तथ्यों के भारी जमावड़े के बावजूद 'हिस्ट्री एंड हैरिटेज' शीर्षक अपनी पुस्तक में डीएस कपूर न 'हिस्ट्री' दे पाए और न 'हैरिटेज' के साथ ही न्याय कर पाए
चंडीगढ़ के गवर्नमेंट कॉलिज ऑफ ऑर्ट के
ऐतिहासिक व गौरवशाली अतीत को रेखांकित करती 'हिस्ट्री एंड हैरिटेज' शीर्षक
पुस्तक के लेखक व संग्रहकर्ता डीएस कपूर ने तथ्यों को जुटाने में मेहनत तो
बहुत की है, लेकिन उनकी अथक मेहनत के बावजूद यह पुस्तक बेजान तथ्यों की
कब्रगाह बन कर रह गई है । उल्लेखनीय है कि उक्त कॉलिज 1875 में लाहौर
में स्थापित किए गए मेयो स्कूल ऑफ ऑर्ट, जो अब नेशनल कॉलिज ऑफ ऑर्ट के नाम
से जाना जाता है, की विस्तारित ईकाई है । मेयो स्कूल ऑफ ऑर्ट के जिन कई
अध्यापकों ने विभाजन के समय भारत में रहना चुना, उन्हें लेकर पंजाब सरकार
ने पहले नाहन में और फिर शिमला में मेयो स्कूल की तर्ज पर ऑर्ट स्कूल की
स्थापना की । चंडीगढ़ जब बना और पंजाब की राजधानी बना, तब उक्त स्कूल चंडीगढ़
आ गया और कॉलिज बन गया । इस स्कूल/कॉलिज से भवेश चंद्र सान्याल, सतीश
गुजराल, धनराज भगत, कृष्ण खन्ना, सोहन सिंह कादरी, करतार सिंह, इंद्रजीत
सिंह उर्फ इमरोज, एसएल पाराशर, अब्दुर रहमान चुगतई, पीएन मागो, शिव सिंह,
सिद्धार्थ, विभा गल्होत्रा आदि आधुनिक और समकालीन कलाकारों के नाम जुड़े
हुए हैं; इसलिए 140 वर्षों का इसका इतिहास वास्तव में पंजाब में कला के
आधुनिक होने और समकालीन होने का इतिहास भी है - जो कई कला प्रवृत्तियों और
कला-आंदोलनों का साक्षी रहा है । रचनात्मक दृष्टि से पंजाब की समकालीन और आधुनिक कला के बहुत से स्रोत इसी स्कूल/कॉलिज के इतिहास में छिपे हुए हैं । इसीलिए 750 से अधिक पृष्ठों की डीएस कपूर की भारी-भरकम 'हिस्ट्री एंड हैरिटेज' शीर्षक पुस्तक को मैंने बहुत उम्मीद और उत्साह से खोला/पलटा ।
डीएस कपूर तो इस कॉलिज के छात्र, अध्यापक और प्रिंसिपल रहे ही हैं, उनके पिता और दादा भी इस स्कूल/कॉलिज से जुड़े रहे हैं, इसलिए मुझे उम्मीद थी कि इस पुस्तक में पंजाब की कला की रचना और विकास-यात्रा का सम्यक मूल्याँकन मिलेगा और रचनात्मक, वैचारिक व अवधारणात्मक बातों/सवालों पर चर्चा मिलेगी । लेकिन इस पुस्तक ने मुझे बुरी तरह निराश ही किया । निस्संकोच डीएस कपूर ने तथ्यों और तस्वीरों को जुटाने में मेहनत तो बहुत की है, लेकिन इस मेहनत के पीछे चूँकि किसी भी तरह की सोच और दृष्टि का नितांत अभाव रहा, इसलिए जैसा कि शुरू में ही कहा जा चुका है कि यह पुस्तक बेजान तथ्यों की कब्रगाह बन कर रह गई । दरअसल चंडीगढ़ ऑर्ट कॉलिज से जुड़े कलाकारों का और उनके काम का परिचय जैसा उन्होंने बताया, वैसा ही डीएस कपूर ने पुस्तक में उतार दिया - जिस कारण तमाम पृष्ठों की सामग्री अखबारी रिपोर्ट्स से भी गई बीती बनी है, जिसमें अधिकतर कलाकारों का बड़बोलापन और अधकचरापन ही प्रकट हुआ है ।
कलाकृति
की तरह कला संस्थान भी केवल एक चाक्षुक अनुभव ही नहीं होता है, वह अपने आप
में एक विचार भी होता है - और थोपा हुआ विचार नहीं, बल्कि उसमें बसा हुआ
विचार । डीएस कपूर लगता है कि इस बात को या तो समझ नहीं सके और या उन्होंने
समझने की जरूरत नहीं समझी । डीएस कपूर ने अपनी इस पुस्तक को एक बोतल में
एक समुद्र को भरने की कोशिश की उपमा दी है - उपमा अपनी जगह है, पर व्यवहार
में उन्होंने समुद्र में जैसा जो जितना उन्हें मिला उसे बोतल में भर लेने
का काम ही किया है; समुद्र की व्यापकता और उसकी महत्ता पर विचार करने की
उन्होंने कोई जरूरत नहीं समझी । शाब्दिक सामग्री के साथ-साथ चित्रों के
सलेक्शन में डीएस कपूर विचारहीनता और आत्म-मुग्धता के इस हद तक शिकार रहे
कि हर तीसरी तस्वीर में किसी में बाएँ तो किसी में दाएँ और किसी में बीच
में वह स्वयं उपस्थित नजर आए । विभिन्न मौकों और प्रमुख व्यक्तियों के
दाएँ या बाएँ अपने आप को 'दिखाने' की उनकी इस कार्रवाई ने 750 से अधिक
पृष्ठों की उनकी इस पुस्तक को 'हल्का' बना दिया है । तथ्यों के भारी जमावड़े
के बावजूद 'हिस्ट्री एंड हैरिटेज'
शीर्षक अपनी पुस्तक में डीएस कपूर न 'हिस्ट्री' दे पाए और न 'हैरिटेज' के साथ न्याय कर पाए ।
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