प्रख्यात चित्रकार गोपी गजवानी की फिल्मों में अभिव्यक्त 'स्थितियाँ' हमारे 'देखने' को बहु-आयाम में देखना बनाती हैं

रज़ा फ़ाउण्डेशन 9 मार्च को प्रख्यात चित्रकार गोपी गजवानी की आठ छोटी छोटी फिल्मों को देखने का दुर्लभ मौका उपलब्ध करवा रहा है । हालाँकि करीब दो वर्ष पहले इन फिल्मों का दिल्ली में प्रदर्शन हो चुका है, किंतु उसके बाद इन फिल्मों को देखने की इच्छा रखने वाले लोग तरसते रहे हैं । इसलिए रज़ा फ़ाउण्डेशन का यह आयोजन वास्तव में एक दुर्लभ मौका है । मैंने करीब दो वर्ष पहले भी इन फिल्मों को देखा था, और अब फिर इन्हें देखना चाहूँगा । एक बातचीत में गोपी गजवानी ने बताया है कि फिल्म बनाने की प्रेरणा उन्हें तैयब मेहता और एमएफ हुसैन की फिल्मों को देख कर मिली थी और वर्ष 1973-74 में उन्होंने 'टाइम' तथा 'द एण्ड' शीर्षक से दो फिल्में बनाई थीं । इन फिल्मों को प्रशंसा तो बहुत मिली, लेकिन कुल मिलाकर यह उनके लिए घाटे का सौदा साबित हुआ और उन्हें निराशा मिली - जिसके नतीजे के रूप में उन्होंने फिल्म बनाने से तौबा कर ली थी । लेकिन फिल्म में अपनी सृजनात्मकता को विस्तार देने का उन्हें जो अवसर मिला, उसके मोह से वह पूरी तरह मुक्त नहीं हो सके ।
गोपी गजवानी ने पाया और कहा कि यूँ तो पेंटिंग और फिल्म, दोनों में सृजनात्मकता की परीक्षा होती है; दोनों ही माध्यमों में कल्पनाशीलता, संवेदना तथा विचार की जरूरत होती है; दोनों ही माध्यम सेंसेबिल हैं; लेकिन पेंटिंग में कैनवस छोटा होता है और वह स्थिर होती है, जबकि फिल्म को बड़े कैनवस के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है और उसमें गति होती है । दोनों में एक बड़ा फर्क जो गोपी गजवानी ने रेखांकित किया वह यह कि पेंटिंग यदि आपको 'पकड़ती' है तो आप 'वाह' कह देते हैं, लेकिन यदि फिल्म आपको पकड़ती है तो आपकी आँखों में आँसू भी आ सकते हैं; पेंटिंग आपको संवेदना और विचार के सुदूर क्षेत्र में ले जा सकती है, वह आपको ब्रह्माण्ड में होने का अहसास करा सकती है, लेकिन आपको सिसकने/सुबकने की दशा में नहीं पहुँचा सकती; फिल्म यह बड़ी आसानी से कर लेती है । फिल्म की इस 'ताकत' के प्रति गोपी गजवानी का आकर्षण खत्म नहीं हुआ; और यही कारण रहा कि तौबा कर लेने के बावजूद, 37-38 वर्षों बाद फिर से उन्होंने फिल्म को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाने के लिए कमर कसी । वर्ष 2011 में उन्होंने एक बार फिर से कैमरा पकड़ा और उसके अगले तीन वर्षों में उन्होंने छह और फिल्में बनाईं ।
गोपी गजवानी ने एक चित्रकार के रूप में अमूर्तन में काम किया है; चित्रकला की उनकी यही अमूर्तन की प्रवृत्ति उनकी फिल्मों में भी है । लेकिन दोनों माध्यमों के अमूर्तन में बड़ा फर्क भी है - और इसका कारण यही है कि पेंटिंग में अमूर्तन को जिस तरह संभव किया जा सकता है, ठीक उसी तरह से कैमरे से अमूर्तन को संभव नहीं किया जा सकता है । विषय तो अमूर्त हो सकता है, लेकिन फिल्म में विषय को प्रतिपादित करने के लिए लोग और चेहरे चाहिए ही होंगे; ऐसे में उनके लिए फिल्म माध्यम इसलिए भी चुनौतीपूर्ण बना कि लोगों और चेहरों की उपस्थिति के साथ वह अमूर्त रचना को कैसे संभव करें ? उन्होंने स्वयं भी बताया है, और उनकी इन फिल्मों के दर्शक के रूप में मैंने भी पाया है कि इन फिल्मों में कोई कहानी नहीं है । फिल्मों में 'स्थितियाँ' हैं - जिनमें हम एक ऐसी दुनिया का सामना करते हैं जो हमारी रोजमर्रा की हलचलों से मिलती-जुलती तो है, लेकिन बिलकुल वैसी ही नहीं होती; और इस तरह से वह हमारे 'देखने' को बहु-आयाम में देखना बनाती हैं । 'टाइम' फिल्म का तो कोई विषय भी नहीं है, बस एक स्थिति है : फिल्म में ऑटो रिक्शा में जा रही लड़की एक जगह रिक्शा रुकवा कर उससे उतरती है और यह कहकर चली जाती है कि 'मैं एक मिनट में आती हूँ, मेरा इंतजार करना ।' तेरह मिनट की इस फिल्म में बाकी समय रिक्शा चालक उसका इंतजार करता रहता है । फिल्म बहुत ही दार्शनिक अंदाज में 'समय' और 'इंतजार' से जुड़े अतीत के बहुत से अनुभवों और प्रभावों को स्मृत करा देती है । कोई भी कला हमारे साथ वास्तव में यही तो करती है - वह हमें हमसे मिलवाती है ।
देश-विदेश में अपनी पेंटिंग्स की 23 एकल प्रदर्शनी कर चुके तथा सौ से अधिक समूह प्रदर्शनियों में अपनी पेंटिंग्स प्रदर्शित कर चुके गोपी गजवानी अपनी पेंटिंग्स की तरह ही अपनी फिल्मों में भी दृश्यमान जगत की रचना करते हैं - जिसे देखना एक विलक्षण अनुभव से गुजरना है ।

Comments

  1. गोपी गजवानी आर्टिस्ट के फिल्मी सफरनामे के बारे में जानकर मन आनंदित हुआ।धन्यवाद।

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