सैयद हैदर रज़ा की पेंटिंग्स पर 'फेक' होने के आरोपों की लड़ाई में रज़ा फाउंडेशन के एक पक्ष बन जाने के कारण लग रहा है कि यह लड़ाई अभी लंबी चलेगी और अलग अलग रूपों में सामने आती रहेगी

सैयद हैदर रज़ा की पेंटिग्स के 'ख़जाने' में नकली माल होने के आरोप/प्रत्यारोप लगने के पीछे उनकी पेंटिंग्स के बाज़ार पर कब्ज़ा जमाने की 'लड़ाई' को ही देखा/पहचाना जा रहा है । बड़े नामचीन चित्रकारों के काम के 'फेक' होने के आरोप अक्सर लगते रहते हैं, और यह आरोप कभी सच होते हैं तो कभी गैलरीज की व्यापारिक प्रतिस्पर्धा के नतीजे से भी उपजते हैं । सैयद हैदर रज़ा के काम को लेकर अभी हाल ही में जो विवाद पैदा हुए हैं, उन्हें भी रज़ा के काम के बाजार पर एकाधिकार जमाने की लड़ाई के रूप में देखा जा रहा है । रज़ा की पेंटिंग्स के 'फेक' होने के मामले में जिस तरह से रज़ा फाउंडेशन एक पक्ष बन गया है, उसे देखते हुए लगता है कि यह लड़ाई अभी लंबी चलेगी । उल्लेखनीय है कि रज़ा की पेंटिंग्स की इन दिनों मुंबई और दिल्ली में प्रदर्शनी चल रही हैं । मुंबई में पीरामल म्यूजियम ऑफ ऑर्ट ने अपने संग्रहालय में रज़ा की पेंटिंग्स प्रदर्शित की हैं, जबकि दिल्ली में रज़ा फाउंडेशन ने श्रीधारणी कला दीर्घा में उनके चित्रों को प्रदर्शित किया है । खास बात यह है कि मुंबई में उनके बिलकुल आरंभिक चित्रों से लेकर 90 के दशक तक के चुने हुए चित्र प्रदर्शित हैं, जबकि दिल्ली में उनके द्वारा जीवन के अंतिम वर्षों में बनाये गए चित्रों को प्रदर्शित किया गया है । मुंबई में रज़ा की सिर्फ पेंटिंग्स ही प्रदर्शित नहीं की गईं हैं, बल्कि उनकी हस्तलिपि में लिखे गए कई पत्र और उनकी कई तस्वीरों भी प्रदर्शित हैं । कई चीजें देश-विदेश की गैलरीज व संग्राहकों से जुटाई गईं हैं; यहाँ तक कि प्रदर्शनी का डिजाईन भी सिंगापुर की एक प्रोफेशनल डिजाईन फर्म से तैयार करवाया गया है । अपनी प्रस्तुति और अपनी सामग्री के जरिये पीरामल म्यूजियम ऑफ ऑर्ट ने रज़ा की सृजनात्मक यात्रा का एक विवरणात्मक आभास देने का प्रयास किया है और इसे वास्तव में एक उत्सव के रूप में आयोजित किया है । 'गाइडेड वॉकथ्रू' की सुविधा उपलब्ध करवा कर इस आयोजन को सार्थक व प्रभावी बनाने का काम भी किया गया । इस के मुकाबले, दिल्ली वाला आयोजन फीका फीका सा लगा है । रज़ा फाउंडेशन द्वारा श्रीधारणी कला दीर्घा में हो रही प्रदर्शनी यूँ तो ठीक-ठाक रूप में ही आयोजित है, लेकिन मुंबई के आयोजन की चमक-दमक ने इसे फीका कर दिया है ।
मजेदार संयोग यह है कि पीरामल म्यूजियम ऑफ ऑर्ट के आयोजन की चमक-दमक में दाग-धब्बा लगाने का काम रज़ा फाउंडेशन के प्रबंध न्यासी अशोक वाजपेयी ने ही किया है । वहाँ प्रदर्शित एक पेंटिंग को संदिग्ध बताते हुए अशोक वाजपेयी ने पूरे आयोजन को सवालों के घेरे में ही खड़ा कर दिया । अपने साप्ताहिक स्तंभ 'कभी-कभार' में घनवादी शैली की एक पेंटिंग को संदिग्ध घोषित करते हुए अशोक वाजपेयी ने इसका कारण बताया कि 'रज़ा कभी टेढ़े दस्तख़त अपने चित्रों पर नहीं करते थे जबकि इस चित्र में दस्तख़त ख़ासे टेढ़े हैं ।' अशोक वाजपेयी के इस आरोप का पीरामल म्यूजियम ने सार्वजनिक रूप से कोई नोटिस नहीं लिया, और कला जगत के लोगों के बीच भी इसे अशोक वाजपेयी की निजी खुन्नस के रूप में ही देखा/पहचाना गया । सवाल उठे कि अशोक वाजपेयी जब उक्त आयोजन के पूर्वालोकन कार्यक्रम में आमंत्रित पंद्रह लोगों में थे तो उन्होंने आयोजकों के सामने ही उस पेंटिंग के संदिग्ध होने की बात क्यों नहीं की, और इस मामले में आयोजकों का पक्ष क्यों नहीं लिया - और यदि लिया तो उसे अपने स्तंभ में स्पष्ट क्यों नहीं किया ? अशोक वाजपेयी के इस रवैये को देखते हुए यही माना/समझा गया कि पीरामल म्यूजियम में आयोजित प्रदर्शनी की चमक-दमक को कलुषित करने के उद्देश्य से ही अशोक वाजपेयी ने एक पेंटिंग के संदिग्ध होने की सुरसुरी छोड़ी है । पीरामल म्यूजियम ऑफ ऑर्ट के प्रबंधकों ने भले ही घोषित रूप से रज़ा फाउंडेशन के प्रबंध न्यासी अशोक वाजपेयी की थ्यरी का नोटिस नहीं लिया, लेकिन उनके द्वारा सुलगाई गई आग ने भड़क कर रज़ा फाउंडेशन के दिल्ली में हो रहे आयोजन को ही निशाने पर ले लिया ।
प्रख्यात कला समीक्षक व क्यूरेटर जॉनी एमएल ने अपने ब्लॉग में 'एक युवा कलाकार' के हवाले से रज़ा फाउंडेशन के पूरे आयोजन को ही कठघरे में खड़ा कर दिया । जॉनी एमएल ने 'एक युवा कलाकार' के हवाले से श्रीधारणी कलादीर्घा में प्रदर्शित पेंटिंग्स की प्रामाणिकता पर सवाल उठाया; और इस संदेहपूर्ण आरोप को हवा दी कि यह पेंटिंग्स बनाई किसी और ने हैं तथा बीमार रज़ा ने काँपते हाथों से इन पर सिर्फ हस्ताक्षर किये हैं । दरअसल इन पेंटिंग्स को रज़ा द्वारा 90 से 93/94 वर्ष की उम्र में बनाये जाने का दावा किया गया है । जॉनी एमएल ने जीवन के अंतिम वर्षों में रज़ा की अस्वस्थता व विवशता का वास्ता देकर एकाग्रता के साथ पेंटिंग जैसा काम करने को लेकर उनकी 'सीमाओं' को रेखांकित करने का जो काम किया है, उससे श्रीधारणी कलादीर्घा में प्रदर्शित पेंटिंग्स के 'नकली' होने के आरोपों को बल मिला है । जॉनी एमएल ने इस तथ्य को खासतौर से रेखांकित किया है कि कैसे रज़ा फाउंडेशन ने जीवन के अंतिम वर्षों में रज़ा की 'सक्रियता' के वीडियोज बनाये और सार्वजनिक रूप से नहीं प्रचारित किया, जिनमें रज़ा व्हीलचेयर पर बैठे बैठे पेंटिंग्स करते देखे/दिखाए गए हैं । जॉनी एमएल ने तर्क दिया है कि उन वीडियोज में रज़ा उतने स्वस्थ नहीं नजर आ रहे हैं, कि वह पेंटिंग बनाने जैसा काम कर सकें । उन्होंने संदेह व्यक्त किया है कि लगता है कि रज़ा फाउंडेशन ने उन वीडियोज को इसी उद्देश्य से तैयार किया है ताकि वह लोगों को विश्वास दिला सकें कि रज़ा जीवन के अंतिम वर्षों तक काम करते रहे थे । जॉनी एमएल ने जिन जिन स्थितियों और प्रसंगों को रेखांकित किया है और उनके आधार पर जो तर्क दिए हैं, वह इशारा करते हैं कि रज़ा फाउंडेशन ने जैसे सोची-विचारी रणनीति के तहत रज़ा के जीवन के अंतिम वर्षों में किए गए काम को 'तैयार' करवाया और उसे विश्वसनीयता देने के पुख्ता इंतजाम किए ।
जॉनी एमएल ने रज़ा फाउंडेशन द्वारा श्रीधारणी कलादीर्घा में प्रस्तुत पेंटिंग्स को सीधे सीधे 'फेक' नहीं कहा है, सिर्फ उनकी प्रामाणिकता पर संदेह किया है - जैसे रज़ा फाउंडेशन के प्रबंध न्यासी अशोक वाजपेयी ने पीरामल म्यूजियम में एक पेंटिंग को संदिग्ध ही कहा है । गौर करने वाला दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि जैसे अशोक वाजपेयी की बात पर पीरामल म्यूजियम की तरफ से कोई जबाव नहीं मिला है, वैसे ही जॉनी एमएल के संदेहों पर रज़ा फाउंडेशन ने चुप्पी साधी हुई है । लेकिन जिस तरह से यह मामला बना है, उससे लगता है कि सैयद हैदर रज़ा की पेंटिंग्स पर 'फेक' होने के आरोपों की यह लड़ाई अभी लंबी चलेगी और अलग अलग रूपों में सामने आती रहेगी ।

Comments

  1. सब गोलमाल है भाई सब गोलमाल है।

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  2. सर जी राजा फाउंडेशन के पेंटिंग विवाद पढ़कर , पेंटिंग्स की असली नकली , आदि के बारे में विस्तारपूर्वक लिखा है ,पढ़कर अच्छा लगा।

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