गुलाम मोहम्मद शेख की दो कविताएँ

सुरेंद्रनगर, गुजरात में 1937 में जन्में गुलाम मोहम्मद शेख देश-दुनिया में मूलरूप से एक चित्रकार के रूप में जाने/पहचाने जाते हैं । चित्रकार के रूप में उनकी जो ख्याति है और उन्होंने जो काम किया है, उसके कारण ही उन्हें अन्य कई पुरुस्कारों व सम्मानों के साथ साथ पद्मश्री और पद्मभूषण की उपाधियाँ भी मिली है । 1983 में पद्मश्री और 2014 में पद्मभूषण की उपाधि पाने वाले गुलाम मोहम्मद शेख देश-दुनिया में भले ही एक चित्रकार के रूप में जाने जाते हों, लेकिन गुजराती साहित्य में एक लेखक और एक कवि के रूप में भी उनकी खासी प्रतिष्ठा है । चित्र-रचना के साथ-साथ कविता-लेखन में समान अधिकार रखने वाले गुलाम मोहम्मद शेख की यहाँ प्रस्तुत मूल गुजराती में लिखीं कविताओं का हिंदी अनुवाद ज्योत्स्ना मिलन ने किया है । कविताओं के साथ प्रकाशित चित्र गुलाम मोहम्मद शेख की पेंटिंग्स के हैं |

















।। दिल्ली ।।

टूटे टिक्कड़ जैसे किले पर
कच्ची मूली के स्वाद की सी धूप
तुगलकाबाद के खंडहरों में घास और पत्थरों का संवनन
परछाइयों में कमान, कमान में परछाइयाँ; खिड़की मस्जिद
आँखों को बेधकर सुई की मानिंद
आरपार निकलती
जामामस्जिद की सीढ़ियों की क़तार
पेड़ की जड़ों से अन्न नली तक उठ खड़ा होता क़ुतुब
चारों ओर महक
अनाज की, माँस की, खून की, जेल की, महल की
बीते हुए कल की, सदियों की
साँस इस क्षण की
आँख आज की उड़ती है इतिहास में
उतरती है दरार में ग़ालिब की मजार की
भटकती है ख़ानखानान की अधखाई हड्डी की खोज में
ओढ़ जहाँआरा की बदनसीबी को
निकल पड़ती है मक़बरा दर मक़बरा |
अभी भी धूल, अभी भी कोहरा
अब भी नहीं आया कोई फर्क माँस ओर पत्थर में
लाल किले की पश्चिमी कमान में सोई
फाख्ता की योनि की छत से होती हुई
घुपती है मेरी आँख में
किरण एक सूर्य की |
अभी तो भोर ही है
सत्य को संभोगते हैं स्वप्न
सबेरा कैसा होगा ?

















।। गर्मी की एक रात को ।।

आज रात को
नीचे के डबरे में झरते हैं अमलताश के पीले फूल
लगता है फूल रातभर झरते रहेंगे
और सुबह तक तो
हो जाएगा अमलताश निर्वसन
चढ़ चुकी होगी डबरे पर एक पर्त फूलों की
मिट गई होगी पानी और जमीन के बीच की संधि रेखा
बगल के शिरीष की महीन कोंपलों पर ऊँगलियाँ फेरता
उठता है चाँद
शिरीष के पत्तों की नमी
और आसमान के थिराए प्रकाश के बीच नहीं बचा अब कोई फ़र्क
झूलती है अपनी ही परछाईं पर, छादन की बोगनबेल
झरोखे के खोखल में उड़ती है सोऊ पंडूक की नाक तक
आँगन की निबौरी की गंध
छत के भीतर की बल्ली से सरकता है नीचे को चमगादड़
धुल गया है इस वक्त
रास्ते को लगा दोपहर की धूप का जंग
फूटती हैं मेरे अधखुले कमरे के दरवाज़े से
गर्मी की धाराएँ
और सीढ़ियों तक पहुँचते पहुँचते फसक पड़ती है ढेलों की तरह
खड़ा रहता हूँ मैं दुविधा में
कि बरस पड़ता है मुझ पर, पूरा का पूरा अमलताश !

Comments

Popular posts from this blog

'चाँद-रात' में रमा भारती अपनी कविताओं की तराश जिस तरह से करती हैं, उससे लगता है कि वह सिर्फ कवि ही नहीं हैं - असाधारण शिल्पी भी हैं

निर्मला गर्ग की कविताओं में भाषा 'बोलती' उतना नहीं है जितना 'देखती' है और उसके काव्य-प्रभाव में हम भी अपने देखने की शक्ति को अधिक एकाग्र और सक्रिय कर पाते हैं