और संश्लिष्टता को कहीं पहचानते/रेखांकित करते हैं तो कहीं उघाड़ते हैं; और ऐसा करते हुए उनको पुनर्विचार व आलोचना का विषय बनाते हैं । शब्दलोक प्रकाशन द्धारा प्रकाशित उनके इस पहले कविता संग्रह की तीन कविताएँ यहाँ प्रस्तुत हैं :

।। बगावत की कोई उम्र नहीं होती ।।

जब डूबते सूरज को मैंने
पर्वत चोटियों को चूमते देखा
जब बाग के सबसे पुराने दरख्त को मैंने
नई कोंपलों से लदे देखा
तो समझ गया
फूल की तरह खिल जाने
खुशबू की तरह बिखर जाने
...और गले से लगकर मोम की तरह पिघल जाने की
कोई उम्र नहीं होती
कोई उम्र नहीं....
तुम्हें ताउम्र मुझसे शिकायत रही न कि मुझमें धैर्य क्यों नहीं है ?
मैं हर मौसम में इतना बेचैन क्यों रहता हूं ?
सुनो, मैं आज बताता हूं
मैं तिनके तिनके जोड़ जोड़कर बना हूं
मुझमें इस धरती का सब कुछ थोड़ा थोड़ा है
मुझमें इस नशीली धूप का
इस सुलगती बारिश का
इस हाड़कंपाती ठंड का
सबका कुछ न कुछ हिस्सा है मुझमें
फिर भला बदलते मौसमों में
मैं अपने बेचैन बदलावों को कैसे छिपा पाऊंगा ..?
मैं कोई सॉफ्टवेयर नहीं हूं
कि एक बार में ही प्रोग्राम कर दिया जाऊं उम्रभर के लिए..
और मेरी हरकतें हमेशा हमेशा के लिए
किसी माउस के इशारे की गुलाम हो जाएं ?
नहीं मेरी जान ..
मैं तो हर मौसम के लिए बेकरार पंछी हूं
तुम मुझे मोतिया चुगाओ या रामनामी पढ़ाओ
जिस दिन धोखे से भी पिंजरा खुला मिला
उड़ जाऊंगा..
कतई वफादारी नहीं दिखाऊंगा
फुर्र से उड़कर किसी डाल में बैठूंगा
और आजादी से पंख फड़फड़ाऊंगा
क्योंकि मुझे पता है
चाहत का कोई पैमाना नहीं होता
और बगावत की कोई उम्र नहीं होती
कोई उम्र नहीं मेरी जान... कोई उम्र नहीं..
जिनके पास इतिहास की हदें न हों
वो बेशर्मी की सारी हदें तोड़ सकते हैं
जिनके पास अतीत की लगामें न हों
वो बड़े शौक से बेलगाम हो सकते हैं
लेकिन मुझे ये छूट नहीं है
क्योंकि मैं एक ऐसे इतिहास की निरंतरता हूं
जहां कदम कदम पर दर्ज है
कि गर्व में तन जाने
जिद में अड़ जाने
और बारूद की तरह फट जाने की
कोई उम्र नहीं होती
कोई उम्र नहीं मेरी जान... कोई उम्र नहीं
तुमने गलत सुना है
कि अनुभवी लोगों को गुस्सा नहीं आता
अनुभव कोई सैनेटरी पैड नहीं है
कि सोख ले हर तरह की ज्यादती का स्राव ?
अनुभवी होना
कुदरतन कुचालक हो जाना नहीं होता
कि जिंदा शरीर में अपमान की विद्युतधारा
कभी बहे ही न
न...न..न.. जब तिलमिलाता है अनुभव
तो उसके भी हलक से
निकल जाता है बेसाख्ता
समझदारी गई तेल लेने
लाओ मेरा खंजर
लो संभालो मेरा अक्लनामा
क्योंकि नफरत की कोई इंतहां नहीं होती
और अक्लमंदी की कोई मुकर्रर उम्र नहीं होती
कोई उम्र नहीं होती मेरी जान ... कोई उम्र नहीं
अगर तुम्हे याद नहीं तो मैं क्यों याद दिलाऊं
कि जब हम पहली बार मिले थे
उस दिन अचानक बहुत तेज बारिश होने लगी थी
और हम दोनों साथ साथ चलते हुए
काफी ज्यादा भीग गए थे
तुम्हें कुछ नहीं याद तो
मैं कुछ याद नहीं दिलाऊंगा
क्योंकि ये तुम भी जानती हो और मैं भी
कि याद्दाश्त का रिश्ता
याद करने की चाहत से है
याद करने की क्षमता से नहीं
फिर तुम क्यों चाहती हो कि मैं भूल जाऊं
कि भूल जाने की कोई उम्र नहीं होती
कोई उम्र नहीं मेरी जान ..कोई उम्र नहीं
मुझे सफाई न दो, मुझे सबूत नहीं चाहिए
कि तुम मुझे प्यार करती हो या नहीं
मोहब्बत कभी सात पर्दों में छिपकर नहीं बैठती
मोहब्बत बहुत बेपर्दा होती है
उसकी बेपर्दगी की कोई हद नहीं होती
कोई हद नहीं मेरी जान ...कोई हद नहीं

।। मैं नया कुछ नहीं कह रहा ।। 

मुझे पता है मैं नया कुछ नहीं कह रहा
फिर भी मैं कहूँगा
क्योंकि
सच हमेशा तर्क से नत्थी नहीं होता
कई बार इसे छूटे किस्सों
और गैर जरुरी संदर्भों से भी
ढूँढ कर निकालना पड़ता है
कई बार इसे
तर्कों की तह से भी
कोशिश करके निकालना पड़ता है
मुस्कुराहट में छिपे हादसों की तरह
जब चकमा देकर पेज तीन के किस्से
घेर लेते हैं अखबारों के पहले पेज
तो आम सरोकारों की सुर्खियों को
गुरिल्ला जंग लड़नी ही पड़ती है
फिर से पहले पेज में जगह पाने के लिए
मुझे पता है तुम्हें देख कर
साँसों को जो रिद्म
और आँखों को जो सुकून मिलता है
उसका सुहावने मौसम
या ससंदीय लोकतंत्र की निरतंरता से
कोई ताल्लुक नहीं है
फिर भी मैं कहूँगा
ससंदीय बहसों की निरर्थकता
तुम्हारी गदर्न के नमकीन एहसास को
कसैला बना देती है
जानता हूँ
मुझे बोलने का यह मौका
अपनी कहानी सुनाने के लिए नहीं दिया गया
फिर भी मौका मिला है तो मैं दोहराऊँगा
वरना समझदारी की नैतिक उपकथाएं
हमारी सीधी सादी रोमांचविहीन प्रेम कथा का
जनाजा निकाल देंगी
और घोषणा कर दी जाएगी कि प्रेम कथा
अटटू  मगर अदृश्य
हिग्स बोसान कणों की कथा है
इसलिए दोहराये जाने के आरोपों के बावजूद
मैं अपना इकबालनामा पेश करूँगा
क्योंकि इज्जत बचाने में
इतिहास के पर्दे की भी एक सीमा है
इसलिए मेरा मानना है
कि मूर्ख साबित होने की परवाह किये बिना
योद्धाओं को युद्ध का लालच करना चाहिए
मुझे पता है
मैं नया कुछ नहीं कह रहा
फिर भी मैं कहूँगा
ताकि इतंजार की बेसब्री और खुश होने की
मासूमियत बची रहे
ताकि कहने की परपंरा और सुने जाने की
संभावना बची रहे
ताकि देखने की उत्सकुता
और दिखने की लालसा बची रहे
असहमति चाहे जितनी हो मगर मैं नहीं चाहूँगा
बहस की मेज की बायी और रखे पीकदान में
आँख बचाकर
साथ साथ निपटा दिए जाएं
गाँधी और मार्क्स !

।। बेचैन सफर ।।

मैं तो सोच रहा था
मेरी चुप्पी तुमसे सब कुछ कह देगी
मेरा मौन तुम्हारे अतंस में
स्वतः मुखरित हो जायेगा
लेकिन लगता नहीं है कि बात बनेगी
बनेगी भी तो पता नहीं
कितना वक्त लगेगा
मेरा धैर्य अब जवाब दे रहा है
मैं अब अपनी बात कहे बिना
रह नहीं सकता
सोचता हूँ शुरूआत कहाँ से करूं
वैसे एक आइडिया है
जो शायद तुम्हें भी पसंद आए
आओ बातचीत के मौजूदा क्रम को
बदल लेते हैं
आज जवाबों से
सवालों का पीछा करते हैं
पता है
हम तुम क्षितिज क्यों नहीं बन पाए ?
इसलिए कि मैं तो तुम्हें धरती मानता हूँ
मगर तुम मुझे आसमान नहीं समझतीं
तुम्हें लगता है
तुम पर समानुपात का नियम
लागू नहीं होता
मगर एक बात जान लो
मैं भी हमेशा
पाइथागोरियन प्रमेय नहीं रह सकूँगा
मेरी समझदारी का विकर्ण हमेशा ही
तुम्हारी ज्यादती के लम्ब
और नासमझी के आधार के
बराबर नहीं होगा
मैं द्विघाती समीकरणों का
एक मामूली सा सवाल हूँ
कितने दिनों तक उत्तरविहीन रहूँगा ?
क्यों मुझे फार्मूलों की गोद में डाल रही हो ?
तुम्हें पता है न
मैं बहुत प्यासा हूँ
मेरे हिस्से के मानसून का अपहरण न करो
शायद तुम्हें मालूम नहीं
मैं धीरे धीरे रेत बनता जा रहा हूँ
इतनी ज्यादती न करो
कि मैं पूरा रेगिस्तान बन जाऊं
तुम्हें क्या लगता है
इस उम्र में मुझमें प्रयोगों का नशा चढ़ा है ?
भुलावे में हो तुम
इस उम्र में
मैं थामस अल्वा एडिसन बनने का
रिहर्सल नहीं कर सकता
मेरा बचपन जिज्ञासाओं की आकाशगंगा
निहारते गुजरा है
मुझे समय को परछाईयों से
और धूप को जिदंगी से
नापने की तालीम मिली है
मैं इसी विरासत की रोशनी में
अपने मौजूद होने को दर्ज कर रहा हूँ
जिन्हें तुम प्रयोग कहती हो
दरअसल वह मेरे स्थायित्व की खोज का
बेचैन सफर है

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