स्वरूप भाटिया की पेंटिंग्स में भीतरी व बाहरी ‘दुनिया’ और स्पेस के एक गहरे अंतर्संबंध को साफ पहचाना जा सकता है


नई दिल्ली । एक कलाकार संसार की चीजों से कैसा रिश्ता बनाता है, यह जानना उसकी कला की उत्कृष्टता को परखने का बहुत सटीक मानदण्ड न भी हो; किंतु इससे उसकी जीवन दृष्टि का पता तो चलता ही है । निश्चय ही हम एक कलाकृति के भीतर इस जीवन दृष्टि के सार्थक फलितार्थों की उम्मीद तो करेंगे ही; पर काफी हद तक इन फलितार्थों की सार्थकता उस जीवन दृष्टि के चरित्र यानी उसकी सूक्ष्मता, व्यापकता और गहराई पर निर्भर करती है - इसे नहीं भुलाया जा सकता; ठीक वैसे ही जैसे इस बात से इंकार करना मुश्किल है कि कल्पनाशीलता, मिथबोध और रूपविधान पर सशक्त पकड़ के बिना श्रेष्ठतम् जीवन दृष्टि भी कलात्मक सामान्यीकरण से वंचित रह जाती है । दरअसल यह दोनों ही स्थितियां किसी कला के दो बुनियादी अनुषंग होते हैं और इन दोनों की समान शक्ति और तनाव में बंधा हुआ संतुलन एक सार्थक कला के बनने में मदद करता है ।
स्वरूप भाटिया के काम को देखना और उसके प्रभावों के बीच ठहर कर सोचना एक तरह से उक्त तथ्य के करीब होना भी है । स्वरूप भाटिया के चित्र-संसार में कल्पना का वह रूप भी दिखाई देता है जहां ऐन्द्रिकता, उन्मुक्तता, अर्थसघनता के साथ मूर्तता का आभास भी है और चित्र के मर्म या अर्थ के उद्घाटन में वह सहायक होती है; साथ ही वह रूप भी दिखाई देता है जहां अमूर्तन लगभग एक मनोवैज्ञानिक उलझन या ग्रंथि बनकर मौजूद है और चित्र के मर्म या अर्थ के उद्घाटन में सबसे बड़ी बाधा है । स्वरूप भाटिया की कला के इस बहुआयामी रूप की जड़ों को ‘योग वाशिष्ट’ के उस सूत्र वाक्य में देखा/पहचाना जा सकता हो शायद, जिसमें कहा गया है कि जैसी दुनिया में मैं हूं, वैसी ही और कई दुनियाएं हैं और या स्वामी रामतीर्थ की जीवनी में के उस संदेश में, जिसमें कहा गया है कि मेरी जो दुनिया है उसमें बातचीत करने के लिए भाषा की जरूरत नहीं है । स्वरूप भाटिया अपनी रचना यात्रा के प्रारंभिक दिनों की बात करते हुए योग वाशिष्ट और स्वामी रामतीर्थ की जीवनी के प्रभाव में होने/रहने की बात अवश्य ही करते/बताते हैं और स्वीकार करते हैं कि उनके जीवन में इन दोनों ‘शिक्षाओं’ का गहरा असर है । कला की दुनिया से परिचित हो रहे युवा स्वरूप भाटिया को प्रमुख कलाकार बिश्वनाथ मुखर्जी के जमीन पर बैठ कर, पूजा करने जैसी मुद्रा में काम करने की अदा ने भी जैसे भावनात्मक स्तर पर उद्वेलित किया । ऐसी ही बातों, संदेशों और दृश्यों के बीच और उनके प्रभाव में स्वरूप भाटिया की कला-यात्रा ने आकार लेना और साकार होना शुरू किया था ।
स्यालकोट में 1940 में जन्मे स्वरूप भाटिया का परिवार देश के बंटवारे के बाद दिल्ली आ गया था, जहां जीवन की आपाधापी से गुजरते हुए उनके सामने अपनी पढ़ाई पूरी कर लेने का ही लक्ष्य महत्वपूर्ण था - कला के बारे में सोचना या जानने की कोशिश करना उस माहौल में उनके लिए संभव ही नहीं था । एक रिश्तेदार के कहने पर मुंबई से आईजीडी का कोर्स करना, या फिर जामिया मिलिया का रास्ता पकड़ना भी उनके लिए अपनी पढ़ाई को पूरा करने का एक उपक्रम भर था । जामिया मिलिया से उन्होंने टीचिंग ऑफ ऑर्ट में डिप्लोमा किया था, जिसे करते हुए कला के एकेडमिक पक्ष को और जानने/समझने की उनमें इच्छा पैदा हुई और जिसके चलते फिर उन्होंने दिल्ली कॉलिज ऑफ ऑर्ट से फाइन ऑर्ट में नेशनल डिप्लोमा का कोर्स भी किया । यहीं, वह कॉलिज के प्रिंसिपल पद पर कार्यरत प्रमुख चित्रकार बिश्वनाथ मुखर्जी के संपर्क में आये, जिसके बाद स्वरूप भाटिया का तो जैसे जीवन ही बदल गया । बिश्वनाथ मुखर्जी को ‘वाश’ में काम करते देख कर ही स्वरूप भाटिया वाश में काम करने को प्रेरित हुए और फिर उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा । वाश के प्रति उनकी उत्साहपूर्ण उत्सुकता और पहलभरी सक्रियता ने उन्हें बिश्वनाथ मुखर्जी का विश्वासपात्र बनाया । बिश्वनाथ मुखर्जी के कुछेक गिने-चुने निकटवर्तियों में स्वरूप भाटिया एक थे, जिन्हें बिश्वनाथ मुखर्जी के स्टूडियो तक जाने की अनुमति और सुविधा थी । बिश्वनाथ मुखर्जी के काम से प्रेरित होने के बावजूद, स्वरूप भाटिया ने अपने काम के लिए अपने ही तरीके बनाये । किस चित्र को किस अवस्था में कितना धोना.धाना चाहिए, यह उन्होंने काम करते करते हुए अनुभव से खुद सीखा और नये नये प्रतिमान बनाये ।
कॉलिज ऑफ ऑर्ट की पढ़ाई पूरी करने से पहले ही स्वरूप भाटिया का काम विभिन्न समूह प्रदशनियों में प्रदर्शित तो होने लगा था, लेकिन उन्हें बड़ी पहचान 1971 में नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न ऑर्ट में आयोजित हुई समूह प्रदर्शनी से मिली । इसके अगले ही वर्ष आयोजित हुई त्रिवेणी कला संगम की बीसवीं वार्षिक कला प्रदर्शनी के लिए उनकी पेंटिंग का चयन हुआ । इसी वर्ष आईफैक्स द्वारा आयोजित हुए पहले राष्ट्रीय कला मेले में उनकी पेंटिंग प्रदर्शनी के लिए चुनी गई । वाश पद्धति में बनाई गईं उनकी पेंटिंग्स की ऐसी पहचान बनी कि दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, बंगलुरू, कोलकाता आदि शहरों में ललित कला अकादमी द्वारा आयोजित राष्ट्रीय कला मेलों में तथा साहित्य कला परिषद द्धारा जयपुर, लखनऊ, अहमदाबाद, चेन्नई, भुवनेश्वर, शिमला, बंगलुरू आदि में आयोजित कला प्रदर्शनियों में उनकी पेंटिंग्स शामिल की गईं । उनकी पेंटिंग्स क्यूबा, लंदन, पेरिस, यूएआर, मैक्सिको आदि में आयोजित हुई समूह प्रदर्शनियों का भी हिस्सा बनीं । करीब तीन दशक तक की उनकी सक्रियता के दौरान शायद ही कोई वर्ष ऐसा रहा हो, जबकि उनकी पेंटिंग्स कहीं न कहीं प्रदर्शित न हुई हों । उन्होंने कई कला कैम्प्स में भी भाग लिया तथा कई संस्थाओं से वह पुरस्कृत व सम्मानित भी हुए । स्वरूप भाटिया की कला-यात्रा को समझने/पहचानने की कोई भी कोशिश शाम सुंदर के साथ उनके ‘रिश्ते’ को जाने बिना अधूरी ही रहेगी । उनके जीवन में शाम सुंदर का जो सहयोगात्मक संग-साथ और योगदान रहा, वह कब और कैसे और कितना उनकी कला-यात्रा में भी ट्रांसफर हुआ, यह शोध का विषय हो सकता है; लेकिन बिना शोध के भी इसके कुछेक संकेत इस तथ्य में भी शायद देखे/पहचाने जा सकते हैं कि स्वरूप भाटिया ने अपने चित्रों की एकल प्रदर्शनी के नाम पर शाम सुंदर के काम के साथ ही अपने काम को प्रदर्शित करने को तरजीह दी ।
स्वरूप भाटिया की समूची रचनात्मक उपलब्धि पर ध्यान दें तो एक चीज बहुत ही स्पष्टता से दिखाई देगी कि उनके रूपाकार स्पर्श, रंग, लय, ध्वनि, गति जैसी संवेदनाओं के व्यंजक हैं । स्वरूप भाटिया की रचनात्मक-दृष्टि के पीछे एक निश्चित प्रकार का रंग-विवेक है जो संवेदनाओं के गहरे विवेक से सम्पृक्त है । स्वरूप भाटिया की कला ने बहुत सूक्ष्म ढंग से, बिना ज्यादा मुखर हुए, इतनी खोजें की हैं, रंग-रूपों के मामले में वह इतनी नई स्थितियों से गुजरी हैं कि उनके काम में लगातार अनुभव की संपन्नता का प्रभाव गहरा होता गया । स्वरूप भाटिया के चित्रों में कल्पनाशीलता के रचनात्मक उपयोग को देखा/पहचाना जा सकता है; और इस उपयोग के जरिये कुछ प्रचलित से मुहावरों को भी उन्होंने अपनी कला में नये अर्थों के लिए आत्मसात कर लिया है । फंतासी और अतियथार्थ के से भी जो तत्व स्वरूप भाटिया के चित्रों में हैं वह दरअसल फंतासी और अतियथार्थ के रूपकोश से उठा भर नहीं लिये गये हैं; बल्कि उनके चित्रों में इन रूपों को एक कल्पनाशील जीवन ही मिला है । उनके चित्रों का रंग वातावरण भी उल्लेखनीय है, जिसमें आकृतियों और वस्तु रूपों की अवस्थिति कुछ ऐसी है कि हम उन के एकांत को भंग भी नहीं करते और उनके दृश्य रूपों में साझीदार भी हो जाते हैं । इनमें सामान्य इच्छाओं, आकांक्षाओं व चिंताओं के कई रूप हैं । ‘मुखरता’ स्वरूप भाटिया के शायद किसी भी चित्र में नहीं दिखेगी । गहरी अंतर्दृष्टि, अथाह संवेदना और अटूट धीरज के साथ जैसे उन्होंने अपने चित्रों को बनाया है । इसीलिए स्वरूप भाटिया की कला हमसे एक धीरज की अपेक्षा करती है । उनके चित्र अपने को कभी इस तरह सामने नहीं रखते कि हम एक ही नजर में उनका समूचा रूप देख लें और फिर उनके चित्र-रूपों के रखरखाव के बारे में बात करने लगें । स्वरूप भाटिया के चित्रों में यथार्थ और अतियथार्थवाद का प्रभावशाली मेल है । रंग-रेखाओं पर उनकी पकड़ बताती है कि वह चाहते तो ‘आर्टी’ हो सकते थे, लेकिन शायद जानबूझ कर ही उन्होंने बहुत ‘आर्टी’ होने की कोशिश नहीं की । इसी कारण उनके काम में हम देखते हैं कि आकृति रूपों की आकार रेखाएं केवल शरीरगत स्थितियां ही हम तक न पहुंचा कर अन्य कई मानवीय मर्मों को भी रेखांकित करती हैं । चित्रों में के रूप और उनके हावभाव जैसे सहानुभूति से अधिक एक संवेदनात्मक ऊर्जा की तलाश करते हुए से लगते हैं । स्वयं आकृतियों के अंकन और रखरखाव में हम इसे लक्ष्य कर सकते हैं । आकृतियां केवल उतना कह रही हैं, उतना ही वहन कर रही हैं, जितना कि वह जी रही हैं । कोई अतिरंजनाएं यहां नहीं हैं । स्वरूप भाटिया के चित्रों की आकृतियों की बनावट में ही नहीं, उनमें भरे हुए रंगों तथा आकृतियों के चारों ओर या पृष्ठभूमि के रंगों में भी कोई अतिरंजनाएं नहीं हैं । उन्होंने रंगों को खासी सजगता से बरता है । किसी रंग की संस्कृति से भी उन्होंने जैसे पहले अपना प्रगाढ़ संबंध बनाया है । शायद यही कारण है कि उनके चित्रों में के रंग अक्सर तपे हुए हैं । कई अर्थच्छायाओं वाले । एक-दूसरे में पिरोए, छाया-प्रकाश से कई रूपों में बंधे हुए । आकृतियों की आकार रेखाएं भी जरूरत भर ही बनी हुई हैं । उन्हें न तो ज्यादा खींचा गया है और न ही ढीला छोड़ दिया गया है । उनमें अनेक व्यंजनाएं हैं । लेकिन यह ‘एक्सप्रेसनिस्ट’ अर्थों में व्यंजनात्मक नहीं हैं । आकृति रूप के बीच कहीं एक ऐंद्रिक रंग व्याप्ति है जो अपने मर्मों के साथ टिकती है । जाहिर है कि चित्राभाषा का उन्होंने इस तरह एक कठिन रास्ता चुना है; ऐसी चित्राभाषा का जिसमें आकृति रूपों से शेष रंगाकारों की संगति न केवल जरूरी होती है, स्वयं रंगाकारों को एक अपेक्षित गहराई और विश्वसनीयता मिलनी जरूरी होती है - नहीं तो रंग केवल चित्र हिस्सों को पूर दिए जाने का साधन भर रह जाते हैं । स्वरूप भाटिया का काम इस बात का प्रमाण है कि उन्होंने अपने काम के साथ एक खरा और प्रगाढ़ रिश्ता बनाया है ।
स्वरूप भाटिया के काम के कुछ अंतनिर्हित तर्क हैं । वह एक साथ ही दो स्तरों पर सक्रिय हैं : एक स्तर फंतासी, स्वप्नों, उड़ानों और मिथकों का है; तथा दूसरा स्तर उस ‘सजग’ बुनावट का है जिस से वह अपना चित्र संसार खड़ा करती हैं । यानी हमें उनके रंगों और रूपों की बुनावट भी कहीं समझनी है - और उसे ग्रहण करके ही हम उनके काम के अर्थ को द्विगुणित कर सकते हैं । उनके कुछेक काम अपने टेक्सचर में कहीं माटी की दीवारों की याद दिलाते हैं । रंग सामग्री की सघन तहें हैं यहां, और इन्हीं सघन तहों के भीतर-ऊपर मटीले, लाल, हरे, नीले की कुछ जातियों के क्रम हैं, जो अपनी संरचना में एक ओर प्रकृति रूपों - वास्तविक रूपों - से जुड़ते हैं; और दूसरी ओर एक स्वप्न-जगत को उद्घाटित करते हैं । स्वरूप भाटिया के चित्र किन्हीं विस्मृत और सुदूर स्थित ‘भौगोलिक क्षेत्रा’ के चित्र जैसे भी हैं जिनका अभिप्रायः तत्काल प्रकट होने वाला अभिप्राय न होकर, रंगों में अपने को धीरे-धीरे खोलने वाला अभिप्राय है । प्रायः सभी चित्रों में किसी न किसी प्रमुख रंग (या रंगों) की उपस्थिति है - एक रंग मनःस्थिति बनाती हुई । लेकिन रूपाकारों में समाहित रंगों की अनेक जातियां और रंगतें हैं । यह सभी रंगतें हम तक रूपाकारों के चित्र-देश में खास तरह से स्थित होने के कारण पहुँचती हैं; सो रूपाकारों की अवस्थिति - उनकी संरचना - भी महत्वपूर्ण है । यह अवस्थिति ही उनके हर चित्र को एक नया रूप और संदर्भ देती है । स्वरूप भाटिया की रंगभाषा पर भी गौर करें : उनकी रंग सामग्री प्रायः घनी गाढ़ी है, हालांकि कभी वह इतनी तरल भी है कि पानी की चमकती सतह बन सके और कई बार बादलों जितनी भारहीन भी । धीरे-धीरे यही लगाव संवेदनात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम बन गया । रंगों का उनका चुनाव और उन्हें बरतने की उनकी तरकीब खास ध्यान खींचती है । उनके ब्रश के स्पर्श या आघात, रंगों के निर्देश से ‘विलग’ नहीं हैं; अक्सर रंग ही हैं जो ब्रश की गतियां तय करते हैं । कुछेक जगह, किसी भी रंग की एक तह या वाश के ऊपर रंग की एक और तह या वाश करने के पहले - पहलेवाली तह या वाश आदि को पूरी तरह सुखा लिया गया हो जैसे । हम यह भी देखते हैं कि कई बार रंग की गतियां उनके कुछ चित्रों में रेखाओं की तरह हैं, ऐसी रेखाओं की तरह जो कुछ माप रही हैं । लेकिन यह सब स्वरूप भाटिया के चित्रों में जानबूझ कर तय की गई, चैंकाने वाली संरचना के रूप में नहीं है । यह चित्र-रचना की प्रक्रिया में ही, चीजों को ‘देखने के ढंग’ की एक उपज है: वह वातावरण की मनःस्थिति की एक उपज है । दूसरे शब्दों में स्वरूप भाटिया प्रकृति के उपकरणों का या मानवीय रूपाकारों का इस्तेमाल किसी सहूलियत या चित्रों की ‘सुंदरता’ के लिए ही नहीं कर रहे; बल्कि वह प्राकृतिक उपकरणों के माध्यम से अपने को और हमें एक केंद्र में ले जा रहे हैं । इसमें कहीं स्मृतियां भी काम कर रही हैं । स्वरूप भाटिया के चित्रों में प्रकृति और उसके उपकरण और या मानवीय रूपाकार किसी यथातथ्य चित्राण के रूप में प्रकट नहीं हैं, बल्कि उसी रूप में वह कैनवस पर दिखते हैं जिसमें वह उनके मन के आकाश को बदलते रहे हैं या जिस रूप में उनके आज के मन का आकाश उनमें अपने को प्रक्षेपित करता रहा है । भीतरी/बाहरी ‘दुनिया’ और स्पेस के एक गहरे अंतर्संबंध को उनके चित्रों में बराबर से साफ पहचाना जा सकता है । उनके चित्रों को देखते हुए एक तथ्य पर और गौर किया जा सकता है : उनके चित्रों में जगहों की, निश्चित जगहों की भी, भूमिका तो रही, लेकिन इस तरह नहीं कि जगहें और उनके रंग (रंग सभी अर्थों में) उन्हें अपने साथ बहां ले जायें; उनका स्वभाव ही किन्हीं जगहों या चीजों के रेले में बहने का नहीं है । वह अपनी राह में आई चीजों को आत्मीय और एकांतिक ढंग से देखते रहे हैं; उखड़े पैरों के साथ नहीं, पैरों को अपने मन के आकाश के केंद्र में जमाये हुए ।
स्वरूप भाटिया की दृष्टि हर बड़ी-छोटी चीज पर है: जितना ध्यान उन्होंने किसी रंग की व्याप्ति पर दिया है, उतना ही उस छोटे से रंगक्षेत्र या रंगतों पर भी दिया है जो इस व्याप्ति के बीच तेज ‘बहाव’ के बीच झांक रहा है । शायद इसीलिए उनके चित्र लैंडस्केप का आभास देते हुए भी दरअसल जगहों, वस्तुओं, रूपों और मानसिक गतियों का एक निचोड़ हैं । रंगों में यह निचोड़, रंगभाषा के बारे में हमारी संवेदना में बहुत कुछ जोड़ता है । दरअसल यहीं आकर हम यह भी पहचान सकते हैं कि उनके चित्रों ने हमारे ही रंगों के साथ हमारे मानसिक चाक्षुष बौद्धिक संबंध को उजागर किया है; और उनके रंग बोध के स्तर पर अपने समय के साथ चलने वाले भी सिद्ध हुए हैं; उन्होंने इनमें अर्थ भरे हैं और उनके साथ हमारे लिए एक संवाद की स्थिति पैदा की है । उनकी कृतियों का अपना एक सौंदर्य(शास्त्र) भी है, जिसके बिना वह तितरी-बितरी, विच्छृंखल और ‘बिजार’ लगतीं । स्वरूप भाटिया ने बहुत कुछ स्वयंमालाप के रूप में अपने रचना-कर्म को दिखाने-जताने का प्रयास किया है; अपने चित्रों में जैसे वह अपने आप से बातें करते ‘नजर’ आते हैं । जैसे एक न एक क्षण में हम सब करते हैं: बेमानी बातें, खामख्यालियां, बेसिर पैर के कुलाबे: जिनका कभी कोई मतलब होता भी है तो कभी नहीं भी होता । उनकी चित्र-प्रकृति को समझने में यह प्रसंग या ‘तथ्य’ एक हद तक सहायक हो सकता है । इसमें संदेह नहीं कि असंगत चीजों व स्थितियों की लय पकड़ने की कोशिश स्वरूप भाटिया के रचना-प्रयत्न का हिस्सा रही है । इसी कोशिश में उन्होंने वाश पद्धति को उनकी प्रयोगात्मक विविधता के साथ अपनाया और उसमें नये आयाम जोड़े तथा नये प्रतिमान गढ़े हैं ।
- मुकेश मिश्र
(आइफैक्स द्धारा आयोजित स्वरूप भाटिया की सिंहावलोकन प्रदर्शनी के मौके पर प्रकाशित केट्लॉग में भी इस आलेख को पढ़ा जा सकता है ।)

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