स्वामी अनलानंद का कहना है कि "परंपरा को ‘अतीत की चीज’ मानना दरअसल एक भ्रम है - यदि वह सचमुच अतीत की चीज हो, तो हमें उसे किसी भी कीमत पर ढोने की जरूरत क्यों होनी चाहिए ?"

स्वामी अनलानंद को सुनना मुझे हमेशा सम्मोहित करता है, मुग्ध करता है । उनके सान्निध्य में मैंने अपने आप को वैचारिक स्तर पर भी और भावना व संवेदना के स्तर पर भी समृद्ध होते हुए पाया है । हाल ही में उनसे बातचीत हुई तो उन्होंने मेरे सवालों के जबाव खासी दिलचस्पी के साथ दिए । उनसे हुई बातचीत के खास अंश यहां प्रस्तुत हैं :
स्वामी अनलानंद जी, आज हमारे बीच यूं तो सैकड़ों धर्मतंत्र हैं किंतु फिर भी क्या कारण है कि मनुष्य की आदिम जिज्ञासा की वेदना ज्यों की त्यों है ?
यह वेदना कहीं बाहर से नहीं उपजती - मनुष्य की जिज्ञासा के भीतर ही यह सन्निहित है । यह प्रश्न जैसे ही पूछे जाते हैं कि मैं कौन हूं, क्या हूं, किसलिए इस धरती पर आया हूं, मेरे होने का क्या अर्थ है - वैसे ही मनुष्य को समूची सृष्टि से अलग कर देते हैं । इस बात को इस तरह भी देखा जा सकता है कि वह सृष्टि से अलग है, इसलिए इस तरह के प्रश्न पूछता है । कुछ भी हो, किंतु इस अलगाव के कारण मनुष्य अपनी आंखों में एक संदिग्ध प्राणी बन जाता है । समूची सृष्टि का साक्षी मनुष्य हो सकता है, किंतु मनुष्य का साक्षी कौन है ? मनुष्य सब वस्तुओं, प्राणियों, प्राकृतिक शक्तियों को नाम देता है; किंतु जब मनुष्य को नाम देने का प्रश्न आता है तो समूची सृष्टि चुप हो जाती है । दो पैरों पर चलने वाले इस जीवन को मनुष्य का नाम किसने दिया है ? यदि समूची सृष्टि चुप है और मनुष्य को नाम देने वाला कोई नहीं - सिवाए मनुष्य के - तो हम एक असाधारण सत्य की ओर पहुंचते हैं कि मनुष्य में एक ऐसी शक्ति है - जो किसी अन्य पशु या प्राणी में नहीं; जो उसे अपने से बाहर स्वयं अपने को देखने के लिए सक्षम बनाती है ।
स्वामी जी, क्या इसीलिए माना/कहा जाता है कि मनुष्य द्रष्टा ही नहीं, आत्मद्रष्टा भी है; और जैसे ही हम उसे ‘आत्मद्रष्टा’ मानते/कहते हैं, हमें यह धुंधला-सा बोध होता है कि मनुष्य का यह आत्म - सिर्फ उसका ‘मैं', अहं या ईगो नहीं बल्कि उससे कुछ बड़ा है, वृहत्तर है, अधिक है । क्या यही बोध मनुष्य को पहली बार उस अजीब रहस्यमय अनुभव से साक्षात नहीं कराता, जिसे ‘ईश्वर’ कहा जाता है ?
मनुष्य यदि अपने को बाहर से देख सकता है, तो यह ‘बाहर’ असीम और विराट है और थोड़ा डरावना भी । किंतु जब वह बाहर से अपने को देखता है तो वह अपने को समूची सृष्टि से जुड़ा हुआ भी पाता है; अकेलेपन के भय के साथ एक दूसरी भावना का जन्म होता है - लगाव । यह एक असाधारण अनुभूति है; ईश्वर अदृश्य है - किंतु सृष्टि प्रत्यक्ष है, मांसल है, सामने है: वह एक ऐसी किताब है, जिसमें लगाव से उपजा प्रेम और आत्म का अदृश्य बोध, दोनों ही पहली बार अपनी भाषा ग्रहण करते हैं । इसलिए कुछ धर्मों के टेक्स्ट ‘मंत्र’ कहलाते हैं; हम जो दोहराते हैं, स्वयं उसमें ध्वनित होते हैं; दुनिया ही एक ऐसी निराली किताब है, जिसे पढ़ते हुए लगता है कि यह मैं हूं, जिसे पढ़ा जा रहा है ।
स्वामी जी, आपने एक बार कहा था कि सब धर्म-संप्रदायों के अपने धर्मग्रंथ हैं, किंतु मनुष्य का धर्मग्रंथ सिर्फ यह सृष्टि है, जिसके बिना ईश्वर की अवधारणा असंभव होती । क्या यही कारण नहीं है कि विभिन्न धर्मों के सिद्धांत एक-दूसरे से भिन्न हो सकते हैं किंतु एक भाव शाश्वत रूप से सब में समान रूप से रहता है - पवित्रता का भाव ?
चीजों की अपनी जन्मजात मर्यादा है, वह अपने अस्तित्व में स्थिर प्रतिज्ञ हैं - पवित्रता का भाव इस विश्वास में निहित है । यह उस पश्चिमी धारणा से बिलकुल मेल नहीं खाता, जिसके अनुसार मनुष्य सृष्टि के केंद्र में है, सब चीजों का मापदण्ड; जब हम मनुष्य को सर्वोपरि मान लेते हैं, तो उस वृहत्तर शक्ति का कुछ क्षय तो होता ही है, जो मनुष्य को समूची सृष्टि के साथ जोड़ती है - बल्कि प्रकृति की मर्यादा भी नष्ट होती है जिसमें हर पशु.पक्षी, प्राणी अपनी स्वायत्त गरिमा में जीता है । यूरोप में रेनेसां के बाद जिस मनुष्य-केंद्रित संस्कृति का सूत्रपात हुआ, उसमें मनुष्य नहीं, उसमें अहं का प्रभुत्व था । पहली बार मनुष्य के अहं और आत्मन् में एक फांक दिखाई दी, जिसका भीषण परिणाम हम आज भुगत रहे हैं । अपने को मानववादी कहने वाला दर्शन किस तरह स्वयं मानव को सिर्फ उसके अहं में सिकोड़कर उसकी समग्र और अखण्डित गरिमा को विपन्न बनाता है - यह इतिहास का एक सबसे त्रासदायी विरोधाभास रहा है ।
स्वामी जी, किंतु मैं एक बार फिर पवित्रता बोध की ओर लौटना चाहूंगा, क्योंकि उसे समझे बिना हम उस विशिष्ट ‘दृष्टि’ का मूल्य नहीं समझ पायेंगे, जो धर्मबोध से उत्पन्न होती है ।
मनुष्य में पहली बार ईश्वर की अवधारणा उसके आत्म की विस्तृत चेतना के भीतर ही जाग्रत हुई थी - एक ऐसी अतिरिक्त शक्ति जो मनुष्य को मनुष्य से इतर सृष्टि से जोड़ती है । अब मनुष्य एक नामहीन, अनाथ और अकेला प्राणी नहीं रहता, समूची सृष्टि के कार्यकलाप का महज दर्शक मात्र नहीं, बल्कि उसमें सक्रिय रूप से हिस्सा बंटाता है; यह उसके जीवन.निर्वाह के लिए ही नहीं, जीवन.अर्थ के लिए भी अनिवार्य है । पहले उसके कर्म का कोई साक्षी नहीं था, इसलिए उसे अपना समूचा अस्तित्व एक प्रयोजन.रिक्त जान पड़ता था, किंतु इस आंतरिक चेतना के भीतर (हम उसे ईश्वर कहें या कुछ और, इससे अंतर नहीं पड़ता) अब उसे न केवल जन्म से मृत्यु तक फैला अपना जीवन, बल्कि अपने चारों ओर फैली विराट प्रकृति और समूची सृष्टि अर्थों से भरी जान पड़ती है । मनुष्य और सृष्टि के बीच फैला अथाह मौन अचानक टूट जाता है और जहां शून्य था, वहीं अब समूचा परिदृश्य संकेतों, अर्थों, गोपनीय रहस्यों से भरा दिखाई देने लगता है ।
यहीं पर लेकिन स्वामी जी, धर्म के कर्मकाण्डों, अनुष्ठानों.व्रतों, बिंबों और प्रतीकों का धमासान दिखाई देने लगता है ........
हम आधुनिक बुद्धिजीवी प्रायः किसी धर्म के कर्मकांड को महज ‘बाहरी आडंबर’, उसका केवल ऊपरी और उथला पक्ष मानकर उपेक्षा करते हैं और उसे धर्म के किसी अंदरूनी सत्य से अलग कर देना चाहते हैं; यह कुछ वैसा ही है जैसे हम किसी कविता के अर्थ को उसकी भाषा से अलग करके देखने की चेष्टा करें । धर्म ही नहीं, किसी भी अनुभव का सत्य केवल उसके बाहरी रूपों में उद्घाटित होता है - स्वयं ‘शब्द’ ही अपने में उस सत्य का उद्घाटन है, जो उसके भीतर छिपा है । कितना अजीब है कि हम छिपे हुए सत्य को ढूंढ़ना चाहते हैं, किंतु उस रूप की उपेक्षा करते हैं जिसमें वह उद्घटित हुआ है । इसीलिए धर्म के बाहरी रूप किसी भी आस्थावान व्यक्ति के लिए खासे पवित्र और महत्वपूर्ण होते हैं । ऑस्कर वाइल्ड ने एक बार कहा था कि ‘संसार का रहस्य उसमें है जो प्रकट है, अप्रकट में नहीं ।’ इस संसार को ‘माया’ जरूर माना जाता रहा है किंतु माया के संकेत समझे बिना संसार का सत्य समझ में आ सकता है, मुझे इसमें गहरा संदेह है ।
ऑस्कर वाइल्ड ने जिसे ‘प्रकट’ (एपीयरेंस) कहा है, क्या यह वही है जो हमारे यहां ‘लीला’ में अवतरित होता है ?
आपने सही पहचाना है । दरअसल हम एक पुराने सत्य को अपने समय में दोहराते हैं, ताकि हम उसकी पवित्रता में पुनः पैठ सकें । रामलीला का ‘राम’ कलियुग का प्राणी है जो हमें त्रेता के राम का साक्षात करवाता है । किंतु यदि वही व्यक्ति जो राम की भूमिका निभाता है, ‘रामलीला’ के बाहर अपने को राम कहने का दावा करे, तो उसे कोई स्वीकार नहीं करेगा - क्योंकि लीला का पवित्र समय, दुर्भाग्यवश धीरे-धीरे जीवन के सेक्यूलर समय से अलग होता गया है । धर्मों के बीच वैषम्य का यह एक बड़ा कारण रहा है कि हर धर्म-प्रतिष्ठान अपने पवित्र समय में अर्जित किए हुए सत्य को बाकी दुनिया के सांसारिक समय पर आरोपित करना चाहता है, जबकि सच्चे धार्मिक बोध का तकाजा यह है कि वह दुनिया के सांसारिक समय को लीला के शाश्वत सत्य में परिणत कर सके ।
स्वामी जी, धर्म की यह आधुनिक विडंबना ही नहीं है क्या कि लोग हिंदु, मुसलमान, ईसाई की हैसियत से मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर में जाते हैं - किंतु भीतर जाकर वह जिस धर्म की आदिम स्मृति को अपनी प्रार्थना में जाग्रत करते हैं, वह देहरी के बाहर आते ही सांसारिक समय के उजाले (या अंधेरे) में धूमिल पड़ जाती है ?
आधुनिक विडंबना को आपने ठीक ही पहचाना है । दरअसल हम एक तरफ स्मृतिहीन अनुभव और दूसरी तरफ अनुभवहीन स्मृति में जीते हैं । एक धर्मविश्वासी की संकीर्णता या कट्टरता इससे साबित नहीं होती कि वह अपने धर्म के कर्मकाण्ड या अनुष्ठानों से चिपका है - वह तो उसके धर्म की भाषा हैं, जिसमें उसके धर्म का सत्य छिपा है; एक धर्मावलंबी व्यक्ति की दयनीयता उसकी कट्टरता में नहीं, विस्मृति में है; वह अपने धर्म की भाषा तो पढ़ता है, किंतु उसके प्रतीकों और संकेतों के अर्थ को भूल गया है । एक धर्मतंत्र और कुछ नहीं, इन्हीं प्रतीकों और संकेतों को एक स्थान में संयोजित करने का प्रयास है । यहां मैंने जान-बूझकर ‘स्थान’ शब्द का प्रयोग किया है : एक मंदिर या मस्जिद या गिरजा सिर्फ पूजा के स्थान नहीं हैं, वह चार सीमाओं के बीच पवित्र समय को रूपायित करते हैं । तंत्र का मतलब ही सीमावृत्त होना है । जब कोई ‘स्थान’ किसी विश्वास या मर्यादा को अपने भीतर प्रतिष्ठित करता है, तभी वह ‘संस्थान’ बन पाता है । ईसा ने कहा था कि जहां तीन-चार लोग जमा हों, वहां मैं उपस्थित हूं । वह स्थान अपने में पवित्र हो जाता है ।
स्वामी जी, परंपरा को प्रायः ‘अतीत की चीज’ के रूप में देखा/पहचाना जाता है । आप इसे कैसे देखते हैं; या परंपरा का मूल्यांकन आप कैसे करेंगे ?
परंपरा को ‘अतीत की चीज’ मानना दरअसल एक भ्रम है । यदि वह सचमुच अतीत की चीज हो, तो हमें उसे किसी भी कीमत पर ढोने की जरूरत क्यों होनी चाहिए ? वह हमारे भीतर है, इसलिए ‘अतीत’ का प्रश्न ही बेमानी है । वह हमारे भीतर भी इसलिए नहीं है क्योंकि हमने उसे सोच.समझ कर चुना है - वह नैसर्गिक रूप से हमारे भीतर का हिस्सा है, अंग है । क्या कोई देह अपने अंगों को ढोकर चलती है, या खुद अंग देह को ढोते हैं ? इसीलिए मैं मानता हूं कि वह चीज जिसे हम परंपरा कहते हैं, कोई और चीज न होकर सिर्फ अपने भीतर एक धारा की निरंतरता का बोध है - अपनी स्थिरता में वह मेरे भीतर आकर बहती है, मेरे भीतर आकर वह पुनः एक नया अनुभव ग्रहण करती है । वह अपनी तात्कालिकता में शाश्वत है, इसलिए इतिहास संत्रस्त न होकर स्वयं हर ऐतिहासिक घटना का मूल्यांकन करने का साहस और सामर्थ्य रखती है । हम उसकी संपूर्णता में संपूर्ण हैं - उसे छोड़कर, उसके बाहर हम कुछ भी नहीं हैं ।
परंपरा के नाम पर प्रायः अंधविश्वासों की ज्यादा बात ज्यादा नहीं की जाती है क्या ?
की तो जाती है, लेकिन इस कारण से हमारे लिए परंपरा को सही रूप में जानने/समझने की जरूरत तो खत्म नहीं हो जाती है । परंपरा वास्तव में एक अदृश्य लय है - जो एक जाति, एक समाज के बहाव और उसकी धारा और उसकी गति को निर्धारित करती है । जिस तरह बहती हुई धारा अपने भीतर एक तरफ आदि-स्त्रोत की मौलिक पवित्रता और दूसरी तरफ अपने लक्ष्य की अंतिम परिणति - दोनों को समाहित करती है; ठीक उसी तरह एक जातीय या एक समाज की परंपरा अतीत और भविष्य दोनों को अपनी जीवंत धड़कन में पिरोती है । संकट की घड़ी में अपनी परंपरा का मूल्यांकन करना एक तरह से खुद अपना मूल्यांकन करना है, अपनी अस्मिता की जड़ों को खोजना है ? हम कौन हैं - यह एक दार्शनिक प्रश्न न रहकर खुद अपनी नियति से मुठभेड़ करने का तात्कालिक प्रश्न बन जाता है ।
प्रस्तुति : अनल कुमार 

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