वाल्ट व्हिटमैन की एक कविता
'सदानीरा' के नए अंक में अमेरिकन निबंधकार, पत्रकार और कवि वाल्टर 'वाल्ट' व्हिटमैन (31 मई 1819 - 26 मार्च 1892) की कविताएँ पढ़ीं तो अमेरिका के आभिजात्यवादी धारा की कहानी याद हो आई, जिसमें अपने समय के नैतिक दृष्टि से पतनोन्मुख और अराजक समाज के उपचार के लिए संस्कृति और विशेषकर कविता को आवश्यक माना गया था । उक्त धारा मुख्य रूप से प्रकृतवाद तथा जड़ यथार्थवाद के विरूद्ध आत्मपरक तथा कलात्मक प्रवृत्तियों का खुला व प्रखर विद्रोह थी । इसके पीछे मान्यता थी कि घटनाओं, व्यक्तियों तथा बाह्य जगत के पदार्थों की अपेक्षा मानवीय संवेदनाएँ, मनोभाव तथा अनुभव अधिक महत्वपूर्ण होते हैं और इन्हें सामान्य व यथार्थवादी भाषा तथा वर्णनों के माध्यम से संप्रेषित नहीं किया जा सकता है । यही मानते हुए उस दौर के लेखकों/कवियों ने स्थितियों को प्रतीक के रूप में लिया - और उसके जरिए उन्होंने स्वप्नों, संवेदनाओं तथा अमूर्त विचारों की व्यंजना की । वाल्ट व्हिटमैन ने अपनी कविताओं के माध्यम से उस दौर में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और पारंपरिक साहित्य-रूपों को त्यागते हुए कविता के शिल्प को भी बदला । 'सदानीरा' में प्रकाशित वाल्ट व्हिटमैन की कविताओं का अनुवाद लाल्टू ने किया है । उन्हीं में से यहाँ एक कविता साभार !
।। मुझे यूँ हाथ से थामे तुम जो भी हो ।।
मुझे यूँ हाथ से थामे तुम जो भी हो
अगर एक बात न हो तो यह सब बेकार जाएगा
इसके पहले कि तुम और आगे मुझ तक बढ़ो -
वक्त रहते मेरी यह चेतावनी है
तुम मुझे जो समझते रहे मैं वह नहीं, उससे बहुत अलग हूँ ।
मेरे साथ चलने को कौन तैयार है ?
मेरा प्यार पाने की उम्मीद कौन पालेगा ?
इस राह में शंकाएँ भरी हैं, अनजान मंज़िल है, शायद तबाही हो
मैं चाहूँगा कि बाकी सब कुछ छोड़कर तुम्हें मुझे ही -
अपना एकमात्र लक्ष्य मानना होगा
फिर भी तुम्हारी शागिर्दी लम्बी चलेगी और थका मारेगी
अपनी पिछली जिंदगी की सोच और और पास-पड़ोस के
हर नियम-कानून को छोड़ना होगा
इसलिए खुद को और तकलीफ देने से पहले अभी रुक जाओ
मेरे कंधों से अपने हाथ को छूट जाने दो
मुझे यहीं छोड़ अपनी राह पकड़ लो ।
या ग़लती से आजमाने के लिए किसी जंगल में
या किसी चट्टान के पीछे खुली हवा में
(चूँकि मकान के छत ढँके कमरे में मैं नहीं पेश होता,
कोई पास हो तब भी नहीं,
और किताबघरों में मैं गूँगा, गँवार, अजन्मा, या मृत हो लेट जाता हूँ)
पर हो सकता है कि तुम्हारे साथ किसी ऊँची पहाड़ी पर -
पहले यह देखकर कि कोसों दूर तक कोई आदमी
अनजाने ही आ तो नहीं रहा
या शायद समन्दर में तुम्हारे साथ नौका में
या समन्दर के तट पर ये किसी वीरान द्वीप पर,
वहाँ मेरे होंठों पर अपने होंठ रखने की इज़ाजत मैं तुम्हें दूँगा
कि एक साथी का लम्बे वक्त तक टिका चुम्बन या कि ताज़ा पति का चुम्बन
अब तो मैं ही नवेला पति और मैं ही साथी हो जाऊँगा ।
या अगर तुम चाहो, अपने कपड़ों के नीचे मुझे दबा कर
जहाँ कि मैं तुम्हारे दिल की धड़कन सुन सकूँ
या तुम्हारे नितम्बों पर टिक सकूँ
ज़मीं या समन्दर पर सफर करते हुए इस तरह मुझे ले चलना;
तुम्हें ऐसे छू पाना काफी होगा, वही सबसे अच्छा होगा,
और इस तरह तुम्हें छूते हुए मैं चुपचाप सो जाऊँगा और
अनन्त तक सुकून में रहूँगा ।
पर ये पत्तियाँ जो तुम्हें छल रही हैं वे खतरा मोल ले रही हैं
क्योंकि इन पत्तियों को और मुझे तुम नहीं समझ सकते
पहले ये तुम्हारी पकड़ से बाहर होंगी और इसके बाद और भी
मैं तुम्हारी पकड़ में नहीं आऊँगा
जब तुम्हें ऐसा लगे भी कि तुमने मुझे भेद लेने में
कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी, देखना !
तुम देखोगे कि मैं तुम्हारी पकड़ से दूर हूँ ।
मैंने जो इसमें डाला है वह इस किताब को लिखने की वजह नहीं
ऐसा भी नहीं कि इसे पढ़कर तुम इसे जान जाओगे
जो मुझे अच्छी तरह जानते और मेरी बेहद प्रशंसा करते हैं
वे भी नहीं जान सकते
मेरे प्रेम के आकांक्षी भी नहीं (या उनमें से बहुत कम ही)
यह जंग जीत सकते हैं
मेरी कविताएँ भी केवल भला करेंगी, ऐसा नहीं है
वे उतना ही या शायद उससे भी ज़्यादा बुरा भी करेंगी
क्योंकि जिस बात का संकेत मैंने किया है
जिसका तुम कई बार अनुमान लगाते हुए भी जिसे तुम नहीं जान सकते
उसके बिना सब बेकार है
इसलिए मुझे छोड़ो और अपनी राह पकड़ो ।
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