'चाँद-रात' में रमा भारती अपनी कविताओं की तराश जिस तरह से करती हैं, उससे लगता है कि वह सिर्फ कवि ही नहीं हैं - असाधारण शिल्पी भी हैं

'चनाब' और 'चिनार' के बाद 'चाँद-रात' शीर्षक से आए अपने तीसरे कविता संग्रह में रमा भारती ने गहरी अनुभूतिशीलता, परिष्कृत सौंदर्यबोध और गरिमामय शिल्प की निरंतरता को जिस तरह से न सिर्फ बनाए रखा है, बल्कि उसे और समृद्ध किया है, उसे देखते हुए उनकी रचनाशीलता के प्रति अचरज व सम्मान सहज ही प्रकट होता है । कविता के शिल्प से रमा का व्यवहार हालाँकि लीक से बहुत हटकर है, और उनके वाक्यों का गठन इस क़दर अप्रचलित और नया सा दिखता है कि एकबारगी पढ़ते हुए रुकना-चौंकना पड़े; लेकिन फिर भी भाषा उनकी कविता में एक अंतर्धारा में चलती/बहती हुई ही दिखती है । प्रकृति के प्रति रमा के मन में गहरी संसक्ति है और उसके बहुत सारे दृश्य उन्होंने अपनी भाषा में साकार किए हैं - यों कि उनकी सूक्ष्मता और नैसर्गिकता अक्षुण्ण रहे । प्रकृति का सौंदर्य उन्हें कई बार इतना अलौकिक लगता है कि उससे वियुक्त किए जाने की संभावना भी उन्हें विषण्ण कर देती है और वह सहसा प्रकृति की धुन के गीत सुनने लगती हैं :

'जेठ की भड़कती भोर में 
भट्टी-सी जलती रेत पर 
जब दो आँखों से 
मुलकता है बो नन्हा बीज 
औ' लू की लहर पर 
अँगड़ाई लेता है उसका शैशव 
तब सहसा लगता है कि 
यही वो जगह है जहाँ 
चाँद पर से टूटे सितारे 
बिखरे हैं भर रात 
प्रकृति अपनी धुन पर 
गाती है गीत, हर मौसम में ।'

बरगद, टहनियाँ, अमावस की रात, रात की सिसकी, सैलाब, भोर आदि मानवीय स्थितियों, वस्तुओं और चरित्रों के सजीव रूप बनकर रमा की कविता में एक संश्लिष्ट गत्यात्मक बिम्ब-योजना में जिस तरह से विन्यस्त हो गए हैं - उससे बना कवि का सान्द्र और पारदर्शी लगाव यहाँ दृष्टव्य है : 

'नदी किनारे वाले 
अधबूढ़े बरगद के नीचे 
जब चाँद टहनियों में टिक जाता है 
रोज़ाना 
तो रात अमावस की 
अपनी धूल झाड़ चल पड़ती है 
उसी सूत को लपेटने जिसमें 
दोनों के जिस्म औ' रूह बंधे रहते हैं 
रात की आख़िरी सिसकी रोक 
चाँद चुपचाप टुकुर-टुकुर देखता है 
फिर बूँदों का सैलाब उमड़ आता है 
दरमियाँ 
और उतरा जाते हैं किनारे 
दूसरे कोर पर दोनों डूब के 
भोर को जन्म देते हैं ।' 
  
'चाँद-रात' में रमा भारती प्रकृति और जन-सामान्य से अपने घनिष्ट साहचर्य के विभिन्न स्तरों पर 'मैं' को समष्टि से जोड़ने और अपनी वैयक्तिकता को 'सामाजिक' बनाने की बराबर कोशिश करती दिखाई देती हैं । कवि सौंदर्य से अभिभूत है और उसके संसर्ग की कामना भी उसमें है; लेकिन वह उसके उस ऐश्वर्य से भी वाक़िफ़ है, जो सांसारिकता से मलिन नहीं होता :

'जब भी मधुर चाँद से बेचैन हो 
टपकने लगती है ख़ामोश अश्कों की चाँदनी 
रात यूँ ही जाग के बैठ जाती है एक करवट 
और भोर तक अनगिनत सितारों से 
पट जाती है दिल की ज़मीं 
साँसें भी सर्द होकर कहती हैं 
इन जुगनुओं को रहने दो अभी यहीं 
कि चाँद खिलखिलाते हुए उतरेगा 
आज रात कहीं ।' 

यह सुंदरता को उसकी स्वतंत्रता में चाहने और सम्मान करने की एक दुर्लभ आधुनिक चेतना से ही संभव है । रमा अपनी कविताओं की तराश जिस तरह से करती हैं, उससे लगता है कि वह सिर्फ कवि ही नहीं हैं - असाधारण शिल्पी भी हैं । उनकी कविताओं का पाठ कुछ शब्द-लाघव के चलते और कुछ अनुभूति के सम्मिश्र के चलते जटिल भी लगता है - हालाँकि उनमें ऐंद्रिय संवेदना और भाव मौजूँ ही महसूस होते हैं । 'कानों में चाँद के बूँदे', 'पीले ज़र्द से कुछ साये', 'बगुले की तरह गरदन गिराए-गिराए', 'ख़ामोश अश्कों की चाँदनी', 'चाँद शाम ही से डूब गया', 'ख़ामोशी में झुकी पलकें' आदि कुछेक ऐंद्रिक चित्र हैं; जिनमें 'एक नई राह पकड़' लेने, 'अकेला'पन, 'ठहर'ना, विश्वास, उड़ान, ख़वाब आदि भावनाओं का मौजूँ मिश्रण है - जो कविता(ओं) में सांगीतिक प्रभाव पैदा करता है । रमा कविता के लिए अप्रत्याशित विषय चुनती हैं, या उसे अप्रत्याशित रूप से गढ़ती हैं : 

'हाँ, बोलो !
उगते चाँद ने सर्द रात से कहा 
और अनकहा पसर गया चाँदनी में 
रात की ठिठुरती रूह कुछ गर्म हुई 
चाँदनी भी गुनगुनी-सी टपकने लगी 
चाँद की सिहरन ख़त्म भी न हुई थी 
कि रात का आँचल सिमटने लगा 
ये भी कोई वक़्त है ओस कटने का 
भोर होने से पहले क्यों भोर होने लगी ?'

आख़िरी पंक्ति रमा के अपने मिज़ाज, कविता-विषयक उनके आदर्श की अत्यंत सुंदर और सान्द्र अभिव्यक्ति है । नेरुदा ने कहीं लिखा है कि 'कविता मनुष्य की आत्मा की पुकार है' और उसके इसी धर्म से प्रतिश्रुत होने के चलते रमा भारती के मन में अधिकाधिक लोगों तक पहुँचने की उत्कंठा है । अपनी कविताओं में रमा ने अपने अतीत को वर्तमान की सक्रियता व नई राहों के अन्वेषण के साथ भविष्य की सकारात्मक ऊर्जा को भी स्वयं में समाहित किया हुआ है । दूसरे शब्दों में कहें तो इन कविताओं में कवि की यह शाश्वत जिद बरकरार दिखती है कि कविता जैसे जीवन के साथ विमर्श करती हुई चलती है । और जीवन किसी सिद्धांत या प्रयोगशाला में नहीं होता, बल्कि रोजमर्रा के उतार-चढ़ावों में होता है । रमा की कविताएँ वास्तविकता में सहजता का पर्याय रही हैं, लेकिन यह सहजता कवि कर्म की सहजता का पर्याय नहीं है । कविताओं में यह सहजता काल और समय के साथ कवि के यथार्थ रिश्ते के कारण अर्जित हो पाती है । कवि इस सहजता को इसलिए अर्जित कर पाता है क्योंकि वह मनुष्य जीवन की ऐहिकता को पूरे सम्मान के साथ समझने की कोशिश करता है । एक सामान्य अनुभव को वह अपने कवि कर्म का हिस्सा बना लेती हैं । एक उदाहरण देखें :

'मैं जमीन हूँ 
तुम्हारी बारिशें ही नहीं 
बाढ़ भी सोख लूँगी 
तुम कभी आकाश होकर देखना 
मेरे कुछ पंख तुम्हारी रातों में 
चाँद की कश्ती के चप्पू हो गए, होते होते ...'
 
यह वृत्तांत किसी व्यक्तिगत प्रसंग का मामला नहीं है, बल्कि उन साझा अनुभवों का मामला है, जो हर एक मनुष्य का साझा होता है । लेकिन इस सामान्य से साझा अनुभव को कवि व्यापकता में देखता और उसे उसी व्यापकता में गरिमा भी देता है :

'आत्मा को पाने के लिए 
देह की सीढ़ी 
पार करनी ही होती है 
जैसे देह को 
देह होने के लिए 
आत्मा को धारण करना ही होता है ...' 

इस तरह रमा की कविताएँ सामान्य मनुष्य की संवेदना और तार्किकता का हिस्सा हो जाती है । यह स्थिति और कुछ नहीं, बल्कि काव्य-कर्म के साथ कवि की 'मूल प्रतिज्ञा' से परिचय कराती है । जाहिर सी बात है कि कवि ने एक विशिष्टता से समग्रता की यात्रा की है, जो आधुनिकतावादी विचार की आधारभूत शर्त होती है । कवि व्यक्ति से समष्टि की ओर जो यात्रा करता है, वह मनुष्यता पर विश्वास के प्रतीक के रूप में सामने आ खड़ी होती है । यह स्थिति मात्र अनुभव से नहीं, बल्कि अनुभव के उद्दात्तीकरण के जरिए संभव हो पाती है । अनुभव का उद्दात्तीकरण ही लेखक को मनुष्यता के सच्चे प्रगतिशील प्रवक्ता में तब्दील करता है; और वह दो-टूक कह देता है : 'मेरी बालकनी से चाँद बहुत क़रीब है' ।

Comments

  1. मुकेश जी ! जन्मदिन की पूर्व-संध्या पर इस से प्यारा तोहफ़ा कोई और हो ही नहीं सकता....बहुत-बहुत आभार आपका....

    ReplyDelete
  2. रमा जी की कविताओं के प्रस्तुत अश पढ़ने के बाद यह तो तय है कि उन्हें सहजता से बयां नहीं किया जा सकता। प्रकृति के रूप में घास, फूल की बात नहीं, बल्कि मानवीय सरोकारों को उकेरने का प्रयास है। कविता संग्रह पढ़ने को विवश हैं, हम।

    ReplyDelete
  3. bhot hi acchi kaivta aap logo ke samne leke aaye bhotaccha lga padh kar motivational poems

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

गुलाम मोहम्मद शेख की दो कविताएँ

निर्मला गर्ग की कविताओं में भाषा 'बोलती' उतना नहीं है जितना 'देखती' है और उसके काव्य-प्रभाव में हम भी अपने देखने की शक्ति को अधिक एकाग्र और सक्रिय कर पाते हैं